आज भी याची बिना नौकरी के , सब नियमो के विरूद्ध

दोस्तों अब स्थिति बहुत ही भयानक हो गयी है। जिन लोगो के भरोसे शिक्षक बनने की लड़ाई हम लोग लड़ रहे थे अब वो योद्धा अपना मतलब निकलते ही मैदान छोड़ कर भाग गए है। ये तो होना ही था जरूरत से ज्यादा किसी पर भरोषा करना हमेशा ही नुकसानदायी होता है।
आप के आगे कुछ बिन्दुओ को रख रहा हूँ जिसको आप अपने विवेक से सोचे समझे की क्या मेरा कहना गलत है।
1. जिसके ज्यादा नंबर है वो अभी भी नौकरी नहीं पाया है और जिसके कम नंबर है वो नौकरी कर रहा है। क्या ये किसी भी एंगल से सही है।

2. जो भरी ठंडी में गर्मी में बारिश में बिना खाये पिए बिना नहाये धोये पूरा यूपी भ्रमण करके कॉउंसलिंग करवाया उसको नौकरी नही मिली बल्कि उनको नौकरी मिली जो अपने घरो में खूब मजे से ब्रेकफास्ट, लंच और डिनर करके डकार मारते रहे। क्या ये न्यायोचित्त है।
3. जो याची इस उम्मीद से याची बना की अब उसे जल्द ही नौकरी नसीब होगी किन्तु नियमो के विरूद्ध सब कुछ हुआ और आज भी याची बिना नौकरी के है।
क्या ये सही है।
4. जो नेता युद्ध की कमान संभाले हुए थे आज वो अब ये कह कर मैदान छोड़ गए की अब हम कुछ नही कर सकते। कहते थे की जब तक सम्पूर्ण समायोजन नही होगा हम आपके साथ ही लड़ेंगे। क्या ये रवैया सही है उनका की अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता।
5. हम किसी को भी दोषी नही कह रहे है बल्कि न्यायलय के न्याय को दोषी ठहरा रहे है की अन्धो बहरो की भाति न्याय दिया जा रहा है। क्या ये सही है।

6. अब हाथ पर हाथ धर कर नही बैठना है हमे क्योंकि अन्याय के खिलाफ आवाज अगर अब नही उठायी तो जिंदगी भर के लिए पछताना पड़ेगा। अब हमें न्यायालय के खिलाफ हल्ला बोलना ही होगा और उसको ये अहसास दिलाना होगा की उसके अन्धो बहरो की भाँती दिए हुए फैसलो से कितनो के घर उजड़ जाते है।
क्या ये मेरा सोचना गलत है।
दोस्तों अब मैंने ये सोच लिया है की अगर न्यायलय ने 5 अक्टूबर को कोई भी गलत फैसला दिया तो अब मैं खुद अकेला ही न्याय पाने के लिए अपनी जान पर खेल जाऊँगा। पर गलत फैसले को कभी भी कुबूल नही करूँगा।सही फैसला करो वर्ना गलत भी मत करो। 113 वाले को नौकरी नही तो 103 वाला कैसे नौकरी कर रहा है। नौकरी दो तो दोनों को दो वर्ना 103 वाले को भी बहार करो।
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अब हल्ला बोलने का समय आ गया है।
क्योंकि
" होगा तो सबका वर्ना किसी का भी नही"
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