SMS काण्ड कानपुर देहात : समय से एसएमएस न भेजने पर परिषदीय शिक्षकों का धड़ाधड़ वेतन काट रहा है बेसिक शिक्षा विभाग,अभी तक 3500 शिक्षकों का कट चुका है एक दिन का वेतन, इस प्रकरण पर सोशल मीडिया पर वायरल आलेख " क्या यही है लोकतंत्र का मानवीय चेहरा??? पढ़ें,
अब प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में शिक्षक इतना नकारा, कामचोर, अपराधी और निर्भय हो गया है जो प्रशासन को ऐसा निर्णय मजबूरी में लेना पड़ा???
मित्रो जबकि इस आसान सी समस्या को प्रेम और प्रोत्साहन व समुचित सूचना प्रसार/संवाद द्वारा बड़ी ही सरलता से सुलझाया जा सकता था। किन्तु शायद ऐसा इसीलिए नहीं हुआ, क्योंकि यह शासन और प्रशासन की एक सोची समझी चाल है जिससे वह बेसिक शिक्षकों को इतना बदनाम और कामचोर सिद्ध कर दे कि वह आसानी से बेसिक शिक्षा के निजीकरण की दिशा तय कर सकें।
क्योंकि निःशुल्क व्यवस्था और स्वयं की असफलताओं को छिपा कर, भ्रष्टाचार से अर्जित धन का निवेश करने का कही न कहीं दूरगामी उद्देश्य सिद्ध होता दिखाई देता है। शिक्षा माफियाओं की नजर बेसिक शिक्षा की अमूल्य जमीन और संसाधनों पर है। जिसे जनता जी नज़र में बेसिक शिक्षा को बदनाम और फेल करके ही प्राप्त किया जा सकता है।
यदि ऐसा नहीं हैं तो क्या इतनी बड़ी संख्या में वेतन काट कर, भ्रामक आंकड़ो को देकर विभिन्न समाचार माध्यमों से प्रचारित कर समाज को क्या संदेश देना चाहते थे???
क्या ये यह इंगित करना चाह रहे है कि बेसिक शिक्षा का शिक्षक स्कूल नहीं जाता है इसलिए अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाओ। क्या इसके अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं बचा था??
क्या यही अन्तिम रास्ता बचा था?? जबकि कई महीनों से SMS व्यवस्था सही ढंग से जारी थी, तो शिक्षकों को कंट्रोल रूम नम्बर के स्थान पर अकस्मात 'साहब' के नम्बर पर SMS भेजने को क्यों कहा गया ??
हमारे जानने वाले कई शिक्षक ऐसे है जो बेसिक शिक्षा के लिए पूर्ण समर्पित और अनुशासित है एवम जिनकी जानकारी उनके कार्यक्षेत्रों से कभी भी जुटाई जा सकती है।
फिर भी जिस सम्मान और वेतन के लिए समर्पित थे वह आज अपने को कलंकित और अपराध बोध से निराशा में डूब कर बेबस दिखाई दे रहे हैं। जिन्हें प्रेम और प्रोत्साहन की जरूरत थी।
१- किसी ने मोबाइल टावरों से नेटवर्क के लिए शिक्षक होने की बेबसी का निवेदन नहीं किया। जिससे मैसेज देर में पहुँचा ।
२-किसी से मैसेज साहब के स्थान पर कन्ट्रोल रूम के नम्बर पर चला गया।
३- कोई बच्चों की अर्धवार्षिक परीक्षाओं के पेपर/ कॉपी लेने की आपा -धापी और मिड डे मील की सब्जी लेकर स्कूल पहुँचने पर लेट हो गया।
४- कोई बच्चों की प्रार्थना सभा में व्यस्तता के कारण कुछ मिनट विलम्ब से भेज पाया।
५- किसी के घर पर बच्चा बीमार था उसे दवा दिलाने में लेट हो गया, और उसका (निजी) फोन कब स्विच ऑफ हो गया, वो भी न जान सका, और फिर स्कूल में बन्द फोन से भला क्या सम्भव है ?
६- कोई जल्दी वैन/ गाड़ी/ सवारी के चक्कर में फोन घर ही भूल गया।
७. कोई मोबाइल कंपनियों द्वारा मनमानी से बैलेंस कटौती से आजिज होकर, सिर्फ कॉलिंग मिनिट्स ही रिचार्ज करवाता हो।
आदि अनेक विविध आकस्मिक कारण हो सकते हैं।
तो क्या यह स्थितियाँ सिर्फ शिक्षक जनित हैं या आकस्मिक है या सम्पूर्ण सामाजिक और प्रशासनिक??
क्या इनकी सत्यता जानने के लिए इनके पास कोई सोच या उपाय नहीं बचे??
जबकि एक शिक्षक का निरीक्षण करने का अधिकार निम्नवत को मिला हुआ है---
१- प्रदेश के सरकार का कोई भी मंत्री, विधायक, सदस्य, सचिव और सांसद आदि।
२- मण्डलीय और जनपदीय समस्त प्रशासनिक अधिकारी।
३- तहसील और ब्लॉक के समस्त प्रशासनिक अधिकारी और कर्मचारी।
४- शिक्षा विभाग के प्रदेश से लेकर ब्लॉक तक के सभी शिक्षा अधिकारी।
५- बी आर सी के सभी सह समन्वयक और एन पी आर सी समन्वयक।
६- जिला पंचायत और क्षेत्र पंचायतों के सभी सदस्य और अध्यक्ष।
७- ग्राम प्रधान और ग्राम पंचायत सदस्य।
८- -विद्यालय प्रबन्ध समिति में शामिल चौदह सदस्य और अध्यक्ष।
९-समस्त बच्चों के अभिभावक आदि।
१०- सभी समाचार एजेन्सियों के पत्रकार बन्धु।
अब आप लोग यह भलीभाँति जान सकते हैं कि एक शिक्षक कामचोर, भ्रष्ट कैसे हो सकता है???
जिसका पूरा जीवन सघन निगरानी में रहता है। जबकि उस के मानवीय जीवन में कोई व्यवहारिक समस्याएं नहीं होती है। उसे साल में एक बार गर्मी की छुट्टियाँ इस प्रकार दे दीं जाती है जैसे- श्राद्ध के समय पितरों को भोजन। उस ग्रीष्मावकाश में जिसमे सूखाग्रस्त वर्ष में MDM बनवाने, जनगणना, बालगणना आदि के नाम पर कार्यक्षेत्र में व्यस्त रखा जाता ही है। इसके बाद साल में केवल चौदह अवकाश में पूरे काम। यदि सत्र में दस छुट्टी से काम चल गया, तो शेष अपने आप खत्म, लेकिन किसी सत्र में परिवार पर किसी बीमारी आदि की परेशानी के कारण अट्ठारह की जरूरत पड़ गयी तो कोई रास्ता नही सम्मान और ईमानदारी बचाने का।
प्रदेश में हज़ारों कर्मचारियों को CUG सिम के साथ, नियमित टॉकटाइम बैलेंस, बिल भुगतान किया जा रहा है।
प्रदेश में किसी एक अध्यापक को विभाग द्वारा न ही कोई मोबाइल सिम, न कोई मोबाइल सेट, न ही SMS भेजने के लिए कोई मद ,आजतक किसी अधिकारी या स्वयं विभाग द्वारा दी गयी है।
फिर बिन मूलभूत संशाधन उपलब्ध कराए, किस आधार पर एक शिक्षक से यह उम्मीद की जा सकती है कि अपने वेतन का एक हिस्सा इनके मनमाने फरमानों को पूरा करने में व्यय करे।
शिक्षक पर इन अधिकारियों की नज़रे इनायत का आलम क्या कहिये कि, अर्धवार्षिक परीक्षा शुरू है, अख़बारों में खातों में धन SMC खातों में भेजने की खबरें छप रहीं, पर कितने दिनों में यह असल में खातों में पहुँचेगा( सम्भव है तब तक वार्षिक का समय हो जाए) कोई बतानेवाला भी नही होता, किन्तु फिर भी परीक्षा व ऐसे ही सैकड़ो अन्य काम करवाने होते अध्यापकों को ।
और अध्यापक अपना खुद के वेतन से यह सभी काम पहले सम्पन्न करता, महीनों बाद उसका बजट खाते में आता है। कहीँ कहीँ बिन बजट के mdm तक बनवाता है बेसिक शिक्षक।
प्रदेश के सैकड़ो विभाग के लाखों कर्मचारियों में, एक मात्र शिक्षक से ही उम्मीद की जाती है कि वह -विद्यालय समय से आधे घण्टा पहले पहुँचे और आधा घण्टा बाद में आये, रविवार को पल्स पोलियो से बचे तो, फल तो जरूर ही खरीद रख ले , लेकिन पोस्टिंग जब होगी तो रोस्टर या रोकड़ से होगी।
काउन्सिलिंग और म्यूचुअल ट्रान्सफर की शिक्षक को जरूरत नहीं। जिससे कम से कम दूरी तय करके समय से स्कूल पहुँच सके।
इससे यह सिद्ध होता है कि आरोप लगाने से पहले अपनी असफलता पर विचार करें। जब शिक्षक प्रत्येक राष्ट्रीय कार्य अच्छे से और ईमानदारी से करता है। तो वह अपना मूल काम -विद्यालय और शिक्षण क्यों नहीं कर पाता। उसका शायद मूल कारण हमारी सत्ता और व्यवस्था का भेदभाव पूर्ण व्यवहार ही है। नहीं तो गाँव स्तर के जितने भी सरकारी काम हैं उनमें शिक्षकों द्वारा किये गये काम अन्य की तुलना में कहीं बेहतर और गुणवत्तापूर्ण हैं। जरूरत पर शिक्षको से दूसरे सभी विभागों के काम इसीलिए लिए जाते हैं। इस देश के समस्त वेतनभोगियों के बीच एक बेसिक शिक्षा का शिक्षक ही है जो अपने विभाग के सम्मान के लिए अपने वेतन का एक हिस्सा प्रतिमाह खर्च कर देता है और जिससे न्यूनतम धन और संसाधनों देकर अधिकतम कार्य की आशा की जाती है। अन्य कोई कर्मचारी एक भी दिन अवकाश में कार्यालय आता है तो उसे प्रतिकर मिलता है, जबकि अध्यापकों को सिर्फ दबाव से करिये वही काम। जब कोई काम शिक्षक करता है तो मानक चाहिए, जब वही काम स्वयं करें तो कोई मानक नहीं चाहिए। वह भी शिक्षक करें तो काम पहले , दाम काम होने के बाद में देकर अनेकों जाचों के माध्यम से आतंकित किया जाता है। यदि पन्द्रह बीस हजार के वार्षिक बजट और इतनी सघन निगरानी के बीच,चोरी कर के करोड़पति बना जा रहा है। तो वहाँ क्या हाल होगा, जहाँ लाखों, करोड़ों, और अरबों रुपये का बजट आता है वह भी बिना किसी निगरानी के !!! आप स्वयं सोच सकते हैं।
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अब प्रश्न उठता है कि क्या वास्तव में शिक्षक इतना नकारा, कामचोर, अपराधी और निर्भय हो गया है जो प्रशासन को ऐसा निर्णय मजबूरी में लेना पड़ा???
मित्रो जबकि इस आसान सी समस्या को प्रेम और प्रोत्साहन व समुचित सूचना प्रसार/संवाद द्वारा बड़ी ही सरलता से सुलझाया जा सकता था। किन्तु शायद ऐसा इसीलिए नहीं हुआ, क्योंकि यह शासन और प्रशासन की एक सोची समझी चाल है जिससे वह बेसिक शिक्षकों को इतना बदनाम और कामचोर सिद्ध कर दे कि वह आसानी से बेसिक शिक्षा के निजीकरण की दिशा तय कर सकें।
क्योंकि निःशुल्क व्यवस्था और स्वयं की असफलताओं को छिपा कर, भ्रष्टाचार से अर्जित धन का निवेश करने का कही न कहीं दूरगामी उद्देश्य सिद्ध होता दिखाई देता है। शिक्षा माफियाओं की नजर बेसिक शिक्षा की अमूल्य जमीन और संसाधनों पर है। जिसे जनता जी नज़र में बेसिक शिक्षा को बदनाम और फेल करके ही प्राप्त किया जा सकता है।
यदि ऐसा नहीं हैं तो क्या इतनी बड़ी संख्या में वेतन काट कर, भ्रामक आंकड़ो को देकर विभिन्न समाचार माध्यमों से प्रचारित कर समाज को क्या संदेश देना चाहते थे???
क्या ये यह इंगित करना चाह रहे है कि बेसिक शिक्षा का शिक्षक स्कूल नहीं जाता है इसलिए अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाओ। क्या इसके अतिरिक्त कोई और विकल्प नहीं बचा था??
क्या यही अन्तिम रास्ता बचा था?? जबकि कई महीनों से SMS व्यवस्था सही ढंग से जारी थी, तो शिक्षकों को कंट्रोल रूम नम्बर के स्थान पर अकस्मात 'साहब' के नम्बर पर SMS भेजने को क्यों कहा गया ??
हमारे जानने वाले कई शिक्षक ऐसे है जो बेसिक शिक्षा के लिए पूर्ण समर्पित और अनुशासित है एवम जिनकी जानकारी उनके कार्यक्षेत्रों से कभी भी जुटाई जा सकती है।
फिर भी जिस सम्मान और वेतन के लिए समर्पित थे वह आज अपने को कलंकित और अपराध बोध से निराशा में डूब कर बेबस दिखाई दे रहे हैं। जिन्हें प्रेम और प्रोत्साहन की जरूरत थी।
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२-किसी से मैसेज साहब के स्थान पर कन्ट्रोल रूम के नम्बर पर चला गया।
३- कोई बच्चों की अर्धवार्षिक परीक्षाओं के पेपर/ कॉपी लेने की आपा -धापी और मिड डे मील की सब्जी लेकर स्कूल पहुँचने पर लेट हो गया।
४- कोई बच्चों की प्रार्थना सभा में व्यस्तता के कारण कुछ मिनट विलम्ब से भेज पाया।
५- किसी के घर पर बच्चा बीमार था उसे दवा दिलाने में लेट हो गया, और उसका (निजी) फोन कब स्विच ऑफ हो गया, वो भी न जान सका, और फिर स्कूल में बन्द फोन से भला क्या सम्भव है ?
६- कोई जल्दी वैन/ गाड़ी/ सवारी के चक्कर में फोन घर ही भूल गया।
७. कोई मोबाइल कंपनियों द्वारा मनमानी से बैलेंस कटौती से आजिज होकर, सिर्फ कॉलिंग मिनिट्स ही रिचार्ज करवाता हो।
आदि अनेक विविध आकस्मिक कारण हो सकते हैं।
तो क्या यह स्थितियाँ सिर्फ शिक्षक जनित हैं या आकस्मिक है या सम्पूर्ण सामाजिक और प्रशासनिक??
क्या इनकी सत्यता जानने के लिए इनके पास कोई सोच या उपाय नहीं बचे??
जबकि एक शिक्षक का निरीक्षण करने का अधिकार निम्नवत को मिला हुआ है---
१- प्रदेश के सरकार का कोई भी मंत्री, विधायक, सदस्य, सचिव और सांसद आदि।
२- मण्डलीय और जनपदीय समस्त प्रशासनिक अधिकारी।
३- तहसील और ब्लॉक के समस्त प्रशासनिक अधिकारी और कर्मचारी।
४- शिक्षा विभाग के प्रदेश से लेकर ब्लॉक तक के सभी शिक्षा अधिकारी।
५- बी आर सी के सभी सह समन्वयक और एन पी आर सी समन्वयक।
६- जिला पंचायत और क्षेत्र पंचायतों के सभी सदस्य और अध्यक्ष।
७- ग्राम प्रधान और ग्राम पंचायत सदस्य।
८- -विद्यालय प्रबन्ध समिति में शामिल चौदह सदस्य और अध्यक्ष।
९-समस्त बच्चों के अभिभावक आदि।
१०- सभी समाचार एजेन्सियों के पत्रकार बन्धु।
अब आप लोग यह भलीभाँति जान सकते हैं कि एक शिक्षक कामचोर, भ्रष्ट कैसे हो सकता है???
जिसका पूरा जीवन सघन निगरानी में रहता है। जबकि उस के मानवीय जीवन में कोई व्यवहारिक समस्याएं नहीं होती है। उसे साल में एक बार गर्मी की छुट्टियाँ इस प्रकार दे दीं जाती है जैसे- श्राद्ध के समय पितरों को भोजन। उस ग्रीष्मावकाश में जिसमे सूखाग्रस्त वर्ष में MDM बनवाने, जनगणना, बालगणना आदि के नाम पर कार्यक्षेत्र में व्यस्त रखा जाता ही है। इसके बाद साल में केवल चौदह अवकाश में पूरे काम। यदि सत्र में दस छुट्टी से काम चल गया, तो शेष अपने आप खत्म, लेकिन किसी सत्र में परिवार पर किसी बीमारी आदि की परेशानी के कारण अट्ठारह की जरूरत पड़ गयी तो कोई रास्ता नही सम्मान और ईमानदारी बचाने का।
प्रदेश में हज़ारों कर्मचारियों को CUG सिम के साथ, नियमित टॉकटाइम बैलेंस, बिल भुगतान किया जा रहा है।
प्रदेश में किसी एक अध्यापक को विभाग द्वारा न ही कोई मोबाइल सिम, न कोई मोबाइल सेट, न ही SMS भेजने के लिए कोई मद ,आजतक किसी अधिकारी या स्वयं विभाग द्वारा दी गयी है।
फिर बिन मूलभूत संशाधन उपलब्ध कराए, किस आधार पर एक शिक्षक से यह उम्मीद की जा सकती है कि अपने वेतन का एक हिस्सा इनके मनमाने फरमानों को पूरा करने में व्यय करे।
शिक्षक पर इन अधिकारियों की नज़रे इनायत का आलम क्या कहिये कि, अर्धवार्षिक परीक्षा शुरू है, अख़बारों में खातों में धन SMC खातों में भेजने की खबरें छप रहीं, पर कितने दिनों में यह असल में खातों में पहुँचेगा( सम्भव है तब तक वार्षिक का समय हो जाए) कोई बतानेवाला भी नही होता, किन्तु फिर भी परीक्षा व ऐसे ही सैकड़ो अन्य काम करवाने होते अध्यापकों को ।
और अध्यापक अपना खुद के वेतन से यह सभी काम पहले सम्पन्न करता, महीनों बाद उसका बजट खाते में आता है। कहीँ कहीँ बिन बजट के mdm तक बनवाता है बेसिक शिक्षक।
प्रदेश के सैकड़ो विभाग के लाखों कर्मचारियों में, एक मात्र शिक्षक से ही उम्मीद की जाती है कि वह -विद्यालय समय से आधे घण्टा पहले पहुँचे और आधा घण्टा बाद में आये, रविवार को पल्स पोलियो से बचे तो, फल तो जरूर ही खरीद रख ले , लेकिन पोस्टिंग जब होगी तो रोस्टर या रोकड़ से होगी।
काउन्सिलिंग और म्यूचुअल ट्रान्सफर की शिक्षक को जरूरत नहीं। जिससे कम से कम दूरी तय करके समय से स्कूल पहुँच सके।
इससे यह सिद्ध होता है कि आरोप लगाने से पहले अपनी असफलता पर विचार करें। जब शिक्षक प्रत्येक राष्ट्रीय कार्य अच्छे से और ईमानदारी से करता है। तो वह अपना मूल काम -विद्यालय और शिक्षण क्यों नहीं कर पाता। उसका शायद मूल कारण हमारी सत्ता और व्यवस्था का भेदभाव पूर्ण व्यवहार ही है। नहीं तो गाँव स्तर के जितने भी सरकारी काम हैं उनमें शिक्षकों द्वारा किये गये काम अन्य की तुलना में कहीं बेहतर और गुणवत्तापूर्ण हैं। जरूरत पर शिक्षको से दूसरे सभी विभागों के काम इसीलिए लिए जाते हैं। इस देश के समस्त वेतनभोगियों के बीच एक बेसिक शिक्षा का शिक्षक ही है जो अपने विभाग के सम्मान के लिए अपने वेतन का एक हिस्सा प्रतिमाह खर्च कर देता है और जिससे न्यूनतम धन और संसाधनों देकर अधिकतम कार्य की आशा की जाती है। अन्य कोई कर्मचारी एक भी दिन अवकाश में कार्यालय आता है तो उसे प्रतिकर मिलता है, जबकि अध्यापकों को सिर्फ दबाव से करिये वही काम। जब कोई काम शिक्षक करता है तो मानक चाहिए, जब वही काम स्वयं करें तो कोई मानक नहीं चाहिए। वह भी शिक्षक करें तो काम पहले , दाम काम होने के बाद में देकर अनेकों जाचों के माध्यम से आतंकित किया जाता है। यदि पन्द्रह बीस हजार के वार्षिक बजट और इतनी सघन निगरानी के बीच,चोरी कर के करोड़पति बना जा रहा है। तो वहाँ क्या हाल होगा, जहाँ लाखों, करोड़ों, और अरबों रुपये का बजट आता है वह भी बिना किसी निगरानी के !!! आप स्वयं सोच सकते हैं।
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