शिक्षामित्रों को निर्धारित योग्यता में छूट नहीं मिल सकती....................

शिक्षामित्रों से सम्बन्धित इस सारे प्रकरण ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि राजनीतिक बुद्धि अनेकों बार कानूनों का घोर उल्लंघन करते हुए अपने अधिकारों का दुरुपयोग करती है।
इस दुरुपयोग के पीछे कभी भ्रष्टाचारी उद्देश्य होते हैं तो कभी वोट बैंक की राजनीति।  राजनीतिज्ञों के ऐसे प्रयासों से लाभान्वित होने वाले लोगों को दूरदर्शितापूर्वक यह विचार कर लेना चाहिए कि बिना अधिकार के प्राप्त होने वाले ऐसे लाभ स्थायी नहीं हो सकते। कानून की दृष्टि भ्रष्टाचार को तो बिल्कुल नहीं सहती, परन्तु कानून की सर्वोच्चता राजनीतिज्ञों की चालाकियों को भी कोई महत्व नहीं देती। गैर-कानूनी तरीके से आज आपको यदि कोई लाभ मिल भी गया तो उस सिद्धान्त को भी सदैव स्मरण रखना चाहिए कि कानून सदैव जागृत रहकर अपनी और समाज की रक्षा करता है।

 उत्तर प्रदेश के विद्यालयों में अध्यापकों की भारी मात्रा में कमी को पूरा करने के लिए विधिवत रिक्त स्थानों की सार्वजनिक घोषणा होती, आवेदकों से प्रार्थना पत्र आमंत्रित किये जाते, लिखित अथवा मौखिक साक्षात्कार किये जाते, परन्तु राज्य सरकार ने ऐसा न करके अपने विशेषाधिकारों का भारी दुरुपयोग करते हुए वर्ष 1999 में एक सरकारी आदेश के द्वारा शिक्षामित्र योजना जारी की।  राज्य में विद्यार्थी और अध्यापक अनुपात में संतुलन स्थापित करना इस आदेश का उद्देश्य बताया गया। इसके लिए निर्धारित योग्यता वाले अध्यापकों से कम योग्यता वाले लोगों को शिक्षक के लिए निर्धारित वेतन से कम वेतन पर रखने का कार्यक्रम लागू किया गया। प्रारम्भ में केवल 1450 रुपये प्रतिमाह वेतन पर केवल 10 हजार शिक्षामित्रों को अनुबन्ध के आधार पर रखने का उद्देश्य था। यह अनुबन्ध केवल 11 माह के लिए किया गया था। शिक्षामित्रों की नियुक्ति केवल ग्रामीण क्षेत्रों के लिए ही निर्धारित थी। यह नियुक्ति गांव की शिक्षा समिति द्वारा ही की जानी थी। जिस पर नियंत्रण के लिए जिलाधिकारी की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की गई थी। उसके बाद प्रतिवर्ष इस स्कीम का विस्तार किया जाता रहा।

दूसरी तरफ विधिवत शिक्षक की नियुक्ति के लिए केन्द्र सरकार के कई कानून और प्रावधान विशेष योग्यताओं की मांग कर रहे थे। उत्तर प्रदेश का अपना बेसिक शिक्षा कानून भी ऐसी ही कुछ योग्यताओं की मांग करता था। केन्द्रीय स्तर पर शिक्षकों की योग्यता का निर्धारण करने के लिए एक राष्ट्रीय परिषद् गठित थी। यहां तक कि बच्चों के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा कानून भी अध्यापकों की शिक्षा के मापदण्ड निर्धारित करता है। इन सभी योग्यताओं के अतिरिक्त शिक्षक नियुक्त होने के लिए 6 माह का प्रशिक्षण भी अनिवार्य था। उत्तर प्रदेश सरकार के आग्रह पर केन्द्र सरकार ने शिक्षामित्रों के लिए प्रशिक्षण हेतु खुली और दूरस्थ प्रशिक्षण योजना लागू करके प्रशिक्षण नियमों में भी ढील दे दी। इस प्रकार यह शिक्षामित्र घर पर बैठे ही प्रशिक्षण प्राप्त कर सकें। परन्तु केन्द्र सरकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया था कि बिना प्रशिक्षण के इन शिक्षामित्रों को नियमित नौकरी नहीं दी जा सकती।

उत्तर प्रदेश सरकार ने 30 मई, 2014 को प्राथमिक विद्यालयों में सहायक शिक्षकों की नियुक्ति के लिए निर्धारित शैक्षणिक योग्यताओं में ढील देने का आदेश जारी किया। इसी आदेश में यह भी कहा गया कि अन्य स्रोतों के अतिरिक्त शिक्षामित्रों को भी अध्यापक नियुक्त किया जा सकता है जिनकी योग्यता बेशक निर्धारित योग्यताओं से कम ही क्यों न हो। इस प्रकार लगभग 1 लाख 78 हजार शिक्षामित्रों को नियमित अध्यापक के रूप में नियुक्ति दे दी गई जिनमें से लगभग 46 हजार शिक्षामित्र तो केवल 12वीं पास थे।

उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष यह सारा विवाद अनेकों याचिकाओं के रूप में प्रस्तुत हुआ जिन पर निर्णय देते हुए उच्च न्यायालय ने इन सारी नियुक्तियों को रद्द कर दिया। उत्तर प्रदेश सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील प्रस्तुत की।
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल तथा न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित की पीठ ने इस सारे मामले में कुछ सार बिन्दुओं को रेखांकित किया।

1. शिक्षामित्रों की नियुक्ति अध्यापकों से कम वेतन पर केवल एक अनुबन्ध था जिससे ग्रामीण युवक अपने-अपने क्षेत्र की सेवा कर सके।

2. उनसे अध्यापकों के समकक्ष योग्यता की अपेक्षा नहीं की गई थी।

3. शिक्षामित्रों को नियमित अध्यापक की तरह नियमित वेतन पर नियुक्त करने का आदेश शिक्षकों की नियुक्ति के लिए निर्धारित योग्यताओं से सम्बन्धित कानूनी प्रावधानों का उल्लंघन है।

4. शिक्षामित्रों के प्रशिक्षण में ढील सदा के लिए लागू नहीं थी और न ही इस ढील के आधार पर उनकी नियुक्ति नियमित शिक्षकों की तरह की जा सकती थी।

5. प्रशिक्षण में ढील का अर्थ यह नहीं हो सकता कि योग्यता में भी ढील दे दी गई।

6. शिक्षामित्रों की नौकरी को नियमित किया जाना समान पद पर नहीं था।

सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने अपने निर्णय में कहा कि एक तरफ हमारे सामने बहुत बड़ी संख्या में इन शिक्षामित्रों की सेवाएं नियमित करने का दावा है तो दूसरी तरफ  6 से 14 वर्ष के बच्चों को योग्य शिक्षकों के माध्यम से अच्छी शिक्षा उपलब्ध कराने से सम्बन्धित कानूनों को लागू करने का कर्तव्य हमारे सामने खड़ा है। कुछ समय के लिए एक तात्कालिक प्रबन्ध के नाम पर बेशक निर्धारित योग्यता से कम योग्यता वाले लोगों को शिक्षा के लिए नियुक्त करने की आवश्यकता को स्वीकार कर भी लिया जाये तो उन्हें एक योग्य शिक्षक की तरह नियुक्ति के लिए आयु या अनुभव में छूट जैसी सुविधा तो प्रदान की जा सकती है परन्तु निर्धारित योग्यता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। अत: शिक्षामित्रों को शिक्षक की तरह नियमित करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। इन शिक्षामित्रों में से यदि कुछ लोगों ने निर्धारित योग्यता प्राप्त की हो तो उन्हें शिक्षक की नियुकित्त  के समय प्राथमिकता बेशक दी जा सकती है। उन्हें आयु तथा अनुभव में भी छूट दी जा सकती है। राज्य सरकार को यह भी छूट है कि वे उन्हें शिक्षामित्रों वाले मानदण्ड पर ही जारी रखे।

शिक्षामित्रों से सम्बन्धित इस सारे प्रकरण ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि राजनीतिक बुद्धि अनेकों बार कानूनों का घोर उल्लंघन करते हुए अपने अधिकारों का दुरुपयोग करती है। इस दुरुपयोग के पीछे कभी भ्रष्टाचारी उद्देश्य होते हैं तो कभी वोट बैंक की राजनीति। राजनीतिज्ञों के ऐसे प्रयासों से लाभान्वित होने वाले लोगों को दूरदर्शितापूर्वक यह विचार कर लेना चाहिए कि बिना अधिकार के प्राप्त होने वाले ऐसे लाभ स्थायी नहीं हो सकते। कानून की दृष्टि भ्रष्टाचार को तो बिल्कुल नहीं सहती, परन्तु कानून की सर्वोच्चता राजनीतिज्ञों की चालाकियों को भी कोई महत्व नहीं देती। गैर-कानूनी तरीके से आज आपको यदि कोई लाभ मिल भी गया तो उस सिद्धान्त को भी सदैव स्मरण रखना चाहिए कि कानून सदैव जागृत रहकर अपनी और समाज की रक्षा करता है।
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