ये वक्त शिक्षण संस्थानों को दुहने का है. तमाम नेताओं के भांति-भांति के स्कूल-कॉलेज खुले हैं. जो जाहिर सी बात है कि धर्मार्थ नहीं हैं. दो दिन में मैंने शिक्षा से जुड़े दो विपरीत छोर देख लिए हैं. एक तरफ मोहम्मद अली जौहर यूनिवर्सिटी है, जिसके लाइफटाइम चांसलर सपा नेता आजम खान हैं.
स्कूल में पूरी साफ-सफाई दिखती है. बहुत से प्राइमरी स्कूल में टॉयलेट तक नहीं बने होते. यहां लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग बने हैं. वो भी पूरे साफ-सुथरे हैं. ये बिना बच्चों के सहयोग के मुमकिन नहीं हो सकता. छोटे बच्चों के पानी पीने के लिए नल की ऊंचाई कम रखी गई है. बड़े बच्चों के लिए ऊंचाई ज्यादा रखी गई है.
स्कूल में आने वाला चावल
सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील दिया जाता है, जिसमें लोग MDM कहते हैं. इसमें राशन कोटेदार देता है PDS वाला. ये अलग से बताने की जरूरत नहीं कि राशन की क्वॉलिटी बहुत खराब होती है. कपिल मलिक उस चावल के बदले अपने पैसों से 35 रुपए किलो चावल खरीदकर बच्चों को खिलाते हैं. स्कूल में बच्चों के बनने वाले खाने में वही ब्रांडेड मसाले इस्तेमाल होते हैं, जो उनके घर पर इस्तेमाल होता है.
पूरे स्कूल में CCTV लगा हुआ है. ये वो वाला CCTV नहीं है, जिसमें बिना आवाज की ऐसी धुंधली तस्वीर दिखती है कि पता न चले कौन है. प्रिंसिपल रूम में लगे टीवी पर हर CCTV कैमरे का वीडियो क्लियर दिखता है. और हर एक क्लास में अलग-अलग या सबमें एक साथ कुछ अनाउंस भी किया जा सकता है. दूसरी तरफ से जो बोला जाएगा, वो भी प्रिंसिपल रूम में सुना जा सकता है.
जब मुझे इस स्कूल के बारे में पता चला था और मैं यहां आ रहा था, तब दो बातें सोच रहा था. एक तो ये कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जो फोटो या इक्का-दुक्का खबरें देखी हैं, वो इंतजाम करके खिंचाया, छपाया गया हो. दूसरी बात ये कि मान लो ऐसा नहीं है, यानी कि दिखने वाला इंतजाम परमानेंट है, लेकिन केवल रंग-रोगन से ये नहीं पता चलता कि पढ़ाई कैसी हो रही है, उसमें भी कुछ सुधार है या नहीं.
यहां पहुंचने पर दोनों बातें साफ हो जाती हैं. मैं बिना पहले से बताए यहां पहुंचा था, तो पहले से कुछ अलग इंतजाम करने का सवाल ही नहीं. दूसरी बात पढ़ाई के सिस्टम की. क्लास 1 को बैगलेस बना दिया गया है यानी उन्हें बैग नहीं लादना है. सभी बच्चों की कॉपी रबरबैंड लगाकर स्कूल में ही रखी जाती हैं. बच्चों की पढ़ाई के लिए एजुकेशनल टॉय, मैग्नेटिक बोर्ड जैसी तमाम चीजें हैं.
स्कूल में महान लोगों की तस्वीरों के साथ उनके विचार लिखे हुए हैं. इसके साथ कई मोटू-पतलू, डोरेमॉन जैसे कई कार्टून कैरेक्टर्स भी बने हुए हैं. स्कूल में दीवार पर दो बोर्ड बने हैं, जिसमें उन बच्चों के नाम लिखे जाते हैं, जिनके नंबर सबसे ज्यादा रहे और जिनकी अटेंडेंस सबसे ज्यादा रही. कुछ बच्चों के स्वेटर पर स्माइली के बैज दिखते हैं. अगर किसी बच्चे की पिछले महीने 100% अटेंडेंस रही है, तो उसे लगाने के लिए एक बैज दिया जाता है. पिछले दो महीने 100% होने पर दो बैज और तीन महीने के लिए तीन बैज मिलते हैं. कोई बच्चा ऐसे ही छुट्टी नहीं ले सकता. अगर बच्चा किसी भी कारण से छुट्टी ले रहा है, तो उसके पैरेंट्स स्कूल आएंगे और ऐप्लिकेशन लिखकर छुट्टी मांगेंगे.
कपिल का तन, मन और धन तीनों इस स्कूल में लगे हैं. अब तक उनके करीब 10-15 लाख रुपए इस स्कूल पर खर्च हो चुके हैं. सरकार से स्कूल के रखरखाव के लिए सालाना 5000-6000 हजार रुपए मिलते हैं, जबकि इस स्कूल में हर महीने ही करीब इतना पैसा खर्च हो जाता है.
कपिल को मिलने वाली सैलरी का एक बड़ा हिस्सा स्कूल में खर्च हो जाता है. ये पूछने पर कि क्या परिवार इस पर नाराज नहीं होता, कपिल कहते हैं कि परिवार से उन्हें बहुत सपोर्ट मिलता है. परिवार का खर्चा निकालने के लिए उनका बिजनेस है. वो कहते हैं, मेरा अपना निजी खर्चा एक रुपए का भी नहीं है. अगर मेरी जेब में 100 रुपए पड़े हैं, तो वो 100 दिन तक भी वैसे ही पड़े रह सकते हैं.
मुझे लगा था कि उन्हें अधिकारियों का बहुत सहयोग मिलता होगा, लेकिन ऐसा नहीं है. पिछले सेशन में उनके स्कूल में क्लास 1 में 123 बच्चों ने एडमिशन लिया. इतने बच्चों को एक साथ पढ़ाना मुश्किल था. उन्होंने 4 सेक्शन में बांट दिया. लेकिन बच्चों को बिठाने के लिए कमरे कहां से लाएं. जिले में कुछ नए कमरों का बजट आया था, लेकिन उसे दूसरे स्कूलों को दे दिया गया क्योंकि इस स्कूल से कमाई नहीं होनी थी. यहां तक कि मुख्यमंत्री से मिले उन्हें लाख-डेढ़ लाख रुपए के इनाम में भी अपना हिस्सा चाहने वालों की कमी नहीं है.
स्कूल में 4 टीचर हैं, लेकिन 2 टीचर अभी चुनाव की ट्रेनिंग में गई हैं. ये एक अलग मुश्किल है. चुनाव का काम हो, जनगणना का काम हो, कुछ भी हो, टीचर्स को उठाकर झोंक दो. जिस वक्त उन्हें बच्चों को पढ़ाना चाहिए, उस वक्त वो कहीं रजिस्टर में कुछ भर रहे होते हैं. कपिल सहयोगी टीचर्स को पूरा श्रेय देते हुए बताते हैं कि एक साल में 14 सीएल यानी कैज़ुअल लीव मिलती हैं और उनके टीचर्स ने एक भी छुट्टी नहीं ली. हर वक्त वो लोग ये सोचते रहते हैं कि बच्चों की बेहतरी के लिए और क्या किया जा सकता है.
कुछ वक्त पहले उन्होंने टीचर्स और बच्चों की बायोमेट्रिक अटेंडेंस शुरू की. जिसमें एक मशीन पर अंगूठा रखने से अटेंडेंस लगती है. इसकी ऊपर से तारीफ हुई, लेकिन अंदर ही अंदर कई स्कूलों के टीचर्स ने कहा कि अगर ये हर जगह लागू हो गया, तो उनके लिए आफत हो जाएगी. प्राइवेट स्कूल छोड़कर कई बच्चे उनके स्कूल में आए हैं. वो कहते हैं, यहां पर मैंने दो प्राइवेट स्कूलों में ताले लटकवा दिए हैं. इस साल एक और में लटक जाएगा. इस साल मैं यहां के बच्चों को साइकिल भी बांटूंगा.
जितना उनके हाथ में है, उससे कहीं बहुत ज्यादा वो बच्चों के लिए कर रहे हैं. लेकिन उनकी अपनी सीमा है. मैं जानना चाहता हूं कि बच्चों के यहां से निकलने के बाद के बारे में जानना चाहता हूं. वो बताते हैं कि उन्होंने और उनके सहयोगी टीचर्स ने अलग से वक्त निकालकर बच्चों की तैयारी करवाई और कई बच्चे नवोदय विद्यालय में चुने जाएंगे क्योंकि उनके पेपर बहुत अच्छे हुए हैं.
मैं पूछता हूं कि अगर आपका ट्रांसफर कहीं और हो जाए तो?
वो कहते हैं कि इसके लिए कोई ठोस आधार चाहिए. मैं कहता हूं कि मान लीजिए, यही कहा जाए कि आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं और वो इलाका बहुत पिछड़ा है, वहां जाकर काम करिए. इस पर वो फकीराना अंदाज में कहते हैं – तो वहां जाकर फिर से यही सब करेंगे. एक बार फिर मुझे कबीर याद आते हैं:
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स्कूल में पूरी साफ-सफाई दिखती है. बहुत से प्राइमरी स्कूल में टॉयलेट तक नहीं बने होते. यहां लड़कों और लड़कियों के लिए अलग-अलग बने हैं. वो भी पूरे साफ-सुथरे हैं. ये बिना बच्चों के सहयोग के मुमकिन नहीं हो सकता. छोटे बच्चों के पानी पीने के लिए नल की ऊंचाई कम रखी गई है. बड़े बच्चों के लिए ऊंचाई ज्यादा रखी गई है.
स्कूल में आने वाला चावल
सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील दिया जाता है, जिसमें लोग MDM कहते हैं. इसमें राशन कोटेदार देता है PDS वाला. ये अलग से बताने की जरूरत नहीं कि राशन की क्वॉलिटी बहुत खराब होती है. कपिल मलिक उस चावल के बदले अपने पैसों से 35 रुपए किलो चावल खरीदकर बच्चों को खिलाते हैं. स्कूल में बच्चों के बनने वाले खाने में वही ब्रांडेड मसाले इस्तेमाल होते हैं, जो उनके घर पर इस्तेमाल होता है.
पूरे स्कूल में CCTV लगा हुआ है. ये वो वाला CCTV नहीं है, जिसमें बिना आवाज की ऐसी धुंधली तस्वीर दिखती है कि पता न चले कौन है. प्रिंसिपल रूम में लगे टीवी पर हर CCTV कैमरे का वीडियो क्लियर दिखता है. और हर एक क्लास में अलग-अलग या सबमें एक साथ कुछ अनाउंस भी किया जा सकता है. दूसरी तरफ से जो बोला जाएगा, वो भी प्रिंसिपल रूम में सुना जा सकता है.
जब मुझे इस स्कूल के बारे में पता चला था और मैं यहां आ रहा था, तब दो बातें सोच रहा था. एक तो ये कि कहीं ऐसा तो नहीं कि जो फोटो या इक्का-दुक्का खबरें देखी हैं, वो इंतजाम करके खिंचाया, छपाया गया हो. दूसरी बात ये कि मान लो ऐसा नहीं है, यानी कि दिखने वाला इंतजाम परमानेंट है, लेकिन केवल रंग-रोगन से ये नहीं पता चलता कि पढ़ाई कैसी हो रही है, उसमें भी कुछ सुधार है या नहीं.
यहां पहुंचने पर दोनों बातें साफ हो जाती हैं. मैं बिना पहले से बताए यहां पहुंचा था, तो पहले से कुछ अलग इंतजाम करने का सवाल ही नहीं. दूसरी बात पढ़ाई के सिस्टम की. क्लास 1 को बैगलेस बना दिया गया है यानी उन्हें बैग नहीं लादना है. सभी बच्चों की कॉपी रबरबैंड लगाकर स्कूल में ही रखी जाती हैं. बच्चों की पढ़ाई के लिए एजुकेशनल टॉय, मैग्नेटिक बोर्ड जैसी तमाम चीजें हैं.
स्कूल में महान लोगों की तस्वीरों के साथ उनके विचार लिखे हुए हैं. इसके साथ कई मोटू-पतलू, डोरेमॉन जैसे कई कार्टून कैरेक्टर्स भी बने हुए हैं. स्कूल में दीवार पर दो बोर्ड बने हैं, जिसमें उन बच्चों के नाम लिखे जाते हैं, जिनके नंबर सबसे ज्यादा रहे और जिनकी अटेंडेंस सबसे ज्यादा रही. कुछ बच्चों के स्वेटर पर स्माइली के बैज दिखते हैं. अगर किसी बच्चे की पिछले महीने 100% अटेंडेंस रही है, तो उसे लगाने के लिए एक बैज दिया जाता है. पिछले दो महीने 100% होने पर दो बैज और तीन महीने के लिए तीन बैज मिलते हैं. कोई बच्चा ऐसे ही छुट्टी नहीं ले सकता. अगर बच्चा किसी भी कारण से छुट्टी ले रहा है, तो उसके पैरेंट्स स्कूल आएंगे और ऐप्लिकेशन लिखकर छुट्टी मांगेंगे.
कपिल का तन, मन और धन तीनों इस स्कूल में लगे हैं. अब तक उनके करीब 10-15 लाख रुपए इस स्कूल पर खर्च हो चुके हैं. सरकार से स्कूल के रखरखाव के लिए सालाना 5000-6000 हजार रुपए मिलते हैं, जबकि इस स्कूल में हर महीने ही करीब इतना पैसा खर्च हो जाता है.
कपिल को मिलने वाली सैलरी का एक बड़ा हिस्सा स्कूल में खर्च हो जाता है. ये पूछने पर कि क्या परिवार इस पर नाराज नहीं होता, कपिल कहते हैं कि परिवार से उन्हें बहुत सपोर्ट मिलता है. परिवार का खर्चा निकालने के लिए उनका बिजनेस है. वो कहते हैं, मेरा अपना निजी खर्चा एक रुपए का भी नहीं है. अगर मेरी जेब में 100 रुपए पड़े हैं, तो वो 100 दिन तक भी वैसे ही पड़े रह सकते हैं.
मुझे लगा था कि उन्हें अधिकारियों का बहुत सहयोग मिलता होगा, लेकिन ऐसा नहीं है. पिछले सेशन में उनके स्कूल में क्लास 1 में 123 बच्चों ने एडमिशन लिया. इतने बच्चों को एक साथ पढ़ाना मुश्किल था. उन्होंने 4 सेक्शन में बांट दिया. लेकिन बच्चों को बिठाने के लिए कमरे कहां से लाएं. जिले में कुछ नए कमरों का बजट आया था, लेकिन उसे दूसरे स्कूलों को दे दिया गया क्योंकि इस स्कूल से कमाई नहीं होनी थी. यहां तक कि मुख्यमंत्री से मिले उन्हें लाख-डेढ़ लाख रुपए के इनाम में भी अपना हिस्सा चाहने वालों की कमी नहीं है.
स्कूल में 4 टीचर हैं, लेकिन 2 टीचर अभी चुनाव की ट्रेनिंग में गई हैं. ये एक अलग मुश्किल है. चुनाव का काम हो, जनगणना का काम हो, कुछ भी हो, टीचर्स को उठाकर झोंक दो. जिस वक्त उन्हें बच्चों को पढ़ाना चाहिए, उस वक्त वो कहीं रजिस्टर में कुछ भर रहे होते हैं. कपिल सहयोगी टीचर्स को पूरा श्रेय देते हुए बताते हैं कि एक साल में 14 सीएल यानी कैज़ुअल लीव मिलती हैं और उनके टीचर्स ने एक भी छुट्टी नहीं ली. हर वक्त वो लोग ये सोचते रहते हैं कि बच्चों की बेहतरी के लिए और क्या किया जा सकता है.
कुछ वक्त पहले उन्होंने टीचर्स और बच्चों की बायोमेट्रिक अटेंडेंस शुरू की. जिसमें एक मशीन पर अंगूठा रखने से अटेंडेंस लगती है. इसकी ऊपर से तारीफ हुई, लेकिन अंदर ही अंदर कई स्कूलों के टीचर्स ने कहा कि अगर ये हर जगह लागू हो गया, तो उनके लिए आफत हो जाएगी. प्राइवेट स्कूल छोड़कर कई बच्चे उनके स्कूल में आए हैं. वो कहते हैं, यहां पर मैंने दो प्राइवेट स्कूलों में ताले लटकवा दिए हैं. इस साल एक और में लटक जाएगा. इस साल मैं यहां के बच्चों को साइकिल भी बांटूंगा.
जितना उनके हाथ में है, उससे कहीं बहुत ज्यादा वो बच्चों के लिए कर रहे हैं. लेकिन उनकी अपनी सीमा है. मैं जानना चाहता हूं कि बच्चों के यहां से निकलने के बाद के बारे में जानना चाहता हूं. वो बताते हैं कि उन्होंने और उनके सहयोगी टीचर्स ने अलग से वक्त निकालकर बच्चों की तैयारी करवाई और कई बच्चे नवोदय विद्यालय में चुने जाएंगे क्योंकि उनके पेपर बहुत अच्छे हुए हैं.
मैं पूछता हूं कि अगर आपका ट्रांसफर कहीं और हो जाए तो?
वो कहते हैं कि इसके लिए कोई ठोस आधार चाहिए. मैं कहता हूं कि मान लीजिए, यही कहा जाए कि आप बहुत अच्छा काम कर रहे हैं और वो इलाका बहुत पिछड़ा है, वहां जाकर काम करिए. इस पर वो फकीराना अंदाज में कहते हैं – तो वहां जाकर फिर से यही सब करेंगे. एक बार फिर मुझे कबीर याद आते हैं:
गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पांय
बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय
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