शिक्षामित्रों के समायोजन के क़ानूनी पहलू : समायोजन बनाम शिक्षामित्र

समायोजन का अर्थ है विलय अथवा समागम। तात्पर्य ये कि समायोजन किसी सेवा का केन्द्रीयकरण कहलाता है। विधिक रूप से देखा जाये तो वर्ष 1991 में समायोजन हेतु एक अधिनियम उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा बनाया गया। इस अधिनियम में वे पद व् सेवाएं निश्चित की गई जिन का समायोजन या केन्द्रीयकरण या राजकीयकरण करना था।
इस अधिनियम में ये भी तै किया गया की राज्य इस के लिए मतलब समायोजन के लिए कोई भी नीति निर्धारित कर सकती है। कोई भी तरीका अपना सकती है।

●अभी 2015 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने अपने फैसले में इसी पर मुहर लगाते हुए लिखा:-

By policy of regularisation, it was intended to give the benefit only from the date of appointment. The Court can not

read anything into the policy decision which is plain and unambiguous.

निसंदेह शिक्षामित्रों के समायोजन हुआ है। ये एक प्रमाणिक तथ्य है।



✍केंद्र सरकार के एमएचआरडी द्वारा 2010 से 2015 तक के प्रमाणिक दस्तावेज़ों का अध्ययन करने के बाद हम शिक्षामित्रों के समायोजन के सम्बन्ध में ये तथ्य पाते हैं:-

# वर्ष 2010,11,12,13 तक के सभी तरह के दस्तावेजों में शिक्षामित्रों के नियमित करने की बात की गई है।

#2014 में जारी दस्तावेज़ में समायोजित कर नियमित करने का उल्लेख मिलता है।

✍यहाँ ये तथ्य भी उल्लेखनीय है कि हाई कोर्ट के फैसले में सीजे ने भी absorption into regular service को ही रद्द किया था।

जैसा कि हम कल की पोस्ट में भी स्पष्ट कर चुके है।

●भारत सरकार के सभी सम्बंधित दस्तावेज़ों में मात्र regularize शब्द का ही उल्लेख किया गया है और शिक्षामित्रों की जगह untrained teacher शब्द का।
इसी क्रम में जब हम कहते हैं की नियमित किया जाये तो

इस का सीधा अर्थ है कि हम अस्थाई शिक्षक हैं और नियमित अर्थात स्थाई शिक्षक होना चाहते हैं।

चूँकि हाई कोर्ट में चले 410 मुकद्दमों में से किसी में भी शिक्षमित्र पद सिविल पोस्ट नहीं माना गया ऐसे में

जब शिक्षामित्र कोई सिविल पोस्ट ही नहीं है तो कैसे नियमित हो सकते हैं।

इसी लिए केंद्र और राज्य को शिक्षामित्रों के लिए अप्रशिक्षित शिक्षक शब्द प्रयुक्त करना पड़ा

✍चूँकि समायोजन एक शासन की नीति होती है या कहिये नियमित करने के लिए विलय।

इसे शासन कैसे करता है क्या प्रक्रिया अपनाता है इसमें कोर्ट का कोई दखल नहीं ये बात हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न फैसलों से साबित है।

The Court can not

read anything into the policy decision which is plain and

unambiguous.

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