यदि आप शिक्षित या साक्षर हैं, तो अपने आस-पास के बच्चों को दिन में
कम-से-कम एक घंटा समय दीजिए. यदि स्कूल में जाकर पढ़ाने की अनुमति नहीं है,
तो किसी अन्य सार्वजनिक स्थान या अपने घर पर ही पढ़ाइए. समय का सदुपयोग
होगा, समाज का विकास होगा और आपको ईश्वर से साक्षात्कार का संतोष होगा.
पढ़िए अंतिम कड़ी. इतनी प्रगति मुख्यत: स्वयंसेवक शिक्षकों के उत्साह से ही हुई है. वे नित्य कक्षा आरंभ होने से कम से कम 15 मिनट पहले आते हैं तथा कक्षाओं की समाप्ति के बाद बच्चों को विदा करके ही 15 मिनट बाद स्कूल से चलते हैं. इस सारे काम के लिए इन स्वयंसेवक शिक्षकों को 100 रुपये प्रति दिन की पढ़ाई के लिए मानदेय के रूप में दिया जाता है. शिक्षकों ने पढ़ाई के साथ-साथ सफाई और घर पर पढ़ाई पर भी बल दिया है. इन स्कूलों के स्थायी शिक्षकों को साथ लेकर ये स्वयंसेवक शिक्षक इन बच्चों के घर गये उनके माता-पिता से मिले उन्हें स्कूल आकर मिलने का निमंत्रण भी दिया. पूछे जाने पर कई बच्चों ने कहा था कि उनके पास सिर्फ एक ही पैंट कमीज या स्कर्ट कमीज है. ज्ञातव्य है कि राज्य सरकार इन बच्चों के अभिवावकों को दो सेट यूनिफॉर्म के पैसे देती है.
स्वयंसेवकों ने बल दिया कि जितनी भी कमीजें हो वे साफ हों, यथासंभव बच्चे घर पर भी अच्छी भाषा सुनें, घर पर भी पढ़ें तथा साफ कपड़ों में मुंह धोकर नाखून एवं दांत साफकर नहाकर बाल बड़े हो तो उन्हें बांध कर स्कूल आएं. इन प्रयासों का प्रभाव हुआ है और यह पाया गया कि साफ सुथरे बच्चे अच्छा पढ़ भी रहे हैं. प्राय: इन परिवारों में यह चेतना आयी है कि बिना पूरे परिवार की सहायता के ये बच्चे शिक्षा प्राप्त करने में एवं जीवन में सफल नहीं हो पायेंगे. परंतु अभी भी अनेक अन्य परिवार में ऐसी चेतना नहीं आयी है.
फिर भी सामान्य रूप से क्षीण ही सही एक चेतना पूरे ग्रामीण परिवेश में आयी है कि शिक्षा से अधिक सबल गारंटी सुखद भविष्य के लिए कुछ और नहीं है.
जैसा कि आजकल फैशन हो गया है गांव के इन परिवारों से भी विशेषत: वैसे परिवारों से जिनके पास जरा भी अतिरिक्त पैसे हैं बच्चे अब इंग्लिश मीडियम स्कूलों या तथाकथित ‘पब्लिक स्कूलों’ में भी जाते हैं अौर एक हजार रुपया अधिक प्रतिमाह फीस देते हैं. इन निजी विद्यालयों में कक्षाएं नियमित होती हैं, परंतु अन्य अर्थों में ये इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूल सरकारी स्कूलों से कुछ खास अच्छे नहीं हैं.
जो अतिरिक्त पैसे ये फीस पर खर्चते हैं, उन्हें यदि घर पर बालोपयोगी पुस्तकें कुर्सी-मेज प्रकाश एवं पढ़ने-खेलने की सुविधा में लगाये जायें तो परिणाम कहीं अधिक सुखद होंगे. परंतु, सरकारी स्कूलों की अव्यवस्था एवं इंग्लिश मीडियम स्कूलों की बहुप्रचारित छवि अभी निकट भविष्य में तो ऐसा होने नहीं देगी. परंतु TNPL की सहायता से चलायी जा रही इस परियोजना के अंतर्गत कुछ ऐसा ही करने की कोशिश हो रही है.
इसलिए छ: अप्रैल की शाम को जब विद्यालय प्रांगण में इन बच्चों को मंच देने के लिए एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया, तो अच्छी संख्या में लोग इसे देखने उपस्थित हुए. 90 मिनट के रंगारंग कार्यक्रम दर्शकों ने शांत होकर देखा. लोग यह विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे कि अभी जिन बच्चों ने सरस्वती वंदना की थी या ‘राधा तेरी चुनरी’ पर नृत्य प्रस्तुत किया था, वही बच्चे थे. कल तक जिनकी नाक बहती रहती थी, बाल बिखरे रहते थे, कमीज गंदी एवं फटी और अधखुली होती थी और जो मुख्यत: मध्याह्न भोजन के लिए ही स्कूल आते थे.
अब इनमें से अधिकांश बच्चों को मध्याह्न भोजन के बाद के विशेष क्लास के लिए कहकर रोकना नहीं पड़ता है. वे स्वयं हाथ-मुंह धोकर बाल बांधकर फिर कक्षा में आ जाते हैं. TNPL द्वारा दिये गये लैपटॉप पर चल रहे संगीत पर कदम व सुर मिलाकर नाचते गाते दलित परिवारों के ये बच्चे जैसे कह रहे थे कि हमें आरक्षण की भीख मत दो. हमें स्तर की शिक्षा की सुविधा एवं अवसर का अधिकार दो, फिर हम दिखाते हैं कि कोयले की खदानों से हीरे कैसे निकलते हैं या गुदड़ी में लाल कैसे पैदा होते हैं एवं कितनी बड़ी संख्या में पैदा होते हैं.
गांधी जी ने कहा था- आवश्यकता एक सांस्कृतिक क्रांति की है. पूर्ण स्वराज की है. हिंद स्वराज की है. और अपना राज अच्छा राज होने के लिए अपने प्रयास एवं अच्छे प्रयास की आवश्यकता है.
इस परियोजना के शुरू होने के बाद गांव के कई युवक युवती स्वयंसेवक बनने स्कूल तक आये हैं. परंतु परियोजना में इतने पैसे नहीं हैं कि सभी इच्छुक युवा इसमें शामिल किये जा सकें. पिण्डारूच पंचायत में स्थित अन्य विद्यालयों से भी ऐसी ही कक्षाएं चलाने के अनुरोध प्राप्त हुए हैं. परंतु परियोजना की वित्तीय एवं व्यावहारिक सीमा है और अचानक उन सीमाओं को तोड़ना भी संभव नहीं है. अन्य रास्ते भी निकालने होंगे. करना अभी बहुत कुछ है. इन स्कूलों में आज भी शिक्षकों तथा लड़के लड़कियों के लिये अलग-अलग शौचालय नहीं हैं. बेंच-डेस्क नहींं हैं बिजली और इससे प्राप्त होने वाली सुविधाएं नहीं हैं.
इंटरनेट की तो अभी तक चर्चा भी नहीं है. खेल के नाम पर दौड़नेे भर को खुली जगह है, और कुछ नहीं. यहां ‘पौष्टिक मध्याह्न भोजन’ की अंजुली भर दाल में नमक हल्दी के अतिरिक्त दाल के सिर्फ तीन ही दाने होते हैं. पुस्तकालय के नाम पर पंचायत के 12 स्कूलों में से एक में पांचजन्य ट्रस्ट से मिली एक बुकशेल्फ में तीन-चार सौ किताबें भर हैं. यह स्थिति शीघ्र एवं अवश्य बदलनी चाहिये. केवल सरकार इसे नहीं बदल पायेगी.
बहुत कुछ बदला है. चेतना बदली है. अब दलित समाज भी अपने बच्चों का नाम बुधना, सेनियां, मंगरी, रेवणी नहीं, रखकर राजेश, राकेश, रेणु और रंजना रखता है. परंतु इसके साथ ही शादी-ब्याह, श्राद्ध, त्यौहार आदि अवसरों पर अनावश्यक व्यय एवं अपव्यय तथा रूढ़िवादिता का फैशन भी आ गया है. यह स्थिति अवश्य एवं शीघ्र बदलनी चाहिये. हम सिंगापुर को देखें.
वहां किसी के लिए आरक्षण नहीं है. परंतु हर अभिभावक के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया है कि उनके बच्चे स्कूल जायें. और इन स्कूलों में किसी सुविधा या अवसर की कमी नहीं है. वहां किसी भी बच्चे को अन्य स्कूलों में जाने की आवश्यकता नहीं है. सिंगापुर शिक्षा पर सर्वाधिक पैसे खर्चता है. 1961 में आजाद हुआ एक शहर का यह देश आज विश्व के धनी एवं विकसित देशों में गिना जाता है. भारत रूस, फ्रांस जैसे देशों को भी कर्ज देता है.
हमारी सरकार इतना नहीं कर पायेगी. साधन की कमी है. राजनैतिक इच्छाशक्ति की ज्यादा कमी है. परंतु छोटे स्तर पर हम स्वयं ऐसा कर सकते हैं. यदि हर गांव उत्सव-रीति रिवाज में होने वाले व्यय का एक प्रतिशत भी स्कूलों के नाम पर अलग कर दें तो अकेले मेरे गांव में हर वर्ष 1.25 लाख रुपये अतिरिक्त व्यय के लिए इन स्कूलों को प्राप्त हो जायेंगे. ठीक इसी प्रकार से अतिरिक्त शिक्षकों की कमी पूरी की जा सकती है.
यदि आप शिक्षित हैं या साक्षर भी हैं तो अपने पास पड़ोस के बच्चों को दिन में एक घंटा भी कम से कम समय दीजिए. आप कितना भी व्यस्त हों, इतना समय तो अवश्य निकाल सकते हैं. यदि आपके पास स्कूल में जाकर पढ़ाने की अनुमति नहीं है, तो किसी अन्य सार्वजनिक स्थान या अपने घर पर ही पढ़ाइए. समय का सदुपयोग होगा, समाज का विकास होगा व आपको ईश्वर से साक्षात्कार का संतोष होगा. सब पढ़ाएं, सब बढ़ें, सब पढ़ें.
(लेखक भूपू प्रोफेसर, आइआइटी, मद्रास एवं
विशिष्ट प्रोफेसर, जीएलए विवि, मथुरा हैं)
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पढ़िए अंतिम कड़ी. इतनी प्रगति मुख्यत: स्वयंसेवक शिक्षकों के उत्साह से ही हुई है. वे नित्य कक्षा आरंभ होने से कम से कम 15 मिनट पहले आते हैं तथा कक्षाओं की समाप्ति के बाद बच्चों को विदा करके ही 15 मिनट बाद स्कूल से चलते हैं. इस सारे काम के लिए इन स्वयंसेवक शिक्षकों को 100 रुपये प्रति दिन की पढ़ाई के लिए मानदेय के रूप में दिया जाता है. शिक्षकों ने पढ़ाई के साथ-साथ सफाई और घर पर पढ़ाई पर भी बल दिया है. इन स्कूलों के स्थायी शिक्षकों को साथ लेकर ये स्वयंसेवक शिक्षक इन बच्चों के घर गये उनके माता-पिता से मिले उन्हें स्कूल आकर मिलने का निमंत्रण भी दिया. पूछे जाने पर कई बच्चों ने कहा था कि उनके पास सिर्फ एक ही पैंट कमीज या स्कर्ट कमीज है. ज्ञातव्य है कि राज्य सरकार इन बच्चों के अभिवावकों को दो सेट यूनिफॉर्म के पैसे देती है.
स्वयंसेवकों ने बल दिया कि जितनी भी कमीजें हो वे साफ हों, यथासंभव बच्चे घर पर भी अच्छी भाषा सुनें, घर पर भी पढ़ें तथा साफ कपड़ों में मुंह धोकर नाखून एवं दांत साफकर नहाकर बाल बड़े हो तो उन्हें बांध कर स्कूल आएं. इन प्रयासों का प्रभाव हुआ है और यह पाया गया कि साफ सुथरे बच्चे अच्छा पढ़ भी रहे हैं. प्राय: इन परिवारों में यह चेतना आयी है कि बिना पूरे परिवार की सहायता के ये बच्चे शिक्षा प्राप्त करने में एवं जीवन में सफल नहीं हो पायेंगे. परंतु अभी भी अनेक अन्य परिवार में ऐसी चेतना नहीं आयी है.
फिर भी सामान्य रूप से क्षीण ही सही एक चेतना पूरे ग्रामीण परिवेश में आयी है कि शिक्षा से अधिक सबल गारंटी सुखद भविष्य के लिए कुछ और नहीं है.
जैसा कि आजकल फैशन हो गया है गांव के इन परिवारों से भी विशेषत: वैसे परिवारों से जिनके पास जरा भी अतिरिक्त पैसे हैं बच्चे अब इंग्लिश मीडियम स्कूलों या तथाकथित ‘पब्लिक स्कूलों’ में भी जाते हैं अौर एक हजार रुपया अधिक प्रतिमाह फीस देते हैं. इन निजी विद्यालयों में कक्षाएं नियमित होती हैं, परंतु अन्य अर्थों में ये इंग्लिश मीडियम पब्लिक स्कूल सरकारी स्कूलों से कुछ खास अच्छे नहीं हैं.
जो अतिरिक्त पैसे ये फीस पर खर्चते हैं, उन्हें यदि घर पर बालोपयोगी पुस्तकें कुर्सी-मेज प्रकाश एवं पढ़ने-खेलने की सुविधा में लगाये जायें तो परिणाम कहीं अधिक सुखद होंगे. परंतु, सरकारी स्कूलों की अव्यवस्था एवं इंग्लिश मीडियम स्कूलों की बहुप्रचारित छवि अभी निकट भविष्य में तो ऐसा होने नहीं देगी. परंतु TNPL की सहायता से चलायी जा रही इस परियोजना के अंतर्गत कुछ ऐसा ही करने की कोशिश हो रही है.
इसलिए छ: अप्रैल की शाम को जब विद्यालय प्रांगण में इन बच्चों को मंच देने के लिए एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया, तो अच्छी संख्या में लोग इसे देखने उपस्थित हुए. 90 मिनट के रंगारंग कार्यक्रम दर्शकों ने शांत होकर देखा. लोग यह विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे कि अभी जिन बच्चों ने सरस्वती वंदना की थी या ‘राधा तेरी चुनरी’ पर नृत्य प्रस्तुत किया था, वही बच्चे थे. कल तक जिनकी नाक बहती रहती थी, बाल बिखरे रहते थे, कमीज गंदी एवं फटी और अधखुली होती थी और जो मुख्यत: मध्याह्न भोजन के लिए ही स्कूल आते थे.
अब इनमें से अधिकांश बच्चों को मध्याह्न भोजन के बाद के विशेष क्लास के लिए कहकर रोकना नहीं पड़ता है. वे स्वयं हाथ-मुंह धोकर बाल बांधकर फिर कक्षा में आ जाते हैं. TNPL द्वारा दिये गये लैपटॉप पर चल रहे संगीत पर कदम व सुर मिलाकर नाचते गाते दलित परिवारों के ये बच्चे जैसे कह रहे थे कि हमें आरक्षण की भीख मत दो. हमें स्तर की शिक्षा की सुविधा एवं अवसर का अधिकार दो, फिर हम दिखाते हैं कि कोयले की खदानों से हीरे कैसे निकलते हैं या गुदड़ी में लाल कैसे पैदा होते हैं एवं कितनी बड़ी संख्या में पैदा होते हैं.
गांधी जी ने कहा था- आवश्यकता एक सांस्कृतिक क्रांति की है. पूर्ण स्वराज की है. हिंद स्वराज की है. और अपना राज अच्छा राज होने के लिए अपने प्रयास एवं अच्छे प्रयास की आवश्यकता है.
इस परियोजना के शुरू होने के बाद गांव के कई युवक युवती स्वयंसेवक बनने स्कूल तक आये हैं. परंतु परियोजना में इतने पैसे नहीं हैं कि सभी इच्छुक युवा इसमें शामिल किये जा सकें. पिण्डारूच पंचायत में स्थित अन्य विद्यालयों से भी ऐसी ही कक्षाएं चलाने के अनुरोध प्राप्त हुए हैं. परंतु परियोजना की वित्तीय एवं व्यावहारिक सीमा है और अचानक उन सीमाओं को तोड़ना भी संभव नहीं है. अन्य रास्ते भी निकालने होंगे. करना अभी बहुत कुछ है. इन स्कूलों में आज भी शिक्षकों तथा लड़के लड़कियों के लिये अलग-अलग शौचालय नहीं हैं. बेंच-डेस्क नहींं हैं बिजली और इससे प्राप्त होने वाली सुविधाएं नहीं हैं.
इंटरनेट की तो अभी तक चर्चा भी नहीं है. खेल के नाम पर दौड़नेे भर को खुली जगह है, और कुछ नहीं. यहां ‘पौष्टिक मध्याह्न भोजन’ की अंजुली भर दाल में नमक हल्दी के अतिरिक्त दाल के सिर्फ तीन ही दाने होते हैं. पुस्तकालय के नाम पर पंचायत के 12 स्कूलों में से एक में पांचजन्य ट्रस्ट से मिली एक बुकशेल्फ में तीन-चार सौ किताबें भर हैं. यह स्थिति शीघ्र एवं अवश्य बदलनी चाहिये. केवल सरकार इसे नहीं बदल पायेगी.
बहुत कुछ बदला है. चेतना बदली है. अब दलित समाज भी अपने बच्चों का नाम बुधना, सेनियां, मंगरी, रेवणी नहीं, रखकर राजेश, राकेश, रेणु और रंजना रखता है. परंतु इसके साथ ही शादी-ब्याह, श्राद्ध, त्यौहार आदि अवसरों पर अनावश्यक व्यय एवं अपव्यय तथा रूढ़िवादिता का फैशन भी आ गया है. यह स्थिति अवश्य एवं शीघ्र बदलनी चाहिये. हम सिंगापुर को देखें.
वहां किसी के लिए आरक्षण नहीं है. परंतु हर अभिभावक के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया है कि उनके बच्चे स्कूल जायें. और इन स्कूलों में किसी सुविधा या अवसर की कमी नहीं है. वहां किसी भी बच्चे को अन्य स्कूलों में जाने की आवश्यकता नहीं है. सिंगापुर शिक्षा पर सर्वाधिक पैसे खर्चता है. 1961 में आजाद हुआ एक शहर का यह देश आज विश्व के धनी एवं विकसित देशों में गिना जाता है. भारत रूस, फ्रांस जैसे देशों को भी कर्ज देता है.
हमारी सरकार इतना नहीं कर पायेगी. साधन की कमी है. राजनैतिक इच्छाशक्ति की ज्यादा कमी है. परंतु छोटे स्तर पर हम स्वयं ऐसा कर सकते हैं. यदि हर गांव उत्सव-रीति रिवाज में होने वाले व्यय का एक प्रतिशत भी स्कूलों के नाम पर अलग कर दें तो अकेले मेरे गांव में हर वर्ष 1.25 लाख रुपये अतिरिक्त व्यय के लिए इन स्कूलों को प्राप्त हो जायेंगे. ठीक इसी प्रकार से अतिरिक्त शिक्षकों की कमी पूरी की जा सकती है.
यदि आप शिक्षित हैं या साक्षर भी हैं तो अपने पास पड़ोस के बच्चों को दिन में एक घंटा भी कम से कम समय दीजिए. आप कितना भी व्यस्त हों, इतना समय तो अवश्य निकाल सकते हैं. यदि आपके पास स्कूल में जाकर पढ़ाने की अनुमति नहीं है, तो किसी अन्य सार्वजनिक स्थान या अपने घर पर ही पढ़ाइए. समय का सदुपयोग होगा, समाज का विकास होगा व आपको ईश्वर से साक्षात्कार का संतोष होगा. सब पढ़ाएं, सब बढ़ें, सब पढ़ें.
(लेखक भूपू प्रोफेसर, आइआइटी, मद्रास एवं
विशिष्ट प्रोफेसर, जीएलए विवि, मथुरा हैं)
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