मिड डे में अटका मील
जब से मिड डे मील की व्यवस्था लागू हुई है, तब से आज तक यह योजना कभी भी सिरे नहीं चढ़ पाई। सोचा तो यह गया था कि बच्चे खाना खाने के बहाने स्कूल आएंगे, पढ़ेंगे और शिक्षित हो जाएंगे। अभिभावक बच्चों को घर के काम में जुटाए रखने के बजाए स्कूल भेजेंगे, गरीब बच्चों को भरपूर और पोषणयुक्त भोजन मिलेगा। मेन्यू भी बनाया गया। शुरू में तो सभी स्कूलों तक खाना नहीं पहुंचा।
तय यह भी नहीं हो पाया कि इस मील के लिए अनाज कहां से मिले। कहीं राशन को लेकर परेशानी तो कहीं ईंधन की किल्लत। रसोइया की जाति पर टकराव, मिड डे मील खाने की जिम्मेदारी कौन निभाए, मास्टरजी के नियंत्रण में रहेगा या प्रधान जी के, इस पर तकरार। किसी एनजीओ को दें तो क्या पूरी ईमानदारी के साथ यह कार्य हो पाएगा। कंवर्जन कॉस्ट को लेकर भी कई सरकारें सालों तक जूझती रहीं। धीरे-धीरे मिड डे मील सर्वव्यापी हुआ। लेकिन शिकायतें आने लगीं कि बच्चे कम आते हैं और रजिस्टर में ज्यादा बच्चे दिखाए जाते हैं। स्कूल में नाम जरूर लिखा गया मगर ड्रापआउट खत्म नहीं हुआ। एक टीचर तो इसके इंतजाम में ही पूरा दिन लगा देता, बाद में याद आया कि शिक्षक को पढ़ाना चाहिए, बाकी कार्यों से उसे मुक्त रखना चाहिए।
बच्चे छोटे होते हैं, उनका पोषण किया जाना जरूरी है, मामला अत्यंत संवेदनशील है, उन्हें स्वाद चाहिए तो साफ-सफाई भी। थोड़ी सी लापरवाही स्वास्थ्य के लिए घातक हो जाती है। लेकिन सरकारी महकमा इसे समझ नहीं सका है या यूं कहा जाए कि समझने के लिए कभी कोशिश ही नहीं की गई। पूरे प्रदेश में मिड मील खाने से बच्चों के बीमार होने की घटनाएं आम हो चली हैं। हाल में राजधानी और आसपास के ही क्षेत्र में तीन घटनाएं हो चुकी हैं। शिक्षा विभाग से लेकर प्रशासनिक अधिकारी तक मौके दौड़ते हैं, बच्चों के अभिभावकों और स्वास्थ्य विभाग की फजीहत होती है सो अलग। अब काम सिक्स सिग्मा के स्टैंडर्ड के तहत निभाने का वक्त आ गया है। मुंबई के डिब्बा वालों से ही सीख लें, कहीं कोई गलती नहीं होती। सरकार को अपने मॉनीटरिंग तंत्र को दुरुस्त करना चाहिए। पूरी योजना के लिए भरपूर बजट दिया जा रहा है, जरूरी मानव संसाधन भी तैनात हैं। फिर भी गड़बड़ी का मतलब है कहीं तो कर्तव्य निभाने में कोताही बरती जा रही है, इसे रोका जाना जरूरी है।
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जब से मिड डे मील की व्यवस्था लागू हुई है, तब से आज तक यह योजना कभी भी सिरे नहीं चढ़ पाई। सोचा तो यह गया था कि बच्चे खाना खाने के बहाने स्कूल आएंगे, पढ़ेंगे और शिक्षित हो जाएंगे। अभिभावक बच्चों को घर के काम में जुटाए रखने के बजाए स्कूल भेजेंगे, गरीब बच्चों को भरपूर और पोषणयुक्त भोजन मिलेगा। मेन्यू भी बनाया गया। शुरू में तो सभी स्कूलों तक खाना नहीं पहुंचा।
तय यह भी नहीं हो पाया कि इस मील के लिए अनाज कहां से मिले। कहीं राशन को लेकर परेशानी तो कहीं ईंधन की किल्लत। रसोइया की जाति पर टकराव, मिड डे मील खाने की जिम्मेदारी कौन निभाए, मास्टरजी के नियंत्रण में रहेगा या प्रधान जी के, इस पर तकरार। किसी एनजीओ को दें तो क्या पूरी ईमानदारी के साथ यह कार्य हो पाएगा। कंवर्जन कॉस्ट को लेकर भी कई सरकारें सालों तक जूझती रहीं। धीरे-धीरे मिड डे मील सर्वव्यापी हुआ। लेकिन शिकायतें आने लगीं कि बच्चे कम आते हैं और रजिस्टर में ज्यादा बच्चे दिखाए जाते हैं। स्कूल में नाम जरूर लिखा गया मगर ड्रापआउट खत्म नहीं हुआ। एक टीचर तो इसके इंतजाम में ही पूरा दिन लगा देता, बाद में याद आया कि शिक्षक को पढ़ाना चाहिए, बाकी कार्यों से उसे मुक्त रखना चाहिए।
बच्चे छोटे होते हैं, उनका पोषण किया जाना जरूरी है, मामला अत्यंत संवेदनशील है, उन्हें स्वाद चाहिए तो साफ-सफाई भी। थोड़ी सी लापरवाही स्वास्थ्य के लिए घातक हो जाती है। लेकिन सरकारी महकमा इसे समझ नहीं सका है या यूं कहा जाए कि समझने के लिए कभी कोशिश ही नहीं की गई। पूरे प्रदेश में मिड मील खाने से बच्चों के बीमार होने की घटनाएं आम हो चली हैं। हाल में राजधानी और आसपास के ही क्षेत्र में तीन घटनाएं हो चुकी हैं। शिक्षा विभाग से लेकर प्रशासनिक अधिकारी तक मौके दौड़ते हैं, बच्चों के अभिभावकों और स्वास्थ्य विभाग की फजीहत होती है सो अलग। अब काम सिक्स सिग्मा के स्टैंडर्ड के तहत निभाने का वक्त आ गया है। मुंबई के डिब्बा वालों से ही सीख लें, कहीं कोई गलती नहीं होती। सरकार को अपने मॉनीटरिंग तंत्र को दुरुस्त करना चाहिए। पूरी योजना के लिए भरपूर बजट दिया जा रहा है, जरूरी मानव संसाधन भी तैनात हैं। फिर भी गड़बड़ी का मतलब है कहीं तो कर्तव्य निभाने में कोताही बरती जा रही है, इसे रोका जाना जरूरी है।
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