लखनऊ निजी स्कूलों की मनमानी पर अंकुश लगाने के लिए सरकार ने जब कदम बढ़ाए तो पहला सवाल यही उठा कि क्या अल्पसंख्यक संस्थानों पर भी नियमों की नकेल कसी जा सकेगी? सरकार ने इसका रास्ता नियमों के दायरे में ही निकाला है।
संविधान में उन्हें मिले अधिकारों से कोई छेड़छाड़ न करते हुए उनके लिए अब एक तय कर दी गई है। वह फैसले करने के लिए तो आजाद होंगे, लेकिन नियमों की अनदेखी की तलवार भी लटकती रहेगी।
इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि अल्पसंख्यक संस्थानों में ही सर्वाधिक मनमानी के मामले सामने आते हैं। वह चाहे फीस निर्धारण का हो या फिर प्रवेश का। उल्लेखनीय है कि अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को कई सारे विशेषाधिकार मिले हैं। सरकार की ओर से निर्धारित प्रवेश व आरक्षण नीति इन संस्थाओं पर लागू नहीं होती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी पीए ईनामदार बनाम महाराष्ट्र सरकार के वर्ष 2006 के मामले में जो निर्णय दिया है उसके अनुसार प्रवेश में आरक्षण नीति इनमें लागू नहीं की जा सकती है। साथ ही संविधान के अनुच्छेद (30) 1 के तहत अल्पसंख्यक संस्था के बच्चों के लिए फीस तथा अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम के दायरे से मुक्त रखा गया है।1विभागीय सूत्रों के अनुसार मसौदा तैयार करते समय इस तथ्य को भी ध्यान में रखा गया। इसीलिए उन पर कोई दबाव न बनाते हुए उन्हें एक सिद्धांत दिया गया। इसी के तहत स्कूलों की फीस वृद्धि को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जोड़ा गया है। जाहिर है कि यदि अब फीस वृद्धि के आधार भी स्पष्ट करने होंगे। इसके साथ ही ऐच्छिक फीस का निर्धारण किया गया। यानी कि बच्चा जिन सुविधाओं को स्कूल से नहीं हासिल कर रहा है, उसकी फीस उसे नहीं देनी होगी। सबसे बड़ी बात डेवलपमेंट फीस को लेकर है। इसकी सीमा पंद्रह प्रतिशत निर्धारित करके घेराबंदी की गई है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि : अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाएं भी व्यावसायिक हो रही हैं। ऐसे में सरकार का दायित्व बनता है कि वह मनमानी फीस वसूली पर अंकुश लगाए। उसके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं। संविधान में विशेष अधिकार होने के आधार पर अल्पसंख्यक संस्थाएं इससे बच नहीं सकतीं।
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संविधान में उन्हें मिले अधिकारों से कोई छेड़छाड़ न करते हुए उनके लिए अब एक तय कर दी गई है। वह फैसले करने के लिए तो आजाद होंगे, लेकिन नियमों की अनदेखी की तलवार भी लटकती रहेगी।
इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती कि अल्पसंख्यक संस्थानों में ही सर्वाधिक मनमानी के मामले सामने आते हैं। वह चाहे फीस निर्धारण का हो या फिर प्रवेश का। उल्लेखनीय है कि अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को कई सारे विशेषाधिकार मिले हैं। सरकार की ओर से निर्धारित प्रवेश व आरक्षण नीति इन संस्थाओं पर लागू नहीं होती है। सुप्रीम कोर्ट ने भी पीए ईनामदार बनाम महाराष्ट्र सरकार के वर्ष 2006 के मामले में जो निर्णय दिया है उसके अनुसार प्रवेश में आरक्षण नीति इनमें लागू नहीं की जा सकती है। साथ ही संविधान के अनुच्छेद (30) 1 के तहत अल्पसंख्यक संस्था के बच्चों के लिए फीस तथा अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम के दायरे से मुक्त रखा गया है।1विभागीय सूत्रों के अनुसार मसौदा तैयार करते समय इस तथ्य को भी ध्यान में रखा गया। इसीलिए उन पर कोई दबाव न बनाते हुए उन्हें एक सिद्धांत दिया गया। इसी के तहत स्कूलों की फीस वृद्धि को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जोड़ा गया है। जाहिर है कि यदि अब फीस वृद्धि के आधार भी स्पष्ट करने होंगे। इसके साथ ही ऐच्छिक फीस का निर्धारण किया गया। यानी कि बच्चा जिन सुविधाओं को स्कूल से नहीं हासिल कर रहा है, उसकी फीस उसे नहीं देनी होगी। सबसे बड़ी बात डेवलपमेंट फीस को लेकर है। इसकी सीमा पंद्रह प्रतिशत निर्धारित करके घेराबंदी की गई है।
इसमें कोई दो राय नहीं कि : अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थाएं भी व्यावसायिक हो रही हैं। ऐसे में सरकार का दायित्व बनता है कि वह मनमानी फीस वसूली पर अंकुश लगाए। उसके पास इसके अलावा कोई चारा नहीं। संविधान में विशेष अधिकार होने के आधार पर अल्पसंख्यक संस्थाएं इससे बच नहीं सकतीं।
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