नई दिल्ली (भाषा)। मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा गठित एक समिति के
अनुसार, सियासी हस्तक्षेप करीब निश्चित तौर पर शिक्षा क्षेत्र में खराब
परिणाम का सबसे महत्वपूर्ण कारण है।
इसने सुझाव दिया है कि कुलपतियों की नियुक्ति को राजनीति से दूर रखा जाए। पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम के नेतृत्व वाली पांच सदस्यीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि संस्थानों के लिए स्थल के चयन, अनुदान सहायता दर्जे की मंजूरी, परीक्षा केंद्र के चयन व सभी वरिष्ठ नियुक्तियों तथा कई राज्यों में कुलपतियों से लेकर कॉलेज के प्राचार्यों तथा जिला शिक्षा अधिकारियों की नियुक्ति में सभी स्तरों पर राजनीतिक हस्तक्षेप फैल गई है। नई शिक्षा नीति के बारे में सुझाव देने के लिए गठित समिति ने यह भी कहा कि नियुक्तियों, स्थानांतरण, संबद्धता मंजूरी और संस्थाओं को अनुदान मान्यता, यहां तक परीक्षा परिणाम से जुड़े मामलों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार से इंकार नहीं किया जा सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली में राष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थाओं के साथ बैठक के दौरान या पूरे देश में राज्यों के अफसरों के साथ अनौपचारिक संपर्कों के दौरान एक सबसे अहम कारण जो उभर कर आया, वह राजनीतिक हस्तक्षेप था। समिति ने पाया कि जब राष्ट्रीय मान्यता एजेंसियांें से यह स्पष्ट करने के लिए कहा जाता है कि वैसी शैक्षणिक संस्थाओं जो हकदार नहीं हैं, उन्हें तेजी से मान्यता क्यों मिल जाती है जबकि ‘अधिक योग्य’ संस्थाओं को लंबी अवधि तक इंतजार करना पड़ता है, इसका जवाब निरपवाद रूप से सियासी हस्तक्षेप से जुड़ा रहा। सरकार को पेश रिपोर्ट में कहा गया है कि समिति विभिन्न तरह की विपरीत परिस्थितियों में अलग-अलग रूपों में बार बार सामने आए कथनों को नजरंदाज नहीं कर सकती है, स्पष्ट निष्कर्ष यह है कि सियासी हस्तक्षेप करीब-करीब निश्चित तौर पर शिक्षा के खराब परिणाम सामने आने का सबसे महत्वपूर्ण कारण है। समिति की ओर से पेश सुझावों में कहा गया है कि कुलपति के चयन व नियुक्ति की प्रक्रिया को राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए और पूरी तरह से मेधा के आधार पर होनी चाहिए। इसमें यह भी कहा गया है कि शिक्षकों की नियुक्ति, स्वायत्त शिक्षक नियुक्ति बोर्ड के सृजन और शिक्षक शिक्षा प्रणाली का पुनर्गठन किया जाना चाहिए।
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इसने सुझाव दिया है कि कुलपतियों की नियुक्ति को राजनीति से दूर रखा जाए। पूर्व कैबिनेट सचिव टीएसआर सुब्रमण्यम के नेतृत्व वाली पांच सदस्यीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि संस्थानों के लिए स्थल के चयन, अनुदान सहायता दर्जे की मंजूरी, परीक्षा केंद्र के चयन व सभी वरिष्ठ नियुक्तियों तथा कई राज्यों में कुलपतियों से लेकर कॉलेज के प्राचार्यों तथा जिला शिक्षा अधिकारियों की नियुक्ति में सभी स्तरों पर राजनीतिक हस्तक्षेप फैल गई है। नई शिक्षा नीति के बारे में सुझाव देने के लिए गठित समिति ने यह भी कहा कि नियुक्तियों, स्थानांतरण, संबद्धता मंजूरी और संस्थाओं को अनुदान मान्यता, यहां तक परीक्षा परिणाम से जुड़े मामलों में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार से इंकार नहीं किया जा सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि दिल्ली में राष्ट्रीय शैक्षणिक संस्थाओं के साथ बैठक के दौरान या पूरे देश में राज्यों के अफसरों के साथ अनौपचारिक संपर्कों के दौरान एक सबसे अहम कारण जो उभर कर आया, वह राजनीतिक हस्तक्षेप था। समिति ने पाया कि जब राष्ट्रीय मान्यता एजेंसियांें से यह स्पष्ट करने के लिए कहा जाता है कि वैसी शैक्षणिक संस्थाओं जो हकदार नहीं हैं, उन्हें तेजी से मान्यता क्यों मिल जाती है जबकि ‘अधिक योग्य’ संस्थाओं को लंबी अवधि तक इंतजार करना पड़ता है, इसका जवाब निरपवाद रूप से सियासी हस्तक्षेप से जुड़ा रहा। सरकार को पेश रिपोर्ट में कहा गया है कि समिति विभिन्न तरह की विपरीत परिस्थितियों में अलग-अलग रूपों में बार बार सामने आए कथनों को नजरंदाज नहीं कर सकती है, स्पष्ट निष्कर्ष यह है कि सियासी हस्तक्षेप करीब-करीब निश्चित तौर पर शिक्षा के खराब परिणाम सामने आने का सबसे महत्वपूर्ण कारण है। समिति की ओर से पेश सुझावों में कहा गया है कि कुलपति के चयन व नियुक्ति की प्रक्रिया को राजनीति से दूर रखा जाना चाहिए और पूरी तरह से मेधा के आधार पर होनी चाहिए। इसमें यह भी कहा गया है कि शिक्षकों की नियुक्ति, स्वायत्त शिक्षक नियुक्ति बोर्ड के सृजन और शिक्षक शिक्षा प्रणाली का पुनर्गठन किया जाना चाहिए।
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