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रोजगार के सवाल का समाधान: थम नहीं रहा भर्ती परीक्षाओं के टलने का सिलसिला, निजी क्षेत्र को लेकर की जा रही सस्ती राजनीति रोजगार के सवाल को और गंभीर ही बनाएगी

 भिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं के रद-स्थगित होने का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। पिछले महीने सेना को अपनी एक देशव्यापी भर्ती परीक्षा प्रश्नपत्र लीक होने के कारण रद करनी पड़ी। प्रश्नपत्र लीक होने अथवा अन्य

किसी धांधली के कारण परीक्षा रद होने का यह इकलौता मामला नहीं। ऐसे मामले सामने आते ही रहते हैं। जब कोई भर्ती परीक्षा रद होती है तो लाखों छात्र प्रभावित होते हैं और नौकरी पाने की उनकी प्रतीक्षा भी बढ़ जाती है। जबसे कोविड महामारी फैली है, तबसे उसके कारण भी कई परीक्षाएं रद हुई हैं। हाल में महाराष्ट्र राज्य सेवा आयोग की परीक्षा पांचवीं बार स्थगित की गई। कोरोना के कारण ही हाल में मध्य प्रदेश पुलिस कांस्टेबल परीक्षा रद की गई। राजस्थान में अध्यापक पात्रता परीक्षा आíथक पिछड़ों को मौका देने के चलते स्थगित हुई। उत्तर प्रदेश में अधीनस्थ सेवा आयोग की परीक्षा परिणाम आने के बाद रद कर दी गई, क्योंकि जांच में यह सामने आया कि इस परीक्षा में गड़बड़ी हुई थी। इसी आयोग ने अप्रैल में होने वाली अपनी तीन और परीक्षाएं स्थगित कर दी हैं।



चंद दिनों पहले उत्तराखंड सरकार ने सहकारी बैंक भर्ती परीक्षा रद कर दी, क्योंकि उसमें धांधली के आरोप लगे थे। इसके पहले हरियाणा स्टाफ सेलेक्शन कमीशन की ओर से हुई ग्राम सचिव भर्ती परीक्षा को प्रश्न पत्र लीक होने के कारण रद करना पड़ा था। हिमाचल प्रदेश में हिमाचल पथ परिवहन निगम की कंडक्टर भर्ती का परीक्षा परिणाम अटक गया है, क्योंकि उसमें धांधली की जांच रपट का इंतजार किया जा रहा है। दिल्ली के जिला न्यायालयों में ग्रुप-सी की भर्ती परीक्षा भी स्थगन का शिकार हो चुकी है। परीक्षा स्थगन का कारण वही रहा-प्रश्न पत्र लीक होना। वास्तव में ऐसी भर्ती परीक्षाओं की गिनती करना मुश्किल है, जिन्हें प्रश्न पत्र लीक होने या अन्य किसी गड़बड़ी के कारण रद किया गया। इसमें संदेह नहीं कि रिक्त पड़े सरकारी पदों पर समय से भर्ती न हो पाने का एक कारण इस या उस वजह से रद या स्थगित की जाने वाली भर्ती परीक्षाएं भी हैं। रद, स्थगन, विलंब का शिकार भर्ती परीक्षाएं देर-सबेर आयोजित होंगी ही, लेकिन समस्या यह भी है कि सरकारी नौकरियों की संख्या घटती जा रही है। कोरोना संकट ने केंद्र के साथ राज्यों की आíथक हालत पर और बुरा असर डाला है। इसके चलते रिक्त पदों को भरने में और विलंब हो सकता है।

इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि विभिन्न राज्यों में पुलिसकíमयों के ही लाखों पद रिक्त हैं। यहां तक कि अर्धसैनिक बलों में भी एक लाख से अधिक पद रिक्त पड़े हुए हैं। सितंबर, 2020 के एक आंकड़े के अनुसार, देश भर में केवल शिक्षकों के ही दस लाख से अधिक पद रिक्त हैं। पुलिस और शिक्षकों के पदों के लंबे समय तक रिक्त बने रहने का कोई मतलब नहीं। इन्हें प्राथमिकता के आधार पर भरा जाना चाहिए। यह बात अन्य विभागों के रिक्त पदों को लेकर नहीं कही जा सकती, क्योंकि कामकाज में तकनीक का दखल बढ़ता जा रहा है। तकनीक और खासकर आर्टििफशियल इंटेलीजेंस जैसी तकनीक का असर नौकरियों पर पड़ना तय है। सरकारी नौकरियों में कमी की भरपाई के लिए निजी क्षेत्र का सहयोग लेना आज की सख्त जरूरत है। इस जरूरत को पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार यह कहकर रेखांकित किया है कि सरकारों का काम उद्योग-धंधे चलाना नहीं है। नि:संदेह सरकारों का काम उद्योग-धंधे चलाना नहीं है, लेकिन उन्हें रोजगार के सवाल पर तो गंभीरता का परिचय देना ही होगा। सरकारी नौकरियों में कमी की भरपाई निजी क्षेत्र कर सके, इसके लिए इस क्षेत्र को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। यह काम बेहतर नियमन और निगरानी तंत्र बनाकर ही किया जाना चाहिए, ताकि न तो किसी तरह की मनमानी हो सके और न ही एकाधिकार वाली स्थिति पैदा हो। निजी क्षेत्र को प्रोत्साहन देने की बात पर आम तौर पर विपक्षी दल केवल नाक-भौं ही नहीं सिकोड़ते, बल्कि ऐसे आरोपों के साथ सामने आ जाते हैं कि सरकार सब कुछ बेचने पर आमादा है।

कांग्रेस केवल ऐसे आरोपों तक ही सीमित नहीं है कि मोदी सरकार अपने गहने बेचने में जुट गई है, बल्कि वह यह भी प्रचारित कर रही है कि मोदी सरकार केवल तीन-चार उद्योगपतियों के हितों को पूरा करने का काम कर रही है। वाम नेताओं की संगत में घोर वामपंथी बन चुके राहुल गांधी खास तौर पर अंबानी-अदाणी को निशाने पर रखते हैं। जब कोशिश इसकी होनी चाहिए कि देश में अंबानी-अदाणी सरीखे बड़े और लोगों को नौकरियों के साथ रोजगार के अवसर प्रदान करने वाले कारोबारी समूहों की संख्या बढ़े, तब उन्हें न केवल खलनायक बताया जा रहा है, बल्कि आधारहीन आरोपों के जरिये लांछित भी किया जा रहा है। क्या ये कारोबारी समूह अपने उत्पाद या फिर सेवाएं जबरन लोगों को मुहैया करा रहे हैं? क्या ऐसा कुछ है कि इन कारोबारी समूहों के उत्पाद अथवा सेवाएं घटिया होने के बावजूद लोगों को खरीदनी पड़ रही हैं? यह विडंबना ही है कि जो दल संकीर्ण राजनीतिक कारणों से कारोबारी समूहों को निशाना बनाकर निजी क्षेत्र पर नजला गिराते हैं, वही रोजगार का सवाल भी खड़ा करते हैं। यह सस्ती राजनीति रोजगार के सवाल को और गंभीर ही बनाएगी। ये दल और खासकर कांग्रेस इससे अपरिचित नहीं हो सकती कि चीन की जो तमाम कंपनियां दुनिया भर में छा गई हैं, उनके विकास में वहां की सरकार का हाथ है।

यदि सरकारी नौकरियों के पीछे भागते युवाओं को संतुष्ट करना है तो फिर सरकारों को यह सुनिश्चित करना होगा कि निजी क्षेत्र रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा करे। इसी के साथ उन्हें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि भर्ती परीक्षाएं रह-रहकर रद या फिर स्थगित न हों, क्योंकि जब ऐसा होता है तो परीक्षाओं के साथ सरकारों की भी विश्वसनीयता का क्षरण होता है।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
राजीव सचान

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