संजय की नियुक्ति अवैध, अफसर कटघरे में

 इलाहाबाद : आमतौर पर न्यायालय गवाह, सुबूत और अधिवक्ता की दलीलों के आधार पर फैसला सुनाता है, लेकिन उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग के पूर्व सचिव को दो पदों से हटाने का आदेश न्यायिक जांच से मिले नतीजे के जैसा है।
जिसमें प्रशासनिक अफसरों ने पूर्व सचिव के पक्ष में हलफनामे तक लगाए, लेकिन कोर्ट को शिकायतकर्ताओं के शपथपत्र अधिक विश्वसनीय लगे। प्रकरण की गहन जांच में सब कुछ आईने की तरह साफ हो गया। इसीलिए कोर्ट ने सिर्फ पूर्व सचिव की नियुक्ति ही अवैध नहीं की है, बल्कि अफसरों की कार्यशैली पर तल्ख टिप्पणी करके उन्हें कटघरे में खड़ा किया है।
उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग के पूर्व सचिव संजय सिंह के प्रकरण की हाईकोर्ट में एक वर्ष से अधिक सुनवाई चली। न्यायमूर्ति अरुण टंडन की कोर्ट ने इस संबंध में जांच पर जांच करवाई। पूर्व सचिव के परास्नातक प्रमाणपत्र की जांच का आदेश दिया गया। उस समय शासन में विशेष सचिव और मौजूदा समय में जिलाधिकारी सुलतानपुर हरेंद्र वीर सिंह ने कोर्ट को अवगत कराया कि फर्जी प्रमाणपत्र मामले में पूर्व सचिव का दोष नहीं है,
बल्कि छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय कानपुर ने ही उन्हें गलत प्रमाणपत्र सौंप दिया था। 1कोर्ट को इस दावे पर संदेह लगा इसलिए फिर से इसकी जांच का आदेश हुआ। प्रदेश के आबकारी आयुक्त और इलाहाबाद के जिलाधिकारी रह चुके भवनाथ को जांच मिली। उन्होंने भी पूर्व सचिव के पक्ष में ही जांच रिपोर्ट सौंपी। इस पर प्रदेश के मुख्य सचिव का हलफनामा मांगा गया। मुख्य सचिव ने भी दोनों जांचों को सही बताते हुए पूर्व सचिव के पक्ष में खड़े हुए। इसके बाद फिर कोर्ट ने न्यायिक जांच की माफिक रिकॉर्ड खंगाले और हाईकोर्ट को मिले अधिकार का प्रयोग करते हुए मुकदमे के अंतिम नतीजे तक पहुंचे। अधिवक्ता आलोक मिश्र का कहना है कि न्यायालय का कार्य न्याय करना ही है, लेकिन यह केस अपने आप में किसी नजीर से कम नहीं है, जिसमें सरकारी मशीनरी लगातार एक ही रट लगाए रही, फिर भी कोर्ट उस मुकाम तक पहुंचा, जो बातें छिपाई जा रही थी।

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