आजीविका का अधिकार जीने के हक में शामिल!|
पूनम कौशिक | औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 की धारा 25 एफ के प्रावधानों के उल्लंघन के परिणामस्वरूप प्रबंधकों को श्रमिकों को बेकारी का पूर्ण बकाया वेतन सहित नौकरी अनवरत रखते हुए वापस काम पर रखने का निर्देश दिया।
मार्च 2015 में उत्तरप्रदेश राज्य बनाम चरणसिंह के मामले में फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति वी. गोपाला गौडा ने कहा कि भारतीय संविधान की धारा 19 और 21 में दी गई आजादी रोजी रोटी की सुनिश्चितता की अवधारणाओं का प्रबंधकों द्वारा उल्लंघन किया गया है। उसके परिवार के सदस्य पीड़ित हैं, क्योंकि उनकी रोजी रोटी प्रबंधकों के मनमाने रवैए के कारण छीन ली गई है। ओल्गा टेलिस व अन्य बनाम मुंबई म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को उद्धृत करते हुए न्यायालय ने प्रबंधकों को लताड़ लगाई, ‘... क्या जीने के अधिकार में आजीविका का अधिकार शामिल है। हमें इसका एक ही उत्तर दिखता है कि यह शामिल है।
संविधान के अनुच्छेद 21 का दायरा बेहद व्यापक है। जीने के अधिकार में महज इतना ही शामिल नहीं है कि किसी भी व्यक्ति का जीवन सजा-ए-मौत के द्वारा छीना जा सकता है। जीने का अधिकार मात्र एक पहलू है। इसका उतना ही महत्वपूर्ण पहलू है कि आजीविका का अधिकार जीने के अधिकार में शामिल है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति आजीविका के साधनों के बिना जी नहीं सकता। यदि आजीविका के अधिकार को संविधान प्रदत्त जीने के अधिकार में शामिल नहीं माना जाएगा तो किसी भी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार से वंचित करने का सबसे सरल तरीका है, उसके आजीविका के साधनों से उसे वंचित कर देना। ऐसी वंचना न केवल जीवन को निरर्थक बना देती है अपितु जीवन जीना ही असंभव बना देती है। किसी व्यक्ति को उसके आजीविका के अधिकार से वंचित करने का मतलब है, उसे जीवन से वंचित कर देना। दरअसल इसी कारण से ग्रमीण जनता का शहरों की ओर पलायन होता है। गांवों में आजीविका के साधन न होने के कारण ही वे शहरों की ओर आते हैं।
इसी तरह एक अन्य मामले में तथ्य इस प्रकार थे- श्रमिक चरण सिंह 6 मार्च 1974 को ट्यूबवेल ऑपरेटर के पद पर बतौर अस्थायी कर्मचारी उप्र के मत्स्य विभाग में भर्ती किया गया था। 22 अगस्त 1975 को उसे यह कहते हुए सेवा से मुक्त कर दिया कि चूंकि वह अस्थायी तौर पर भर्ती किया गया था, इसलिए उसे नौकरी पर रखने की आवश्यकता नहीं है। इस कार्रवाई के खिलाफ श्रमिक ने श्रम कार्यालय में कार्यवाही प्रारंभ की। मामला श्रमिक अदालत में भेजा गया। श्रमिक अदालत ने फैसले में मत्स्य विभाग को उक्त श्रमिक को समकक्ष पद पर पुरर्स्थापित करने का आदेश दिया, जो 24 फरवरी 97 से प्रभावी होने का निर्देश दिया। परंतु बेकारी के दिनों का कोई वेतन नहीं दिया।
श्रमिक को मछुआरा का पद देते हुए कहा कि यह ट्यूबवेल ऑपरेटर के समकक्ष है। परंतु श्रमिक इस पद पर काम करने नहीं आया। विभाग ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका लगाई कि 24 फरवरी से 31 जनवरी 2005 तक श्रमिक को कोई वेतन नहीं दिया जाएगा। इस पर उच्च न्यायालय ने विभाग के प्रबंधकों को फटकार लगाई कि श्रमिक के इतने साल प्रबंधकों ने बर्बाद कर दिए। उसे इस अवधि का वेतन दिया जाए। विभाग ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई। सुप्रीम कोर्ट ने भी इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को सही ठहराया। उसे 22 अगस्त 1975 से फैसले की तिथि तक 50 फीसदी बकाया वेतन देने का निर्देश दिया। साथ ही 24 फरवरी 1997 से 31 जनवरी 2005 तक हाईकोर्ट द्वारा पूर्ण बकाया वेतन को सही ठहराते हुए संशोधित वेतनमान के आधार पर श्रमिक को चार हफ्ते में भुगतान करने का आदेश दिया।
पूनम कौशिक
हाईकोर्ट अधिवक्ता, दिल्ली
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पूनम कौशिक | औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 की धारा 25 एफ के प्रावधानों के उल्लंघन के परिणामस्वरूप प्रबंधकों को श्रमिकों को बेकारी का पूर्ण बकाया वेतन सहित नौकरी अनवरत रखते हुए वापस काम पर रखने का निर्देश दिया।
मार्च 2015 में उत्तरप्रदेश राज्य बनाम चरणसिंह के मामले में फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति वी. गोपाला गौडा ने कहा कि भारतीय संविधान की धारा 19 और 21 में दी गई आजादी रोजी रोटी की सुनिश्चितता की अवधारणाओं का प्रबंधकों द्वारा उल्लंघन किया गया है। उसके परिवार के सदस्य पीड़ित हैं, क्योंकि उनकी रोजी रोटी प्रबंधकों के मनमाने रवैए के कारण छीन ली गई है। ओल्गा टेलिस व अन्य बनाम मुंबई म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को उद्धृत करते हुए न्यायालय ने प्रबंधकों को लताड़ लगाई, ‘... क्या जीने के अधिकार में आजीविका का अधिकार शामिल है। हमें इसका एक ही उत्तर दिखता है कि यह शामिल है।
संविधान के अनुच्छेद 21 का दायरा बेहद व्यापक है। जीने के अधिकार में महज इतना ही शामिल नहीं है कि किसी भी व्यक्ति का जीवन सजा-ए-मौत के द्वारा छीना जा सकता है। जीने का अधिकार मात्र एक पहलू है। इसका उतना ही महत्वपूर्ण पहलू है कि आजीविका का अधिकार जीने के अधिकार में शामिल है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति आजीविका के साधनों के बिना जी नहीं सकता। यदि आजीविका के अधिकार को संविधान प्रदत्त जीने के अधिकार में शामिल नहीं माना जाएगा तो किसी भी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार से वंचित करने का सबसे सरल तरीका है, उसके आजीविका के साधनों से उसे वंचित कर देना। ऐसी वंचना न केवल जीवन को निरर्थक बना देती है अपितु जीवन जीना ही असंभव बना देती है। किसी व्यक्ति को उसके आजीविका के अधिकार से वंचित करने का मतलब है, उसे जीवन से वंचित कर देना। दरअसल इसी कारण से ग्रमीण जनता का शहरों की ओर पलायन होता है। गांवों में आजीविका के साधन न होने के कारण ही वे शहरों की ओर आते हैं।
इसी तरह एक अन्य मामले में तथ्य इस प्रकार थे- श्रमिक चरण सिंह 6 मार्च 1974 को ट्यूबवेल ऑपरेटर के पद पर बतौर अस्थायी कर्मचारी उप्र के मत्स्य विभाग में भर्ती किया गया था। 22 अगस्त 1975 को उसे यह कहते हुए सेवा से मुक्त कर दिया कि चूंकि वह अस्थायी तौर पर भर्ती किया गया था, इसलिए उसे नौकरी पर रखने की आवश्यकता नहीं है। इस कार्रवाई के खिलाफ श्रमिक ने श्रम कार्यालय में कार्यवाही प्रारंभ की। मामला श्रमिक अदालत में भेजा गया। श्रमिक अदालत ने फैसले में मत्स्य विभाग को उक्त श्रमिक को समकक्ष पद पर पुरर्स्थापित करने का आदेश दिया, जो 24 फरवरी 97 से प्रभावी होने का निर्देश दिया। परंतु बेकारी के दिनों का कोई वेतन नहीं दिया।
श्रमिक को मछुआरा का पद देते हुए कहा कि यह ट्यूबवेल ऑपरेटर के समकक्ष है। परंतु श्रमिक इस पद पर काम करने नहीं आया। विभाग ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका लगाई कि 24 फरवरी से 31 जनवरी 2005 तक श्रमिक को कोई वेतन नहीं दिया जाएगा। इस पर उच्च न्यायालय ने विभाग के प्रबंधकों को फटकार लगाई कि श्रमिक के इतने साल प्रबंधकों ने बर्बाद कर दिए। उसे इस अवधि का वेतन दिया जाए। विभाग ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगाई। सुप्रीम कोर्ट ने भी इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को सही ठहराया। उसे 22 अगस्त 1975 से फैसले की तिथि तक 50 फीसदी बकाया वेतन देने का निर्देश दिया। साथ ही 24 फरवरी 1997 से 31 जनवरी 2005 तक हाईकोर्ट द्वारा पूर्ण बकाया वेतन को सही ठहराते हुए संशोधित वेतनमान के आधार पर श्रमिक को चार हफ्ते में भुगतान करने का आदेश दिया।
पूनम कौशिक
हाईकोर्ट अधिवक्ता, दिल्ली
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