समाज, शिक्षा और परीक्षा के समीकरण पर अपनी बात मैं एक उदाहरण से शुरू करूंगा। सीबीएसई की सामाजिक अध्ययन की सातवीं कक्षा की किताब में दलित उत्पीड़न के इतिहास पर एक छोटा सा पाठ है।
इसके एक हिस्से में दलित उत्पीड़न का इतिहास बताते हुए ओम प्रकाश बाल्मीकि के जीवन का एक संदर्भ उनकी पुस्तक जूठन से लेकर लिखा गया है। आने वाली पीढ़ी को छुआछूत और जातीय भेदभाव जैसी बीमारियों से बचाने के लिए यह एक महत्वपूर्ण संदर्भ है।
लेकिन इसके पीछे का सारा प्रयास तब बेकार हो जाता है, जब हम बच्चों से परीक्षा में पूछते हैं- ‘जूठन पुस्तक के लेखक का क्या नाम है’, या ‘ओम प्रकाश बाल्मीकि की पुस्तक का नाम क्या है’, या फिर ‘दलित शब्द की व्याख्या लिखिए’। एक दलित बच्चे के रूप में ओम प्रकाश बाल्मीकि की पीड़ा को पाठ्य पुस्तक का हिस्सा बनाने का मकसद यह है कि बच्चों में जातिगत भेदभाव के प्रति एक संवेदनशील सोच पैदा हो। यह तो कतई नहीं कि बच्चे उनकी पुस्तक का नाम रट लें।
समझ चाहिए
हमारी परीक्षा व्यवस्था की यही सबसे बड़ी खामी है। यह सूचना का भंडार पैदा कर रही है, समझ नहीं। अपने ढाई साल के शिक्षा मंत्री के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि समाज का रिमोट कंट्रोल शिक्षा के हाथ में है, और शिक्षा का रिमोट कंट्रोल परीक्षा के हाथ में है। हम चाहें जितनी बढ़िया किताबें बना लें, जितने भी स्कूल बना लें, पर जब तक परीक्षा में आने वाले एक-एक प्रश्न को समाज की उपयोगिता के नजरिये से नहीं देखेंगे, तब तक शिक्षा की सार्थकता आधी-अधूरी ही रहेगी।
हमें एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि समाज कभी भी सरकारों से या किसी पीएम-सीएम के दफ्तर से नहीं चलता है। समाज जैसा है, वैसा क्लासरूम में बनता है। आज समाज में जो अच्छाई है, वह बीते कल के क्लासरूम की देन है और जो बिखराव है वह क्लासरूम की असफलता है। आज हमारे हाथ में फोन है, उसमें इंटरनेट है, इसका इस्तेमाल हमारे धर्म और जाति पर निर्भर नहीं है। किसी मंदिर में कोई जातिगत भेदभाव होता है तो आज का समाज उसे गलत मानता है। ये सड़कें, पुल, गाड़ियां, बिजली, इंटरनेट, लोगों की तार्किक सोच, सब क्लासरूम की देन हैं। लेकिन दूसरी तरफ जाति-धर्म के झगड़े, भ्रष्टाचार, शोषण, बलात्कार भी हैं, जो हमारे क्लासरूम्स की असफलताएं हैं।
हमारे क्लासरूम्स, शिक्षा के पाठ्यक्रम और प्रणालियां समय के साथ बदली हैं। लेकिन परीक्षा ने शिक्षा में जड़ता ला दी है। इसीलिए मैंने जोर देकर कहा है कि आज शिक्षा का रिमोट कंट्रोल परीक्षा के हाथ में है। वहां पूछे जाने वाले अधिकतर प्रश्न पढ़ाई के उद्देश्य से कहीं दूर के होते हैं।
प्रश्नपत्र बनाने वाला व्यक्ति सिर्फ बीते साल में छात्र की मेहनत का मूल्यांकन नहीं कर रहा, बल्कि यह भी तय कर देता है कि आगे के वर्षों में उस विषय की पढ़ाई का पैटर्न क्या रहने वाला है। अध्यापक क्लासरूम में क्या और कैसे पढ़ाएंगे, यह भी काफी हद तक पिछले वर्षों के प्रश्नपत्रों में आए सवालों से तय होता है। पाठ को पढ़ाया ही इस आधार पर जाता है कि पिछली परीक्षाओं में इस पाठ से इस-इस तरह के सवाल आए थे। शिक्षा का उद्देश्य समाज का विकास नहीं, पूछे जा चुके सवालों के जवाब रटना हो गया है। इसीलिए मैं फिर से दोहरा रहा हूं कि शिक्षा का रिमोट कंट्रोल परीक्षा के हाथों में है। दिल्ली सरकार में हमने लर्निंग आउटकम की बात की है। भारत सरकार हो या कोई और, हर तरफ लर्निंग आउटकम की बात हो रही है। लेकिन
जब हम अपने प्रश्नपत्रों को उठाकर देखते हैं तो साफ हो जाता है कि ये समझ के मूल्यांकन के लिए नहीं बल्कि रटने की शक्ति के मूल्यांकन के लिए बने हैं। मुझे नहीं लगता कि प्रश्नपत्र तैयार करते वक्त या उसके बाद कोई जिम्मेदार व्यक्ति उसको लर्निंग आउटकम के चश्मे से देखता होगा। लर्निंग आउटकम समझ के लिए है जबकि प्रश्नपत्र रटने की विशेषज्ञता के लिए। शिक्षा इन दोनों धुरियों के बीच उलझकर रह जा रही है। परीक्षा के बारे में एक और समस्या है, परीक्षा का खौफ बन जाना। आज बच्चे परीक्षा से डरते हैं। इसके नतीजों को लेकर हमेशा उनके मन में खौफ रहता है। जबकि परीक्षा तो एक मील के पत्थर की तरह है। यह प्रमाण है आगे बढ़ते जाने का। यात्रा का एक कदम पूरा होने का।
मील का पत्थर
मनुष्य का सहज स्वभाव है कि जब हम कोई मील का पत्थर पार करते हैं तो उत्सव मनाते हैं। दिल खुश हो रहा होता है। हम किसी मील के पत्थर तक पहुंचने से पहले घबरा नहीं गए होते हैं। लेकिन परीक्षा को लेकर यह घबराहट, यह डर समाज में डरे हुए लोग पैदा कर रहा है। डर की मानसिकता पैदा कर रहा है। इसीलिए आज पढ़ा-लिखा आदमी डरा कर काम कराना चाहता है और खुद भी डर से ही काम करता है। परीक्षा अगर उत्सव में बदल जाए तो शिक्षा समझ पैदा करने लगेगी। और अगर समझ पैदा होगी तो समाज में लोग डर से नहीं, बल्कि अपनी जिम्मेदारी से काम करेंगे।
इसीलिए अब देश के सारे शिक्षा व्यवस्थापकों, शिक्षाविदों और शिक्षकों को मिलकर परीक्षा के बारे में गहराई से सोचना चाहिए। हमें अपने यहां एक ऐसी परीक्षा प्रणाली विकसित करने की जरूरत है, जिससे शिक्षा के एक-एक पार्ट, एक-एक संदर्भ, एक-एक वाक्य की सार्थकता स्थापित हो सके। परीक्षा सिर्फ यह तय न करे कि पढ़ाया कैसे जाएगा, बल्कि यह शिक्षा और समाज के बीच मौजूद गहरी खाई को पाटने का भी काम कर सके। समाज के लिए शिक्षा और परीक्षा की सार्थकता यही होगी।
लेखक
मनीष सिसोदिया
(लेखक दिल्ली के शिक्षा मंत्री और उप-मुख्यमंत्री हैं )
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इसके एक हिस्से में दलित उत्पीड़न का इतिहास बताते हुए ओम प्रकाश बाल्मीकि के जीवन का एक संदर्भ उनकी पुस्तक जूठन से लेकर लिखा गया है। आने वाली पीढ़ी को छुआछूत और जातीय भेदभाव जैसी बीमारियों से बचाने के लिए यह एक महत्वपूर्ण संदर्भ है।
लेकिन इसके पीछे का सारा प्रयास तब बेकार हो जाता है, जब हम बच्चों से परीक्षा में पूछते हैं- ‘जूठन पुस्तक के लेखक का क्या नाम है’, या ‘ओम प्रकाश बाल्मीकि की पुस्तक का नाम क्या है’, या फिर ‘दलित शब्द की व्याख्या लिखिए’। एक दलित बच्चे के रूप में ओम प्रकाश बाल्मीकि की पीड़ा को पाठ्य पुस्तक का हिस्सा बनाने का मकसद यह है कि बच्चों में जातिगत भेदभाव के प्रति एक संवेदनशील सोच पैदा हो। यह तो कतई नहीं कि बच्चे उनकी पुस्तक का नाम रट लें।
समझ चाहिए
हमारी परीक्षा व्यवस्था की यही सबसे बड़ी खामी है। यह सूचना का भंडार पैदा कर रही है, समझ नहीं। अपने ढाई साल के शिक्षा मंत्री के अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि समाज का रिमोट कंट्रोल शिक्षा के हाथ में है, और शिक्षा का रिमोट कंट्रोल परीक्षा के हाथ में है। हम चाहें जितनी बढ़िया किताबें बना लें, जितने भी स्कूल बना लें, पर जब तक परीक्षा में आने वाले एक-एक प्रश्न को समाज की उपयोगिता के नजरिये से नहीं देखेंगे, तब तक शिक्षा की सार्थकता आधी-अधूरी ही रहेगी।
हमें एक बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि समाज कभी भी सरकारों से या किसी पीएम-सीएम के दफ्तर से नहीं चलता है। समाज जैसा है, वैसा क्लासरूम में बनता है। आज समाज में जो अच्छाई है, वह बीते कल के क्लासरूम की देन है और जो बिखराव है वह क्लासरूम की असफलता है। आज हमारे हाथ में फोन है, उसमें इंटरनेट है, इसका इस्तेमाल हमारे धर्म और जाति पर निर्भर नहीं है। किसी मंदिर में कोई जातिगत भेदभाव होता है तो आज का समाज उसे गलत मानता है। ये सड़कें, पुल, गाड़ियां, बिजली, इंटरनेट, लोगों की तार्किक सोच, सब क्लासरूम की देन हैं। लेकिन दूसरी तरफ जाति-धर्म के झगड़े, भ्रष्टाचार, शोषण, बलात्कार भी हैं, जो हमारे क्लासरूम्स की असफलताएं हैं।
हमारे क्लासरूम्स, शिक्षा के पाठ्यक्रम और प्रणालियां समय के साथ बदली हैं। लेकिन परीक्षा ने शिक्षा में जड़ता ला दी है। इसीलिए मैंने जोर देकर कहा है कि आज शिक्षा का रिमोट कंट्रोल परीक्षा के हाथ में है। वहां पूछे जाने वाले अधिकतर प्रश्न पढ़ाई के उद्देश्य से कहीं दूर के होते हैं।
प्रश्नपत्र बनाने वाला व्यक्ति सिर्फ बीते साल में छात्र की मेहनत का मूल्यांकन नहीं कर रहा, बल्कि यह भी तय कर देता है कि आगे के वर्षों में उस विषय की पढ़ाई का पैटर्न क्या रहने वाला है। अध्यापक क्लासरूम में क्या और कैसे पढ़ाएंगे, यह भी काफी हद तक पिछले वर्षों के प्रश्नपत्रों में आए सवालों से तय होता है। पाठ को पढ़ाया ही इस आधार पर जाता है कि पिछली परीक्षाओं में इस पाठ से इस-इस तरह के सवाल आए थे। शिक्षा का उद्देश्य समाज का विकास नहीं, पूछे जा चुके सवालों के जवाब रटना हो गया है। इसीलिए मैं फिर से दोहरा रहा हूं कि शिक्षा का रिमोट कंट्रोल परीक्षा के हाथों में है। दिल्ली सरकार में हमने लर्निंग आउटकम की बात की है। भारत सरकार हो या कोई और, हर तरफ लर्निंग आउटकम की बात हो रही है। लेकिन
जब हम अपने प्रश्नपत्रों को उठाकर देखते हैं तो साफ हो जाता है कि ये समझ के मूल्यांकन के लिए नहीं बल्कि रटने की शक्ति के मूल्यांकन के लिए बने हैं। मुझे नहीं लगता कि प्रश्नपत्र तैयार करते वक्त या उसके बाद कोई जिम्मेदार व्यक्ति उसको लर्निंग आउटकम के चश्मे से देखता होगा। लर्निंग आउटकम समझ के लिए है जबकि प्रश्नपत्र रटने की विशेषज्ञता के लिए। शिक्षा इन दोनों धुरियों के बीच उलझकर रह जा रही है। परीक्षा के बारे में एक और समस्या है, परीक्षा का खौफ बन जाना। आज बच्चे परीक्षा से डरते हैं। इसके नतीजों को लेकर हमेशा उनके मन में खौफ रहता है। जबकि परीक्षा तो एक मील के पत्थर की तरह है। यह प्रमाण है आगे बढ़ते जाने का। यात्रा का एक कदम पूरा होने का।
मील का पत्थर
मनुष्य का सहज स्वभाव है कि जब हम कोई मील का पत्थर पार करते हैं तो उत्सव मनाते हैं। दिल खुश हो रहा होता है। हम किसी मील के पत्थर तक पहुंचने से पहले घबरा नहीं गए होते हैं। लेकिन परीक्षा को लेकर यह घबराहट, यह डर समाज में डरे हुए लोग पैदा कर रहा है। डर की मानसिकता पैदा कर रहा है। इसीलिए आज पढ़ा-लिखा आदमी डरा कर काम कराना चाहता है और खुद भी डर से ही काम करता है। परीक्षा अगर उत्सव में बदल जाए तो शिक्षा समझ पैदा करने लगेगी। और अगर समझ पैदा होगी तो समाज में लोग डर से नहीं, बल्कि अपनी जिम्मेदारी से काम करेंगे।
इसीलिए अब देश के सारे शिक्षा व्यवस्थापकों, शिक्षाविदों और शिक्षकों को मिलकर परीक्षा के बारे में गहराई से सोचना चाहिए। हमें अपने यहां एक ऐसी परीक्षा प्रणाली विकसित करने की जरूरत है, जिससे शिक्षा के एक-एक पार्ट, एक-एक संदर्भ, एक-एक वाक्य की सार्थकता स्थापित हो सके। परीक्षा सिर्फ यह तय न करे कि पढ़ाया कैसे जाएगा, बल्कि यह शिक्षा और समाज के बीच मौजूद गहरी खाई को पाटने का भी काम कर सके। समाज के लिए शिक्षा और परीक्षा की सार्थकता यही होगी।
लेखक
मनीष सिसोदिया
(लेखक दिल्ली के शिक्षा मंत्री और उप-मुख्यमंत्री हैं )
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