उच्च शिक्षा की साख, सम-सामयिक राष्ट्रीय संदर्भिता तथा अंतरराष्ट्रीय स्वीकार्यता इस समय असमंजस की स्थिति में है। हमारे पास श्रेष्ठ स्तर के संस्थान हैं, भले ही वे विदेशी संस्थाओं द्वारा किये गए सर्वेक्षणों में महत्वपूर्ण स्थान न पाते हों।
युवाओं का भाग्यविधाता भी होगा। 1यदि दशकों तक देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 40-50 प्रतिशत पद रिक्त रहें तो गुणवत्ता सुधार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? निजी विश्वविद्यालय और महाविद्यालय यदि सही ढंग से कार्य कर रहे होते तो इंजीनियरिंग तथा प्रबंधन के सैकड़ों संस्थान हर साल बंद न हो रहे होते। देश में तैयार तकनीकी तथा प्रबंधन के स्नातकों में बीस प्रतिशत से कम योग्य पाए जाते हैं ! जो योग्य नहीं पाए जाते हैं उनका भविष्य बर्बाद करने के लिए कौन जिम्मेवार है? राज्य सरकारें नए विश्वविद्यालय खोल देती हैं मगर बाद में वे लगभग दयनीय स्थिति में अपना अस्तित्व बनाए रखने को बाध्य हो जाते हैं। उन भाग्यशाली बीस अंतरराष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालयों में इन महाविद्यालयों तथा भारत के स्कूलों से शिक्षा प्राप्त करके ही तो युवा आयेंगे और जिस स्तर की गुणवत्ता उन्हें वहां मिली होगी वही यहां की गुणवत्ता और साख तय करेगी। पांच दशकों के व्यतिगत अनुभव के आधार पर यह कहने का साहस किया जा सकता है कि इस देश में केवल 30-35 प्रतिशत बच्चों को ही स्वीकार्य स्तर की स्कूल शिक्षा मिल पाती है। यह सर्व-स्वीकार्य तथ्य है कि जब तक स्कूलों में अपेक्षित और उचित गुणवत्ता वाली शिक्षा का प्रतिशत 70-80 के आस-पास नहीं लाया जाएगा, उच्च शिक्षा में गुणवत्ता सुधार आधा-अधूरा ही संभव होगा। देश का लक्ष्य केवल बीस विश्वविद्यालयों के सुधार तक सीमित रखकर नहीं देखा जा सकता है। स्कूलों में नकल, विज्ञान में बिना प्रयोग किये ही हजारों/लाखों विद्यार्थियों का बोर्ड परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाना अब कोई व्यवस्था में किसी को प्रभावित नहीं करता है। कोई देश अपनी युवा-शक्ति से ऐसे खिलवाड़ शायद ही करता होगा! कुछ दिन पहले यह आंकड़े आये हैं कि देश में करीब पंद्रह लाख स्कूल अध्यापक अप्रशिक्षित हैं, जिन्हें अब ऑनलाइन प्रशिक्षण दिया जाएगा। शिक्षा में हर स्तर पर गुणवत्ता का मूल आधार शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता से निर्धारित होता है। ऐसे 92फीसद संस्थान निजी हाथों में जा चुके हैं और वहां क्या होता है यह सभी जानते हैं। राज्य सरकारों नें अपने शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया है। कई राज्यों में तो नियमित नियुक्तियां तथा पदोन्नति पिछले तीन-चार दशकों से बंद है! प्रतिनियुक्ति पर जो दौड़-धूप कर नियुक्ति करा ले, वही सरकारों का प्रिय बना रहता है। इस पर त्वरित पुनर्विचार आवश्यक है। राज्य सरकारें स्कूलों तथा अपने द्वारा स्थापित विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों के प्रति अपनी जिम्मेवारी निभाएं, केंद्र सरकार नियामक संस्थाओं को दूर रखे तथा धन के साथ योग्य विद्वानों को ढूंढे और उन पर विश्वास करे तो गुणवत्ता सुधार में यह बीस विश्वविद्यालय पहली कड़ी बन सकते हैं।
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युवाओं का भाग्यविधाता भी होगा। 1यदि दशकों तक देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों में 40-50 प्रतिशत पद रिक्त रहें तो गुणवत्ता सुधार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है? निजी विश्वविद्यालय और महाविद्यालय यदि सही ढंग से कार्य कर रहे होते तो इंजीनियरिंग तथा प्रबंधन के सैकड़ों संस्थान हर साल बंद न हो रहे होते। देश में तैयार तकनीकी तथा प्रबंधन के स्नातकों में बीस प्रतिशत से कम योग्य पाए जाते हैं ! जो योग्य नहीं पाए जाते हैं उनका भविष्य बर्बाद करने के लिए कौन जिम्मेवार है? राज्य सरकारें नए विश्वविद्यालय खोल देती हैं मगर बाद में वे लगभग दयनीय स्थिति में अपना अस्तित्व बनाए रखने को बाध्य हो जाते हैं। उन भाग्यशाली बीस अंतरराष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालयों में इन महाविद्यालयों तथा भारत के स्कूलों से शिक्षा प्राप्त करके ही तो युवा आयेंगे और जिस स्तर की गुणवत्ता उन्हें वहां मिली होगी वही यहां की गुणवत्ता और साख तय करेगी। पांच दशकों के व्यतिगत अनुभव के आधार पर यह कहने का साहस किया जा सकता है कि इस देश में केवल 30-35 प्रतिशत बच्चों को ही स्वीकार्य स्तर की स्कूल शिक्षा मिल पाती है। यह सर्व-स्वीकार्य तथ्य है कि जब तक स्कूलों में अपेक्षित और उचित गुणवत्ता वाली शिक्षा का प्रतिशत 70-80 के आस-पास नहीं लाया जाएगा, उच्च शिक्षा में गुणवत्ता सुधार आधा-अधूरा ही संभव होगा। देश का लक्ष्य केवल बीस विश्वविद्यालयों के सुधार तक सीमित रखकर नहीं देखा जा सकता है। स्कूलों में नकल, विज्ञान में बिना प्रयोग किये ही हजारों/लाखों विद्यार्थियों का बोर्ड परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाना अब कोई व्यवस्था में किसी को प्रभावित नहीं करता है। कोई देश अपनी युवा-शक्ति से ऐसे खिलवाड़ शायद ही करता होगा! कुछ दिन पहले यह आंकड़े आये हैं कि देश में करीब पंद्रह लाख स्कूल अध्यापक अप्रशिक्षित हैं, जिन्हें अब ऑनलाइन प्रशिक्षण दिया जाएगा। शिक्षा में हर स्तर पर गुणवत्ता का मूल आधार शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों की गुणवत्ता से निर्धारित होता है। ऐसे 92फीसद संस्थान निजी हाथों में जा चुके हैं और वहां क्या होता है यह सभी जानते हैं। राज्य सरकारों नें अपने शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों से पूरी तरह मुंह मोड़ लिया है। कई राज्यों में तो नियमित नियुक्तियां तथा पदोन्नति पिछले तीन-चार दशकों से बंद है! प्रतिनियुक्ति पर जो दौड़-धूप कर नियुक्ति करा ले, वही सरकारों का प्रिय बना रहता है। इस पर त्वरित पुनर्विचार आवश्यक है। राज्य सरकारें स्कूलों तथा अपने द्वारा स्थापित विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों के प्रति अपनी जिम्मेवारी निभाएं, केंद्र सरकार नियामक संस्थाओं को दूर रखे तथा धन के साथ योग्य विद्वानों को ढूंढे और उन पर विश्वास करे तो गुणवत्ता सुधार में यह बीस विश्वविद्यालय पहली कड़ी बन सकते हैं।
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