कुछ लोग शिक्षा मित्रों की तुलना झोलाछाप डाक्टरों से करते हैं,
इन लोगों का तर्क होता है कि प्राथमिक शिक्षा की डूब रही नवय्या को सिर्फ डिग्री की पूंछ में लपेटकर ही बचाया जा सकता है ।
कभी पहुंचिए उंगली में बर्र के काट लेने की दवाई लेने डिग्री वालों की हवेली पे,
उंगली के एक्स रे लेकर खून में यूरिक एसिड और लिपिड तक की जांच करा डालते हैं ।
जितना दर्द बर्र का फार्मिक एसिड नहीं देता उससे ज्यादा इनकी डिग्री दे डालती है,
अर्थात आप शारीरिक रूप से बीमार होकर पहुंचे,
आर्थिक और मानसिक रूप से बीमारी लेकर लौटे ।
कारण है सिर्फ डिग्री की धमक को भुनाने की कोशिश,
कोई क्लीनिक में जेब काटकर भुना रहा है तो कोई स्कूल में सिर्फ समय काटकर ।
बहुत से डिग्रीबाजों के मुखार बिन्दु से यह कहते हुए सुना जा सकता है कि हम इतनी "बड़ी" डिग्री लेकर "इन" कक्षाओं में क्या पढ़ाएं,
क्योंकि हम तो नासा के वैज्ञानिकों को पढ़ाने वाला "माइन्ड" रखते हैं !!!
अगर ईमानदारी से विश्लेषण करें तो इस सबका बुरा असर सरकारी स्कूलों के बच्चों पर पड़ रहा,
हो सकता है जल्द ही डिग्री के सुरूर पर भी पड़ जाए,
डिग्री चाचा चौधरी की लाठी नहीं,
सरकारी शिक्षा निजीकरण की ओर बढ़ रही,
क्योंकि जब डिग्री वाले तक सुधार नहीं कर सकेंगे तो क्या सरकारी स्कूलों के लिए सरकार ज्युपिटर से शिक्षक लाएगी !!!
यह ठीक है कि झोलाछाप डाक्टर साहब की दवाई कभी कभी किडनी का वध कर देती है,
मगर यह उससे भी बड़ा सच है कि किडनी की चोरी करने वाले हमेशा डिग्री वाले डाक्टर साहब ही थे ।
सरकारी स्कूलों में बच्चों का घटता नामांकन डिग्रीगिरी का भी "जिन्दा" पोस्टमार्टम कर रहा,
मान लिया शिक्षा मित्रों को गिनती नहीं आती,
क्या सरकार को भी गिनती नहीं आती जो इस साल भी कह रही कि सरकारी स्कूलों में नामांकन घट रहा,
जबकि अब तो डिग्री आलों को सरकारी स्कूलों में अमरीका मचाते दो साल भी गये !!!
अगर हो सके तो विनती है कि सरकार को भी गिनती सिखा दीजिए साहेब
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