सरकारी शिक्षकों के बारे में देश में एक मिथ है कि उनमें से ज्यादातर
स्कूलों से गायब रहते हैं। पर सच्चई कुछ और है। असर 2014 के आकलन के
मुताबिक, 15 प्रतिशत शिक्षक अनुपस्थित पाए गए। और इसमें वे लोग भी शामिल
हैं, जो बाकायदा छुट्टी मंजूर कराकर गए या जिन्हें अन्य सरकारी कामों से
बाहर जाना पड़ा। बगैर मंजूरी के गैर-हाजिर शिक्षक करीब छह-आठ प्रतिशत हैं।
फिर भी लोगों के जेहन में शिक्षकों के स्कूल से गायब रहने का मिथ कायम है। अधिकतर लोगों के मुताबिक, पहला सुधार-कार्य प्रशासनिक सुधार का होना चाहिए, ताकि स्कूलों में ज्यादातर शिक्षक दिखें। मैं यह अंदाज लगा सकता हूं कि कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, अस्पतालों व सरकारी दफ्तरों में गैर- हाजिर कर्मियों की संख्या गायब शिक्षकों की संख्या से कहीं अधिक होगी। यही क्यों, विधानसभाओं और संसद से भी तुलना करके देख लें! दरअसल, स्कूली व्यवस्था ऐसी होती है कि उसमें एक दिन की अनुपस्थिति भी खलती है। न आने की आदत पूरी व्यवस्था में व्यवधान बनती है, क्योंकि ज्यादातर स्कूलों में तीन-चार शिक्षक ही होते हैं। विद्यालय निगरानी समितियों व स्थानीय समुदायों की जागरूकता के कारण भी शिक्षकों का लंबे समय तक गायब रहना मुश्किल है। असल में, गैर-हाजिरी अपनी गहरी सामाजिक-राजनीतिक जड़ों के साथ पूरे तंत्र का रोग है। हमें चीजें सुधारनी चाहिए, पर सिर्फ स्कूलों के संदर्भ में नहीं। वैसे, शिक्षा तंत्र में सुधार के लिए हमें कुछ जरूरी उपाय करने चाहिए। सबसे पहले हम शैक्षणिक सुशासन की प्राथमिकताओं की सूची बनाएं। इसमें पहला है, शिक्षकों की तैयारी व विकास का मुद्दा। इससे 16,000 शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों पर असर पड़ेगा। जाहिर है, इसका एक बड़ा हिस्सा अपने हितों के कारण इस कदम का विरोध करेगा। साफ है, इसके लिए ठोस राजनीतिक इरादा चाहिए। पिछले तीन वर्षो में एक शुरुआत तो हुई है, पर अभी लंबी दूरी तय करनी है। हमें शिक्षकों के निरंतर पेशेवर विकास के लिए भी तंत्र को फिर से बनाना होगा। दूसरा, शिक्षक भर्ती व तैनाती का मुद्दा। शिक्षकों की भर्ती राज्य लोकसेवा आयोग के साथ राज्य स्तर पर केंद्रीकृत होनी चाहिए। इसके लिए गहन मूल्यांकन प्रक्रिया हो। भर्ती विशेषकर जिलेवार या क्षेत्रवार होना चाहिए, ताकि शिक्षकों की कमी की समस्या खत्म हो। तीसरा, संगठनात्मक मुद्दा है। सर्व शिक्षा अभियान अभी राज्य सरकार के तंत्र के बराबरी में चल रहा है, जिसके सामने भवनों की कमी व कामकाजी रुकावटें हैं। सुचारु कामकाज के लिए दोनों को एकीकृत किया जाना चाहिए। इसके वित्तीय लाभ भी होंगे। कुछ राज्य दूसरे व तीसरे मुद्दे पर पहले ही कदम उठा चुके हैं। इनमें से हर मुद्दा जटिल लग सकता है। पर ये हमारे बड़े सुधारों की परिधि में नहीं है। लेकिन जिनको करने की जरूरत है, उनको किया जाना चाहिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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फिर भी लोगों के जेहन में शिक्षकों के स्कूल से गायब रहने का मिथ कायम है। अधिकतर लोगों के मुताबिक, पहला सुधार-कार्य प्रशासनिक सुधार का होना चाहिए, ताकि स्कूलों में ज्यादातर शिक्षक दिखें। मैं यह अंदाज लगा सकता हूं कि कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, अस्पतालों व सरकारी दफ्तरों में गैर- हाजिर कर्मियों की संख्या गायब शिक्षकों की संख्या से कहीं अधिक होगी। यही क्यों, विधानसभाओं और संसद से भी तुलना करके देख लें! दरअसल, स्कूली व्यवस्था ऐसी होती है कि उसमें एक दिन की अनुपस्थिति भी खलती है। न आने की आदत पूरी व्यवस्था में व्यवधान बनती है, क्योंकि ज्यादातर स्कूलों में तीन-चार शिक्षक ही होते हैं। विद्यालय निगरानी समितियों व स्थानीय समुदायों की जागरूकता के कारण भी शिक्षकों का लंबे समय तक गायब रहना मुश्किल है। असल में, गैर-हाजिरी अपनी गहरी सामाजिक-राजनीतिक जड़ों के साथ पूरे तंत्र का रोग है। हमें चीजें सुधारनी चाहिए, पर सिर्फ स्कूलों के संदर्भ में नहीं। वैसे, शिक्षा तंत्र में सुधार के लिए हमें कुछ जरूरी उपाय करने चाहिए। सबसे पहले हम शैक्षणिक सुशासन की प्राथमिकताओं की सूची बनाएं। इसमें पहला है, शिक्षकों की तैयारी व विकास का मुद्दा। इससे 16,000 शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों पर असर पड़ेगा। जाहिर है, इसका एक बड़ा हिस्सा अपने हितों के कारण इस कदम का विरोध करेगा। साफ है, इसके लिए ठोस राजनीतिक इरादा चाहिए। पिछले तीन वर्षो में एक शुरुआत तो हुई है, पर अभी लंबी दूरी तय करनी है। हमें शिक्षकों के निरंतर पेशेवर विकास के लिए भी तंत्र को फिर से बनाना होगा। दूसरा, शिक्षक भर्ती व तैनाती का मुद्दा। शिक्षकों की भर्ती राज्य लोकसेवा आयोग के साथ राज्य स्तर पर केंद्रीकृत होनी चाहिए। इसके लिए गहन मूल्यांकन प्रक्रिया हो। भर्ती विशेषकर जिलेवार या क्षेत्रवार होना चाहिए, ताकि शिक्षकों की कमी की समस्या खत्म हो। तीसरा, संगठनात्मक मुद्दा है। सर्व शिक्षा अभियान अभी राज्य सरकार के तंत्र के बराबरी में चल रहा है, जिसके सामने भवनों की कमी व कामकाजी रुकावटें हैं। सुचारु कामकाज के लिए दोनों को एकीकृत किया जाना चाहिए। इसके वित्तीय लाभ भी होंगे। कुछ राज्य दूसरे व तीसरे मुद्दे पर पहले ही कदम उठा चुके हैं। इनमें से हर मुद्दा जटिल लग सकता है। पर ये हमारे बड़े सुधारों की परिधि में नहीं है। लेकिन जिनको करने की जरूरत है, उनको किया जाना चाहिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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