लगभग एक दशक बाद जब मैं अपने शहर कानपुर की सड़कों से गुजर रहा था तो वहां के सबसे बड़े मॉल की चर्चा सुनने को मिली। पता चला कि वह क्राइस्ट चर्च कालेज के ठीक सामने बना था जहां कभी हम पढ़ते थे।
लौटकर वापस आया और कालम लिखने के लिए बैठा तो संयोग से टीवी पर शिक्षक दिवस पर नरेंद्र मोदी को बोलते देखा। उन्हें सुनने लगा और पुरानी यादों में खो गया।
संदेह नहीं कि सब लोग अपने गुरुओं को महान साबित करने, उन्हें अपने जीवन की दिशा, दशा निर्धारित करने वाला मानते हैं, पर दुर्भाग्य से मैं इन भाग्यशालियों में शामिल नहीं हूं। मुझे अपने जीवन में गुरुओं के साथ जो अनुभव हुए है उनमें मीठे कम और खट्टे व कसैले का अनुपात कहीं ज्यादा है। विद्यारंभ पब्लिक स्कूल से करने के बाद आगे की पढ़ाई सरकारी स्कूलों में हुई। वहां हम लोग अपने शिक्षकों को ज्यादातर, सर की जगह ‘गुरुजी’ कहकर संबोधित करते थे क्योंकि वे लोग खुद ऐसा पसंद करते थे। तब ज्यादातर को खुश रखने के लिए उनके पैर छूने पड़ते थे।
एक शिक्षक जो कि हमें फिजिक्स पढ़ाते थे उनका नाम बीडी दीक्षित था। वे बेहद ईमानदार, अनुशासित व छात्रों को प्यार करने वाले थे। वे हमें सद्गुणों की शिक्षा देते थे पर उनकी तुलना में दूसरे अध्यापकों का रवैया एकदम अलग था। बायोलाजी के शिक्षक सिंह साहब थे। उन्हें हम ‘सनकी’ कहकर बुलाते थे। शायद इसकी वजह उनका बरताव था। उनकी कोशिश रहती थी कि कक्षा का हर छात्र उनसे घर पर ट्यूशन पढ़े। आप उनकी अनदेखी नहीं कर सकते थे क्योंकि प्रैक्टिकल में कम नंबर मिलने या फेल हो जाने का डर बना रहता था। जब किसी छात्र को सजा देनी होती थी तो वे समझावनलाल (बेंत) का सहारा लेते थे।
उससे भी मन नहीं भरता तो उंगलियों के बीच पेसिंल फंसा कर कसकर दबाते जिससे छात्रों की चीख निकल जाती थी। जब हाईस्कूल या इंटरमीडिएट की बोर्ड की परीक्षा होती तो फिजिक्स, कैमेस्ट्री व बायोलाजी के प्रेक्टिकल की परीक्षा लेने के लिए बाहर से परीक्षक आता था। हमने जीवन में रिश्वत का पहला रुप स्कूल में ही देखा। हम लोगों को परीक्षक का खर्च उठाने व उसे खुश करने के लिए विभाग प्रमुख के पास अपने कोटे की रिश्वत जो कि 5 से 10 रुपए के बीच होती थी, जमा करवानी पड़ती थी। इस राशि से उसे उपहार दिए जाते थे। यह तो वह न्यूनतम समर्थन मूल्य था जो कि हमें फेल न होने के लिए अदा करना पड़ता था।
ज्यादा नंबर चाहने वालों को विभाग प्रमुख को भी खुश रखना पड़ता था। हमारा एक साथी था जो कि कालेज (उत्तरप्रदेश में इंटर तक के स्कूल कालेज कहलाते हैं) के पास ही रहता था। वह खाते-पीते घर का था। इस सिंधी मित्र की बेकरी थी। परीक्षक को उसके यहां ठहराया जाता। वह उन्हें स्कूटर पर घुमाता। चलते समय उन्हें बिस्कुट, केक के पैकेट, झूलेलाल की तस्वीर वाले कैलेंडर व डायरी भेंट करता। जाहिर था कि उसे 30 में से 29 नंबर मिलते थे। हालांकि वह बेचारा अब नवीन मार्केट में अपनी बेकरी की दुकान ही संभाल रहा है।
हमारे हिंदी के शिक्षक का पूरा जोर इस बात पर रहता था कि हम लोग उनकी निबंध की किताब खरीद लें। इसमें ‘चांदनी रात में नौका विहार’, ‘विज्ञान के चमत्कार’, ‘विज्ञान अभिशाप या वरदान’ सरीखे निबंध होते थे। सड़े हुए कागज पर इस किताब की जानकारी गजब की थी। तब तक शहर में टेलीविजन नहीं आया था। विज्ञान के चमत्कार, निबंध में कहा गया था कि लोग टेलीविजन के जरिए कही भी देख सकते हैं व बात कर सकते हैं। जो काम चार दशकों बाद संभव हुआ उसकी कल्पना हमारे गुरुजी ने 1970 में ही कर ली थी।
तब तो किसी ने स्काइप का नाम भी नहीं सुना होगा। अंग्रेजी के शिक्षक भारद्वाजजी थे, जिन्हें हम लोग आपस में भरतू कह कर बुलाते थे। वे हर शब्द का हिंदी अनुवाद करवाते थे। केक का मतलब मालपुंआ बताते थे। एक पाठ में ‘लोफ’ शब्द आया। उन्होंने बताया कि एलओएएफ-लोफ। इसका मतलब डबलरोटी होता है। बेटा, इंग्लैंड में लोग इतने अमीर होते हैं कि खाने में भी डबलरोटी खाते हैं। वैसे वे गलत नहीं थे क्योंकि उस समय अमीर लोग व जब कोई बीमार पड़ता था, तब उसे डबलरोटी खाने की डाक्टर सलाह देते थे। वे बताते थे कि वहां लोग इतने अमीर होते हैं कि डबलरोटी पर रोज मक्खन व मीठी चटनी (जैम) लगाकर खाते हैं।
भगवान ने उनकी ऐसी सुनी कि आज डबलरोटी झुग्गियों में खायी जा रही है।
गणित पढ़ाने वाले अध्यापक का नाम ‘थीटा’ रखा गया था। वे क्लास में घूमते हुए छात्रों की पीठ पर घूंसा जरुर मारते थे। जब किसी के नंबर कम आते तो उसका हाथ पकड़कर हथेली पर डंडी से मारते हुए कहते कि, बेटा तुम बिल्कुल मत पढ़ना। अगर तुम पास हो गए तो रिक्शा कौन चलाएगा? सब्जी कौन बेचेगा? स्टेशन पर समान कौन उठाएगा? वगैरह-वगैरह! अपना सामना ऐसे शिक्षक से भी हुआ जिन्होंने बीकाम में कक्षा शुरु होते ही हर छात्र से निबंध लिखने का कहा कि वह जीवन में क्या बनना चाहता है? इसमें पिता का धंधा व आय का जिक्र करना जरुरी था। उसके बाद कापी जांचते हुए उन्होंने अपने भावी शिकारों/चेलों की सूची तैयार कर ली और आर्थिक रुप से संपन्न छात्रों को ट्यूशन पढ़ाने लगे। क्लास में भी सबसे ज्यादा ध्यान इन्हीं छात्रों पर दिया जाता था। उन्हें परीक्षा में तो अच्छे अंक मिलते ही थे, गुरुजी का इतना जलवा था कि वे यूनीवर्सटी में भी उनकa मेरिट में लाने की गारंटी देते थे।
वहीं सेवक वात्सायन सरीखे गुरु भी मिले जिनका मैं कभी छात्र नहीं रहा। वे क्राइस्ट चर्च में हिंदी विभाग के प्रमुख थे जबकि मैं बीकाम का छात्र था पर हमेशा वे मुझे प्रोत्साहित करते थे। पत्र-पत्रिकाओं में छपे मेरे लेखों को कालिज मैगजीन में छापते। दूसरों को बताते कि तुम लोग हिंदी के छात्र होकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हो पर इसे देखो लेखन के जरिए अपना जेबखर्च भी निकाल रहा है। वैसे अपने शिक्षकों के कारण ही मेरा लेखन की ओर झुकाव हुआ। इस रोग की शुरुआत कविता लिखने से ही होती है। मैंने अपने जीवन की पहली कविता पीटी मास्टर के बारे में लिखी थी जिसने मुझसे बुरादे की अंगीठी मंगवाई थी। कविता कुछ इस प्रकार थी-
‘गगन तले नीम की छाया में पीटी मास्टर बैठा हुआ ऊंघता है।
थोड़ी-थोड़ी देर में प्रिंसिपल के आने की गंध से चैक कर सूंघता है
तनखा भी पूरी लेता है, फिर भी घर के खर्च का रोना सबके आगे रोता है।’–(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विनम्र उनका लेखन नाम है।)
सरकारी नौकरी - Army /Bank /CPSU /Defence /Faculty /Non-teaching /Police /PSC /Special recruitment drive /SSC /Stenographer /Teaching Jobs /Trainee / UPSC
लौटकर वापस आया और कालम लिखने के लिए बैठा तो संयोग से टीवी पर शिक्षक दिवस पर नरेंद्र मोदी को बोलते देखा। उन्हें सुनने लगा और पुरानी यादों में खो गया।
संदेह नहीं कि सब लोग अपने गुरुओं को महान साबित करने, उन्हें अपने जीवन की दिशा, दशा निर्धारित करने वाला मानते हैं, पर दुर्भाग्य से मैं इन भाग्यशालियों में शामिल नहीं हूं। मुझे अपने जीवन में गुरुओं के साथ जो अनुभव हुए है उनमें मीठे कम और खट्टे व कसैले का अनुपात कहीं ज्यादा है। विद्यारंभ पब्लिक स्कूल से करने के बाद आगे की पढ़ाई सरकारी स्कूलों में हुई। वहां हम लोग अपने शिक्षकों को ज्यादातर, सर की जगह ‘गुरुजी’ कहकर संबोधित करते थे क्योंकि वे लोग खुद ऐसा पसंद करते थे। तब ज्यादातर को खुश रखने के लिए उनके पैर छूने पड़ते थे।
एक शिक्षक जो कि हमें फिजिक्स पढ़ाते थे उनका नाम बीडी दीक्षित था। वे बेहद ईमानदार, अनुशासित व छात्रों को प्यार करने वाले थे। वे हमें सद्गुणों की शिक्षा देते थे पर उनकी तुलना में दूसरे अध्यापकों का रवैया एकदम अलग था। बायोलाजी के शिक्षक सिंह साहब थे। उन्हें हम ‘सनकी’ कहकर बुलाते थे। शायद इसकी वजह उनका बरताव था। उनकी कोशिश रहती थी कि कक्षा का हर छात्र उनसे घर पर ट्यूशन पढ़े। आप उनकी अनदेखी नहीं कर सकते थे क्योंकि प्रैक्टिकल में कम नंबर मिलने या फेल हो जाने का डर बना रहता था। जब किसी छात्र को सजा देनी होती थी तो वे समझावनलाल (बेंत) का सहारा लेते थे।
उससे भी मन नहीं भरता तो उंगलियों के बीच पेसिंल फंसा कर कसकर दबाते जिससे छात्रों की चीख निकल जाती थी। जब हाईस्कूल या इंटरमीडिएट की बोर्ड की परीक्षा होती तो फिजिक्स, कैमेस्ट्री व बायोलाजी के प्रेक्टिकल की परीक्षा लेने के लिए बाहर से परीक्षक आता था। हमने जीवन में रिश्वत का पहला रुप स्कूल में ही देखा। हम लोगों को परीक्षक का खर्च उठाने व उसे खुश करने के लिए विभाग प्रमुख के पास अपने कोटे की रिश्वत जो कि 5 से 10 रुपए के बीच होती थी, जमा करवानी पड़ती थी। इस राशि से उसे उपहार दिए जाते थे। यह तो वह न्यूनतम समर्थन मूल्य था जो कि हमें फेल न होने के लिए अदा करना पड़ता था।
ज्यादा नंबर चाहने वालों को विभाग प्रमुख को भी खुश रखना पड़ता था। हमारा एक साथी था जो कि कालेज (उत्तरप्रदेश में इंटर तक के स्कूल कालेज कहलाते हैं) के पास ही रहता था। वह खाते-पीते घर का था। इस सिंधी मित्र की बेकरी थी। परीक्षक को उसके यहां ठहराया जाता। वह उन्हें स्कूटर पर घुमाता। चलते समय उन्हें बिस्कुट, केक के पैकेट, झूलेलाल की तस्वीर वाले कैलेंडर व डायरी भेंट करता। जाहिर था कि उसे 30 में से 29 नंबर मिलते थे। हालांकि वह बेचारा अब नवीन मार्केट में अपनी बेकरी की दुकान ही संभाल रहा है।
हमारे हिंदी के शिक्षक का पूरा जोर इस बात पर रहता था कि हम लोग उनकी निबंध की किताब खरीद लें। इसमें ‘चांदनी रात में नौका विहार’, ‘विज्ञान के चमत्कार’, ‘विज्ञान अभिशाप या वरदान’ सरीखे निबंध होते थे। सड़े हुए कागज पर इस किताब की जानकारी गजब की थी। तब तक शहर में टेलीविजन नहीं आया था। विज्ञान के चमत्कार, निबंध में कहा गया था कि लोग टेलीविजन के जरिए कही भी देख सकते हैं व बात कर सकते हैं। जो काम चार दशकों बाद संभव हुआ उसकी कल्पना हमारे गुरुजी ने 1970 में ही कर ली थी।
तब तो किसी ने स्काइप का नाम भी नहीं सुना होगा। अंग्रेजी के शिक्षक भारद्वाजजी थे, जिन्हें हम लोग आपस में भरतू कह कर बुलाते थे। वे हर शब्द का हिंदी अनुवाद करवाते थे। केक का मतलब मालपुंआ बताते थे। एक पाठ में ‘लोफ’ शब्द आया। उन्होंने बताया कि एलओएएफ-लोफ। इसका मतलब डबलरोटी होता है। बेटा, इंग्लैंड में लोग इतने अमीर होते हैं कि खाने में भी डबलरोटी खाते हैं। वैसे वे गलत नहीं थे क्योंकि उस समय अमीर लोग व जब कोई बीमार पड़ता था, तब उसे डबलरोटी खाने की डाक्टर सलाह देते थे। वे बताते थे कि वहां लोग इतने अमीर होते हैं कि डबलरोटी पर रोज मक्खन व मीठी चटनी (जैम) लगाकर खाते हैं।
भगवान ने उनकी ऐसी सुनी कि आज डबलरोटी झुग्गियों में खायी जा रही है।
गणित पढ़ाने वाले अध्यापक का नाम ‘थीटा’ रखा गया था। वे क्लास में घूमते हुए छात्रों की पीठ पर घूंसा जरुर मारते थे। जब किसी के नंबर कम आते तो उसका हाथ पकड़कर हथेली पर डंडी से मारते हुए कहते कि, बेटा तुम बिल्कुल मत पढ़ना। अगर तुम पास हो गए तो रिक्शा कौन चलाएगा? सब्जी कौन बेचेगा? स्टेशन पर समान कौन उठाएगा? वगैरह-वगैरह! अपना सामना ऐसे शिक्षक से भी हुआ जिन्होंने बीकाम में कक्षा शुरु होते ही हर छात्र से निबंध लिखने का कहा कि वह जीवन में क्या बनना चाहता है? इसमें पिता का धंधा व आय का जिक्र करना जरुरी था। उसके बाद कापी जांचते हुए उन्होंने अपने भावी शिकारों/चेलों की सूची तैयार कर ली और आर्थिक रुप से संपन्न छात्रों को ट्यूशन पढ़ाने लगे। क्लास में भी सबसे ज्यादा ध्यान इन्हीं छात्रों पर दिया जाता था। उन्हें परीक्षा में तो अच्छे अंक मिलते ही थे, गुरुजी का इतना जलवा था कि वे यूनीवर्सटी में भी उनकa मेरिट में लाने की गारंटी देते थे।
वहीं सेवक वात्सायन सरीखे गुरु भी मिले जिनका मैं कभी छात्र नहीं रहा। वे क्राइस्ट चर्च में हिंदी विभाग के प्रमुख थे जबकि मैं बीकाम का छात्र था पर हमेशा वे मुझे प्रोत्साहित करते थे। पत्र-पत्रिकाओं में छपे मेरे लेखों को कालिज मैगजीन में छापते। दूसरों को बताते कि तुम लोग हिंदी के छात्र होकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हो पर इसे देखो लेखन के जरिए अपना जेबखर्च भी निकाल रहा है। वैसे अपने शिक्षकों के कारण ही मेरा लेखन की ओर झुकाव हुआ। इस रोग की शुरुआत कविता लिखने से ही होती है। मैंने अपने जीवन की पहली कविता पीटी मास्टर के बारे में लिखी थी जिसने मुझसे बुरादे की अंगीठी मंगवाई थी। कविता कुछ इस प्रकार थी-
‘गगन तले नीम की छाया में पीटी मास्टर बैठा हुआ ऊंघता है।
थोड़ी-थोड़ी देर में प्रिंसिपल के आने की गंध से चैक कर सूंघता है
तनखा भी पूरी लेता है, फिर भी घर के खर्च का रोना सबके आगे रोता है।’–(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विनम्र उनका लेखन नाम है।)
सरकारी नौकरी - Army /Bank /CPSU /Defence /Faculty /Non-teaching /Police /PSC /Special recruitment drive /SSC /Stenographer /Teaching Jobs /Trainee / UPSC