भारत को वैश्विक आर्थिक महाशक्ति बना देने वालों की नींद अब
टूटनी चाहिए। जिस युवा जनसंख्या के बूते इक्कीसवीं शताब्दी को भारतीय
युवाओं की शताब्दी होने का दंभ भरा जा रहा है, उसे उत्तर-प्रदेश में खड़ी
शिक्षित बेरोजगारों की फौज ने आईना दिखा दिया है।
जहां विधानसभा सचिवालय में भृत्य के महज 368 पदों के लिए 23 लाख आवेदन प्राप्त हुए हैं। मसलन एक पद के विपरीत 6000 अर्जियां। बेरोजगारी का यह सच शिक्षा के क्षरण की ऐसी बदरंग तस्वीर है, जो बड़े खतरे का संकेत दे रही है।
इस सच्चाई को यदि नजरअंदाज किया गया तो अराजकता के हालात बनने
में देर नहीं लगेगी? अलबत्ता समय रहते मेक इन इंडिया की दिशा को लघु व
कुटीर उद्योगों और स्किल इंडिया को ज्ञान परंपरा की ओर मोड़ने की जरूरत है।
किसी भी विकासशील देश के लिए यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि उसकी युवा
पीढ़ी उच्च शिक्षित होने के बावजूद आत्मनिर्भरता के लिए चपरासी जैसी सबसे
छोटी नौकरी के लिए लालायित है। 21 करोड़ की आबादी वाले उत्तर प्रदेश में
चपरासी के लिए जो 23 लाख अर्जियां आई हैं, उनमें चाही गई न्यूनतम शैक्षिक
योग्यता पांचवीं पास तो केवल 53,426 उम्मीदवार हैं, किंतु छठवीं से बारहवीं
पास उम्मीदवारों की संख्या 20 लाख के ऊपर हैं। इनमें 7.5 लाख इंटर पास
हैं। इनके अलावा 1.52 लाख उच्च शिक्षित हैं। इनमें विज्ञान, वाणिज्य और कला
से उत्तीर्ण स्नातक और स्नातकोत्तर तो हैं ही, इंजीनियर और एमबीए भी हैं।
साथ ही 255 अभ्यर्थी पीएचडी हैं। शिक्षा की यह सर्वोच्च उपाधि इस बात का
प्रतीक मानी जाती है कि जिस विषय में छात्र ने पीएचडी प्राप्त की है, उस
विषय का वह विशेषज्ञ है। यह उपाधि महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों में
भर्ती किए जाने वाले सहायक प्राध्यापकों की वांछित योग्यता में जरूरी है।
जाहिर है, सरकार के समक्ष यह संकट खड़ा हो गया है कि वह
आवेदनों की छंटनी का आधार क्या बनाए और परीक्षा की ऐसी कौनसी तरकीब अपनाए
कि प्रक्रिया पूरी हो जाए? क्योंकि जिस बड़ी संख्या में आर्जियां आई हैं,
उनके साक्षात्कार के लिए 10 सदस्यीय दस समितियां बना भी दी जाएं तो परीक्षा
निपटाने में चार साल से भी ज्यादा का समय बीत जाएगा।सरकारी नौकरियों में
आर्थिक सुरक्षा की वजह से लगातार युवाओं का आकर्षण बढ़ रहा है। दुनिया में
आई आर्थिक मंदी के चलते भी इंजीनियर और एमबीए डिग्रीधारियों को विश्वसनीय
रोजगार नहीं मिल रहे हैं। भारत में औद्योगिक और प्रौद्योगिक क्षेत्रों में
लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश में कुछ दिन
पहले लेखपाल के 1400 पदों के सापेक्ष 27 लाख युवाओं ने आवेदन किए थे।
छत्तीसगढ़ में चपरासी के 30 पदों के लिए 75,000 अर्जियां आई थीं। केरल में
क्लर्क के 450 पदों के लिए 2.5 लाख आवेदन आए। कोटा में सफाईकर्मियों की
भर्ती के लिए डिग्रीधारियों की फौज कतार में खड़ी हो गई थी।
मध्य प्रदेश में भृत्य पदों की भरती के लिए आयोजित परीक्षा
में भी उच्च शिक्षितों ने भागीदारी की थी। केंद्र सरकार की नौकरियों में भी
कमोबेश यही स्थिति बन गई है। कर्मचारी चयन आयोग की 2013-14 की 6 परीक्षाओं
में भागीदारी करने वाले अभ्यर्थियों की संख्या एक करोड़ से ज्यादा थी। निजी
कंपनियों में अनिश्चितता और कम पैकेज के चलते, सरकारी नौकरी की चाहत
युवाओं में इस हद तक बढ़ गई है कि पिछले पांच साल में अभ्यर्थियों की
संख्या में 10 गुना वृद्धि हुई है। वर्ष 2008-09 में यह परीक्षा 10.27 लाख
आवेदकों ने दी। वहीं 2011-12 में यह संख्या बढ़कर 88.65 लाख हो गई और
2012-13 में यह आंकड़ा एक करोड़ की संख्या को पार कर गया। बावजूद एनएसएसओ की
रिपोर्ट बताती है कि अकेले उत्तर प्रदेश में 1 करोड़ 32 लाख बेरोजगारों की
फौज आजीविका के लिए मुंहबाए खड़ी है। जाहिर है, हमारी शिक्षा पद्धति में खोट
है और वह महज डिग्रीधारी निरक्षरों की संख्या बढ़ाने का काम कर रही है।
यदि
वाकई शिक्षा गुणवत्तापूर्ण व रोजगारमूलक होती तो उच्च शिक्षित बेरोजगार एक
चौथे दर्जे की नौकरी के लिए आवेदन नहीं करते। ऐसे हालातों से बचने के लिए
जरूरत है कि हम शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन कर इसे रोजगारमूलक और
लोक-कल्याणकारी बनाएं। बेरोजगारों की इस फौज ने दो बातें एक साथ सुनिश्चित
की हैं। एक तो हमारे शिक्षण संस्थान समर्थ युवा पैदा करने की बजाय ऐसे
बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रहे हैं, जो योग्यता के अनुरूप नौकरी की लालसा
पूरी नहीं होने की स्थिति में कोई भी नौकरी करने को तत्पर हैं। दूसरे,
सरकारी स्तर की छोटी नौकरियां तत्काल भले ही पद व वेतनमान की दृष्टि से
महत्ववपूर्ण न हों, लेकिन उनके दीर्घकालिक लाभ हैं। उत्तरोत्तर वेतनमान व
सुविधाओं में इजाफा होने के साथ आजीवन आर्थिक सुरक्षा है। स्वायत्त निकायों
में तो चपरासियों को भी अधिकारी बनने के अवसर सुलभ हैं। इनमें कामचोर और
झगड़ालू प्रवृत्ति के कर्मचारियों को भी सम्मानापूर्वक तनख्वाह मिलती रहती
है। यदि आप में थोड़े बहुत नेतृत्व के गुण हैं तो कर्मचारी संगठनों के
मार्फत नेतागिरी करने के बेहतर वैधानिक अधिकार भी उपलब्ध हैं।
रिश्वतखोरी
से जुड़ा पद है तो आपकी आमदानी में दूज के चांद की तरह श्रीवृद्धि होती
रहती है। इसीलिए उज्जैन नगर निगम के एक चपरासी के पास से लोकायुक्त पुलिस
ने करोड़ों की आय से अधिक संपत्ति बरामद की है। यन्यायपालिका से भी भ्रष्ट
सरकारी कर्मचारियों को संरक्षण की उम्मीद ज्यादा रहती है। यही वजह है कि
बर्खास्त कर्मचारियों की सेवाएं 20-25 साल बाद भी समस्त स्वत्वों के साथ
बहाल कर दी जाती हैं। गोया, आईटी क्षेत्र में गिरावट के बाद तकनीक में दक्ष
युवा भी चपरासी, क्लर्की और बैंककर्मी बनने को छटपटा रहे हैं।छठा वेतनमान
लागू होने के बाद सरकारी नौकरियों के प्रति ज्यादा आकर्षण बढ़ा है। इसके
चलते साधारण शिक्षक को 40-45 हजार और महाविद्यालय के प्राध्यापक को एक-सवा
लाख वेतन मिल रहा है।
सेवानिवृत्त
प्राध्यापक को बैठे-ठाले 60-70 हजार रुपए तक पेंशन मिल रही है। ऐसी पौ-बारह
सरकारी नौकरियों में ही संभव हैं। यही स्थिति राजस्व, पुलिस और केंद्रीय
कर्मचारियों की है। हमारी रेल व्यवस्था भी छठा वेतनमान लागू होने के बाद
आर्थिक रूप से बद्हाल हुई है। इस वेतनमान के चलते रेलवे में जरूरत के
अनुपात में कर्मचारियों की भर्ती नहीं हो पा रही है। चुनांचे वेतनमान लागू
होने के पहले रेलवे में 18 लाख कर्मचारी थे, जिनकी अब संख्या घटकर 13.5 लाख
रह गई है। यदि इन कर्मचारियों को सातवां वेतनमान और दे दिया जाता है तो
सरकारी क्षेत्र में नौकरियों के हालात और बद्तर होंगे। यहां तक की अराजकता
की स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है। इससे सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक
विसंगतियां बढ़ेंगी। इसलिए अच्छा है, सरकार सातवें वेतनमान की सौगात देने
से पहले इसके समाज पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की पड़ताल करे?
दरअसल,
डिग्रीधारी निरक्षरता की श्रेणी में इसलिए आ गए हैं, क्योंकि उनमें अपनी
ज्ञान परंपरा से कट जाने के कारण पारंपरिक रोजगार से जुड़ने का साहस नहीं रह
गया है। यही वजह है कि आज 40 प्रतिशत से भी ज्यादा खेती-किसानी से जुड़े
लोग वैकल्पिक रोजगार मिलने की स्थिति में खेती छोड़ने को तैयार हैं। किसानी
और लघु-कुटीर उद्योग से जुड़ा युवक जब इस परिवेश से कटकर डिग्रीधारी हो जाता
है तो अपनी आंचलिक भाषा का ज्ञान और स्थानीय रोजगार की समझ से भी अनभिज्ञ
होता चला जाता है। लिहाजा नौकरी नहीं मिलने पर पारंपरिक रोजगार और ग्रामीण
समाज की संरचना के प्रति भी उदासीन हो जाता है। ये हालात युवाओं को कुंठित,
एकांगी और बेगानों की तरह निठल्ले बना रहे हैं।
अक्सर
कहा जाता है कि शिक्षा व्यक्तित्व के विकास के साथ रोजगार का मार्ग खोलती
है। लेकिन चपरासी की नौकरी के परिप्रेक्ष्य में डिग्रीधारी बेरोजगारों की
जो तस्वीर पेश हुई है, उसने समस्त शिक्षा प्रणाली को कठघरे में ला खड़ा किया
है। अच्छी और सुरक्षित नौकरी के जरिए खुशहाल जीवन का सपना देखने वाले युवा
और उनके अभिभावकों की पीड़ा का अनुभव वाकई बेरोजगारों की इस दिनों दिन लंबी
होती कतार के प्रति यह संदेह पैदा करती है कि उनके बेहतर भविष्य का स्वप्न
कहीं चकनाचूर न हो जाएं? भारत की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व भौगोलिक
परिस्थितियों और विशाल जनसमुदाय की मानसिकता के आधार पर यदि सार्थक शिक्षा
के बारे में किसी ने सोचा था तो वे महात्मा गांधी थे। उनका कहना था-
‘बुद्धि की सच्ची शिक्षा हाथ, पैर, कान, नाक आदि शरीर के अंगों के ठीक
अभ्यास और शिक्षण से ही हो सकती है। अर्थात इंद्रियों के बुद्धिपरक उपयोग
से बालक की बुद्धि के विकास का उत्तम और लघुत्तम मार्ग मिलता है। परंतु जब
मस्तिष्क और शरीर का विकास साथ-साथ न हो और उसी प्रमाण में आत्मा की जगृति न
होती रहे तो केवल बुद्धि के एकांगी विकास से कुछ लाभ नहीं होगा।’ आज हम
बुद्धि के इसी एकांगी विकास की गिरफ्त में आ गए हैं।
गोया,
सरकारी नौकरी पाने को आतुर इस सैलाब को रोकने के लिए जरूरी है कि इन
नौकरियों के वेतनमान तो कम किए ही जाएं, अकर्मण्य सेवकों की नौकरी की
गारंटी भी खत्म की जाए। अन्यथा ये हालात उत्पादक किसान और नवोन्वेषी
उद्यमियों को उदासीन बनाने का काम करेंगे। साथ ही शिक्षा के महत्व को श्रम
और उत्पाद से जोड़ा जाए। ऐसा हम युवाओं को खेती-किसानी और लघु-कुटीर
उद्योगों जैसे उत्पाद की ज्ञान परंपराओं से जोड़कर कर सकते हैं। यह इसलिए
जरूरी है, क्योंकि एक विश्वसनीय अध्ययन के मुताबिक सूचना तकनीक के क्षेत्र
में तीस लाख लोगों को रोजगार मिला है, वहीं हथकरघा से दो करोड़ से भी ज्यादा
लोग रोजी-रोटी जुटा रहे हैं। इस एक उदाहरण से पता चलता है कि लघु उद्योग
आजीविका के कितने बड़े साधन बने हुए हैं।
तय
है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मेक इन इंडिया और स्किल इंडिया स्वप्नों
का अर्थ व्यापक ग्रामीण विकास में ही अंतर्निहित है। क्योंकि मौजूदा
शिक्षा रोजगार के विविध वैकल्पिक आधार उपलब्ध कराने में अक्षम साबित हो रही
है। यह शिक्षा समाज को युगीन परिस्थितियों के अनुरूप ढालकर सामाजिक
परिवर्तनों की वाहक नहीं बन पा रही है। इस शिक्षा व्यवस्था की अपेक्षा रहती
है कि वह ऐसे सरकारी संस्थागत ढांचे खड़े करती चली जाए, जिसके राष्ट्र और
समाज के लिए हित क्या हैं, यह तो स्पष्ट न हो, लेकिन नौकरी और ऊंचे वेतनमान
की गारंटी हो? बहरहाल हमारे नीति नियंताओं को यह सच स्वीकरना चाहिए, जो
उत्तर प्रदेश में आई उच्च शिक्षित बेरोजगारों की बदरंग तस्वीर से प्रकट हुआ
है। (लेखक प्रमाद भार्गव वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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