राज्यसभा ने ज्यों ही मैटरनिटी लीव 12 से बढ़ाकर 26 हफ्ते करने का बिल पारित किया, मीडिया में बहस छिड़ गई कि इस कानून की वजह से नियोक्ता महिलाओं को नौकरी पर रखने से हिचकिचाएंगे। बिल में कीड़े खोजने वाली जमात भूल जाती है कि देश में महिला श्रमिकों की संख्या तेजी से घटी है।
अन्य देशों में विकास दर में वृद्धि के साथ-साथ कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ती है, जबकि हिंदुस्तान में इसका उलटा हुआ है। नैशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) की ताजा रिपोर्ट इस तथ्य की तस्दीक करती है। वह बताती है कि 2004-05 से 2011-12 के बीच कामकाजी महिलाओं की संख्या सात फीसदी गिरी है।
संशोधित ‘मैटरनिटी बेनिफिट बिल- 2016’ को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के मार्ग का अड़ंगा बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इससे श्रम आधारित उद्योगों में ‘वेज कॉस्ट’ बढ़ जाएगी, जिसका नौकरियों और निर्यात पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। आज हमारे जैसे सभी देशों में मातृत्व अवकाश की अवधि कहीं कम है। मां बनने पर महिलाओं को चीन में 14 सप्ताह, मलयेशिया और फिलीपींस में 8.5 सप्ताह, पाकिस्तान, श्रीलंका और मैक्सिको में 12 सप्ताह की छुट्टी मिलती है। अधिकांश विकसित देश भी 26 हफ्ते का अवकाश तो नहीं देते। लेकिन इस सिक्के का दूसरा पहलू भी है।
उद्योगपतियों की संस्था असोचैम के एक सर्वेक्षण के अनुसार आज एक चौथाई कामकाजी महिलाएं मां बनने के बाद नौकरी छोड़ देती हैं। हल्ला मचाने वाले लोग भी जानते हैं कि प्रस्तावित कानून का लाभ संगठित क्षेत्र में काम करने वाली मात्र 18 लाख औरतों को मिलेगा। असंगठित क्षेत्र में कार्यरत करोड़ों औरतों की स्थिति जस की तस रहेगी। भारत में ज्यादातर महिलाएं असंगठित, अकुशल और अर्द्धकुशल क्षेत्र में काम करती हैं, जहां वेतन बहुत कम है और सुविधाएं नाममात्र की हैं। वहां नौकरी बनी रहने की भी कोई गारंटी नहीं होती। देश के मात्र दस प्रतिशत कर्मचारी संगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं, जिनमें महिला श्रमिकों का हिस्सा केवल 24 प्रतिशत है, जबकि दुनिया में महिला कामगारों का औसत 40 फीसदी का है।
प्रस्तावित मैटरनिटी बेनिफिट बिल के अनुसार न केवल अपने बच्चों को जन्म देने वाली मांओं को छह महीने की छुट्टी मिलेगी, बल्कि बच्चा गोद लेने वाली तथा कोख किराये पर देने वाली मांओं को भी तीन माह का अवकाश दिया जाएगा। नया कानून बन जाने के बाद भारत उन 42 देशों में शामिल हो जाएगा, जहां मातृत्व अवकाश 18 सप्ताह से ज्यादा का है। फिलहाल सर्वाधिक 50 सप्ताह का अवकाश कनाडा में मिलता है। दूसरे स्थान पर नॉर्वे है जहां मां बनने पर महिला को 44 हफ्ते की सवेतन छुट्टी मिलती है। नया कानून बन जाने पर ब्रिटेन (20 सप्ताह), स्पेन (16 सप्ताह) और फ्रांस (16 सप्ताह) जैसे विकसित देश भी हमसे पीछे हो जाएंगे।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार मां बनने पर हर महिला को कम से कम 14 सप्ताह की छुट्टी मिलनी चाहिए। लोकसभा में पारित होने के बाद जब मैटरनिटी बेनिफिट बिल कानून की शक्ल ले लेगा, तब छुट्टी के साथ-साथ महिला को तीन हजार रुपये का बोनस भी मिलेगा। कार्यस्थल पर क्रेच की सुविधा जरूरी होगी। ड्यूटी के दौरान मां को कम से कम चार बार बच्चे से मिलने की सुविधा भी मिलेगी। एक बात और, 26 सप्ताह के मातृत्व अवकाश की सुविधा केवल दो बच्चों तक सीमित होगी। दो से अधिक बच्चे होने पर सवेतन अवकाश की अवधि 12 सप्ताह ही रहेगी।
मातृत्व अवकाश औरतों पर मेहरबानी नहीं, उनका अधिकार है। शिशु के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए उसकी भलीभांति देखभाल जरूरी है। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि पैदा होने के छह महीने के भीतर बच्चे का मस्तिष्क तेजी से विकसित होता है। इस अवधि में उसकी उपेक्षा का असर पूरी जिंदगी रहता है। इसलिए कानून बनाना ही काफी नहीं है, सरकार को उस पर अमल भी सुनिश्चित करना होगा। मातृत्व अवकाश कानून के बावजूद अनेक संस्थानों में महिलाओं को गर्भवती होने पर छुट्टी नहीं दी जाती, जिस कारण उन्हें अक्सर नौकरी छोड़नी पड़ती है। अपने अधिकार के लिए कई बार वे अदालत का दरवाजा भी खटखटाती हैं।
अवकाश का दायरा
मातृत्व अवकाश यदि महिला के साथ-साथ पुरुष कर्मचारी को भी दिया जाए और बच्चा पालने का बोझ भी बराबर-बराबर बांट दिया जाए, तो निश्चय ही लिंग आधारित भेदभाव कम होगा। इसके साथ ही महिला कर्मचारियों को लेकर फैलाई जा रही भ्रांतियां भी छंट जाएंगी। इससे भी ज्यादा जरूरी है मातृत्व अवकाश सुविधा का असंगठित क्षेत्र में भी विस्तार करना। जब तक खेत-खलिहानों, दुकानों और घरों में खट रही करोड़ों महिलाओं को मातृत्व अवकाश की सुविधा नहीं मिलेगी, तब तक मातृ और शिशु मृत्यु दर में कमी आना संभव नहीं है।
-द्वारा लेखिका सुषमा वर्मा
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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अन्य देशों में विकास दर में वृद्धि के साथ-साथ कामकाजी महिलाओं की संख्या बढ़ती है, जबकि हिंदुस्तान में इसका उलटा हुआ है। नैशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) की ताजा रिपोर्ट इस तथ्य की तस्दीक करती है। वह बताती है कि 2004-05 से 2011-12 के बीच कामकाजी महिलाओं की संख्या सात फीसदी गिरी है।
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संशोधित ‘मैटरनिटी बेनिफिट बिल- 2016’ को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘मेक इन इंडिया’ अभियान के मार्ग का अड़ंगा बताया जा रहा है। कहा जा रहा है कि इससे श्रम आधारित उद्योगों में ‘वेज कॉस्ट’ बढ़ जाएगी, जिसका नौकरियों और निर्यात पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। आज हमारे जैसे सभी देशों में मातृत्व अवकाश की अवधि कहीं कम है। मां बनने पर महिलाओं को चीन में 14 सप्ताह, मलयेशिया और फिलीपींस में 8.5 सप्ताह, पाकिस्तान, श्रीलंका और मैक्सिको में 12 सप्ताह की छुट्टी मिलती है। अधिकांश विकसित देश भी 26 हफ्ते का अवकाश तो नहीं देते। लेकिन इस सिक्के का दूसरा पहलू भी है।
उद्योगपतियों की संस्था असोचैम के एक सर्वेक्षण के अनुसार आज एक चौथाई कामकाजी महिलाएं मां बनने के बाद नौकरी छोड़ देती हैं। हल्ला मचाने वाले लोग भी जानते हैं कि प्रस्तावित कानून का लाभ संगठित क्षेत्र में काम करने वाली मात्र 18 लाख औरतों को मिलेगा। असंगठित क्षेत्र में कार्यरत करोड़ों औरतों की स्थिति जस की तस रहेगी। भारत में ज्यादातर महिलाएं असंगठित, अकुशल और अर्द्धकुशल क्षेत्र में काम करती हैं, जहां वेतन बहुत कम है और सुविधाएं नाममात्र की हैं। वहां नौकरी बनी रहने की भी कोई गारंटी नहीं होती। देश के मात्र दस प्रतिशत कर्मचारी संगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं, जिनमें महिला श्रमिकों का हिस्सा केवल 24 प्रतिशत है, जबकि दुनिया में महिला कामगारों का औसत 40 फीसदी का है।
प्रस्तावित मैटरनिटी बेनिफिट बिल के अनुसार न केवल अपने बच्चों को जन्म देने वाली मांओं को छह महीने की छुट्टी मिलेगी, बल्कि बच्चा गोद लेने वाली तथा कोख किराये पर देने वाली मांओं को भी तीन माह का अवकाश दिया जाएगा। नया कानून बन जाने के बाद भारत उन 42 देशों में शामिल हो जाएगा, जहां मातृत्व अवकाश 18 सप्ताह से ज्यादा का है। फिलहाल सर्वाधिक 50 सप्ताह का अवकाश कनाडा में मिलता है। दूसरे स्थान पर नॉर्वे है जहां मां बनने पर महिला को 44 हफ्ते की सवेतन छुट्टी मिलती है। नया कानून बन जाने पर ब्रिटेन (20 सप्ताह), स्पेन (16 सप्ताह) और फ्रांस (16 सप्ताह) जैसे विकसित देश भी हमसे पीछे हो जाएंगे।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार मां बनने पर हर महिला को कम से कम 14 सप्ताह की छुट्टी मिलनी चाहिए। लोकसभा में पारित होने के बाद जब मैटरनिटी बेनिफिट बिल कानून की शक्ल ले लेगा, तब छुट्टी के साथ-साथ महिला को तीन हजार रुपये का बोनस भी मिलेगा। कार्यस्थल पर क्रेच की सुविधा जरूरी होगी। ड्यूटी के दौरान मां को कम से कम चार बार बच्चे से मिलने की सुविधा भी मिलेगी। एक बात और, 26 सप्ताह के मातृत्व अवकाश की सुविधा केवल दो बच्चों तक सीमित होगी। दो से अधिक बच्चे होने पर सवेतन अवकाश की अवधि 12 सप्ताह ही रहेगी।
मातृत्व अवकाश औरतों पर मेहरबानी नहीं, उनका अधिकार है। शिशु के शारीरिक और मानसिक विकास के लिए उसकी भलीभांति देखभाल जरूरी है। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि पैदा होने के छह महीने के भीतर बच्चे का मस्तिष्क तेजी से विकसित होता है। इस अवधि में उसकी उपेक्षा का असर पूरी जिंदगी रहता है। इसलिए कानून बनाना ही काफी नहीं है, सरकार को उस पर अमल भी सुनिश्चित करना होगा। मातृत्व अवकाश कानून के बावजूद अनेक संस्थानों में महिलाओं को गर्भवती होने पर छुट्टी नहीं दी जाती, जिस कारण उन्हें अक्सर नौकरी छोड़नी पड़ती है। अपने अधिकार के लिए कई बार वे अदालत का दरवाजा भी खटखटाती हैं।
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अवकाश का दायरा
मातृत्व अवकाश यदि महिला के साथ-साथ पुरुष कर्मचारी को भी दिया जाए और बच्चा पालने का बोझ भी बराबर-बराबर बांट दिया जाए, तो निश्चय ही लिंग आधारित भेदभाव कम होगा। इसके साथ ही महिला कर्मचारियों को लेकर फैलाई जा रही भ्रांतियां भी छंट जाएंगी। इससे भी ज्यादा जरूरी है मातृत्व अवकाश सुविधा का असंगठित क्षेत्र में भी विस्तार करना। जब तक खेत-खलिहानों, दुकानों और घरों में खट रही करोड़ों महिलाओं को मातृत्व अवकाश की सुविधा नहीं मिलेगी, तब तक मातृ और शिशु मृत्यु दर में कमी आना संभव नहीं है।
-द्वारा लेखिका सुषमा वर्मा
(लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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