प्रिय मुख्य न्यायाधीश
बड़ी पीड़ा और चिंता के साथ हमने सोचा कि यह पत्र आपके नाम लिखा जाए, ताकि
इस अदालत से जारी किए गए कुछ आदेशों को प्रकाश में लाया जा सके। इससे न्याय
देने की कार्यप्रणाली और उच्च न्यायालयों की स्वतंत्रता के साथ-साथ भारत
के सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश कार्यालय का प्रशासनिक कामकाज
प्रतिकूल रूप से प्रभावित हुआ है।
कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास में हाई कोर्ट की स्थापना के बाद न्यायिक
प्रशासन में कुछ परंपराएं और मान्यताएं अच्छी तरह स्थापित हुई हैं। इन हाई
कोर्ट के उद्घाटित होने के लगभग सौ साल बाद सुप्रीम कोर्ट अस्तित्व में आया
और उसने इन परंपराओं को स्वीकार किया। हालांकि, ये परंपराएं पहले से न्याय
तंत्र में हैं। इन्हीं स्थापित सिद्धांतों में एक यह भी है कि रोस्टर का
फैसला करने का विशेषाधिकार चीफ जस्टिस के पास है। ऐसा इसलिए ताकि समय पर
कानूनी कार्य निपटाए जा सकें। इस क्रम में इसकी भी उचित व्यवस्था करनी होती
है है कि कौन जज या कौन सी पीठ किस मामले को देखेगी। यह परंपरा इसलिए बनाई
गई है ताकि अदालत का कामकाज अनुशासित और प्रभावी तरीके से हो, लेकिन यह
मुख्य न्यायाधीश को अपने सहयोगियों पर ज्यादा अधिकार नहीं देता, ना कानूनी,
ना व्यावहारिक। 1इस देश के न्याय तंत्र में यह बात भी बहुत अच्छी तरह से
स्थापित है कि चीफजस्टिस अपनी बराबरी वालों में पहले हैं, न कम हैं, न
ज्यादा। रोस्टर तय करने के मामले में स्थापित और मान्य परंपराएं हैं कि चीफ
जस्टिस किसी मामले की जरूरत के हिसाब से पीठ का निर्धारण करेंगे। इस
सिद्धांत के बाद अगला तर्कसंगत कदम यह होगा कि इस अदालत समेत अलग-अलग
न्यायिक इकाइयां ऐसे किसी मामले से खुद नहीं निपट सकतीं, जिनकी सुनवाई किसी
उपयुक्त बेंच से होनी चाहिए।1उपरोक्त दोनों नियमों का उल्लंघन करने से गलत
और अवांछित नतीजे सामने आएंगे। इससे न्यायपालिका की अखंडता को लेकर देश के
लोगों के मन में संदेह पैदा होगा। साथ ही नियमों से हटने से जो अराजकता
पैदा होगी, उसकी कल्पना की जा सकती है। हमें यह बताते हुए निराशा हो रही है
कि बीते कुछ समय से जिन दो नियमों की बात हो रही है, उनका पूरी तरह पालन
नहीं किया गया है। ऐसे कई मामले हैं जिनमें इस अदालत के चीफ जस्टिस ने देश
और संस्थान पर असर डालने वाले मुकदमे अपनी पसंद की बेंच को सौंपे। इनके
पीछे कोई तर्क नहीं दिखता है। इनकी हर हाल में रक्षा की जानी चाहिए।1हम
इसका ब्योरा नहीं दे रहे हैं क्योंकि ऐसा करने से सुप्रीम कोर्ट को और
शर्मिदगी उठानी होगी। यह ध्यान रखा जाए कि नियमों के हटने के कारण पहले ही
कुछ हद तक अदालत की छवि को नुकसान पहुंच चुका है। इस मामले को लेकर हम यह
उचित समझते हैं कि आपका ध्यान 27 अक्टूबर 2017 के आरपी लूथरा बनाम भारतीय
गणराज्य मामले की ओर लाया जाए। इसमें कहा गया था कि व्यापक जनहित को देखते
हुए मेमोरैंडम ऑफ प्रॉसिजर को अंतिम रूप देने में और देर नहीं करनी चाहिए।
जब मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन एंड
एएनआर बनाम भारतीय गणराज्य का मामला इस अदालत की एक संवैधानिक पीठ का
हिस्सा था, तो यह समझना मुश्किल है कि कोई और पीठ ये मामला क्यों देखेगी?
इसके अलावा संवैधानिक पीठ के फैसले के बाद मुझ समेत पांच न्यायाधीशों के
कोलेजियम ने विस्तृत चर्चा की थी और मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर को अंतिम रूप
देकर मार्च 2017 में चीफ जस्टिस ने उसे भारत सरकार के पास भेज दिया था।
भारत सरकार ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। इसे देखते हुए यह माना जाना
चाहिए कि भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन मामले
में इस अदालत के फैसले के आधार पर मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर को स्वीकार कर
लिया है। इसलिए किसी भी मुकाम पर पीठ को मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर को अंतिम
रूप देने को लेकर कोई व्यवस्था नहीं देनी थी या फिर इस मामले को
अनिश्चितकालीन अवधि के लिए नहीं टाला जा सकता। चार जुलाई, 2017 को इस अदालत
के सात जजों की पीठ ने माननीय जस्टिस सीएस कर्णन को लेकर फैसला किया था।
उस फैसले में (सदंर्भ आरपी लूथरा मामला) हम दोनों ने व्यवस्था दी थी कि
न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर दोबारा विचार करने की जरूरत है।
साथ ही महाभियोग से अलग उपायों का तंत्र भी बनाया जाना चाहिए। मेमोरेंडम ऑफ
प्रॉसिजर को लेकर सातों जजों की ओर से कोई व्यवस्था नहीं दी गई थी।
मेमोरेंडम ऑफ प्रॉसिजर को लेकर किसी भी मुद्दे पर मुख्य न्यायाधीशों के
सम्मेलन और फुल बेंच में विचार किया जाना चाहिए। यह मामला काफी अहम है। अगर
न्यायपालिका को इस पर विचार करना है तो सिर्फ संवैधानिक पीठ को यह
जिम्मेदारी मिलनी चाहिए। उक्त घटनाक्रम को गंभीरता से लिया जाना चाहिए।
भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश का कर्तव्य है कि इस स्थिति को सुलझाएं और
कोलेजियम के दूसरे सदस्यों के साथ और बाद में जरूरत पड़ने पर इस अदालत के
माननीय जजों के साथ विचार-विमर्श करने के बाद सुधारवादी कदम उठाएं। एक बार
आपकी ओर से आरपी लूथरा बनाम भारतीय गणराज्य से जुड़े 27 अक्टूबर, 2017 के
आदेश के मामले को निपटा लिया जाए। फिर उसके बाद अगर जरूरत पड़ी तो हम आपको
इस अदालत की ओर से पास दूसरे ऐसे न्यायिक आदेशों के बारे में बताएंगे,
जिनसे इसी तरह निपटा जाना चाहिए।
धन्यवाद
-जे चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन बी लोकुर, कुरियन जोसेफ।
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