इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने एक याचिका पर फैसला सुनाते हुए स्पष्ट कहा है कि राजनीतिक कारणों से की गई नियुक्तियों को राजनीतिक कारणों से रद भी किया जा सकता है।
कोर्ट का यह फैसला अनपेक्षित भी नहीं है। गत वर्षों में यह एक परंपरा सी बन गई है कि सरकारें अनावश्यक बोर्ड व समितियां गठित कर उनमें अपने लोगों को नियुक्त करती हैं। कई बार कार्यकर्ताओं का रोष शांत करने के लिए ऐसा किया जाता है तो कई बार जातीय समीकरण साधने के लिए। कई बार किसी खास मकसद को लेकर चंद लोगों को उपकृत किया जाता है। जाहिर है ऐसी नियुक्तियों का कोई संवैधानिक आधार नहीं होता। ये केवल राजनीतिक लाभ के लिए की गई होती हैं।1ये नियुक्तियां न केवल सरकारी कामकाज को बोङिाल बनाती हैं, बल्कि सरकारी खजाने पर भी इनका बोझ बढ़ता है। इससे भी चिंताजनक बात तो तब हो जाती है, जब सत्ता का रौब गालिब करते हुए बोर्ड समितियों के कुछ पदाधिकारी भ्रष्टाचार में उद्यत हो जाते हैं। योगी सरकार ने पिछले शासन में हुइर्ं बोर्ड समितियों के सदस्यों, अध्यक्षों व उपाध्यक्षों की नियुक्ति को खारिज करने के आदेश जारी कर दिए। उन्होंने आयुर्वेदिक व यूनानी तिब्बती चिकित्सा पद्धति बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति को भी रद कर दिया। शिक्षामित्रों की नियुक्ति को भी इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता। सरकारी कामकाज में जरूरतों का मतलब मानकों से समझौता करना नहीं होता। बावजूद इसके शिक्षामित्रों की नियुक्ति हुई पर जिसे कोर्ट ने नकार दिया। अब बोर्ड समितियों के मामले में भी महत्वपूर्ण फैसला सुनाया गया है। कुल मिलाकर यह तो स्पष्ट हो चुका है कि योगी सरकार पिछली सरकार या सरकारों के फैसलों की समीक्षा करते हुए उपयुक्त कदम भी उठा रही है, पर वह खुद भी ऐसे मामलों में नहीं फंसेगी, इस बात का उसे भी ध्यान रखना पड़ेगा। एक सरल, सशक्त और प्रभावी शासन और प्रशासन देना तभी संभव हो पाएगा। वस्तुत: नौकरी एक ऐसा विषय है जिसे दिलवाने में राजनीतिक हस्तक्षेप कतई नहीं होना चाहिए। सरकारों को ऐसे संवेदनशील मसले पर तटस्थ ही रहना चाहिए। अदालत का मंतव्य साफ है कि नौकरी योग्यता व आवश्यकता के आधार पर ही दी जानी चाहिए।
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कोर्ट का यह फैसला अनपेक्षित भी नहीं है। गत वर्षों में यह एक परंपरा सी बन गई है कि सरकारें अनावश्यक बोर्ड व समितियां गठित कर उनमें अपने लोगों को नियुक्त करती हैं। कई बार कार्यकर्ताओं का रोष शांत करने के लिए ऐसा किया जाता है तो कई बार जातीय समीकरण साधने के लिए। कई बार किसी खास मकसद को लेकर चंद लोगों को उपकृत किया जाता है। जाहिर है ऐसी नियुक्तियों का कोई संवैधानिक आधार नहीं होता। ये केवल राजनीतिक लाभ के लिए की गई होती हैं।1ये नियुक्तियां न केवल सरकारी कामकाज को बोङिाल बनाती हैं, बल्कि सरकारी खजाने पर भी इनका बोझ बढ़ता है। इससे भी चिंताजनक बात तो तब हो जाती है, जब सत्ता का रौब गालिब करते हुए बोर्ड समितियों के कुछ पदाधिकारी भ्रष्टाचार में उद्यत हो जाते हैं। योगी सरकार ने पिछले शासन में हुइर्ं बोर्ड समितियों के सदस्यों, अध्यक्षों व उपाध्यक्षों की नियुक्ति को खारिज करने के आदेश जारी कर दिए। उन्होंने आयुर्वेदिक व यूनानी तिब्बती चिकित्सा पद्धति बोर्ड के सदस्यों की नियुक्ति को भी रद कर दिया। शिक्षामित्रों की नियुक्ति को भी इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता। सरकारी कामकाज में जरूरतों का मतलब मानकों से समझौता करना नहीं होता। बावजूद इसके शिक्षामित्रों की नियुक्ति हुई पर जिसे कोर्ट ने नकार दिया। अब बोर्ड समितियों के मामले में भी महत्वपूर्ण फैसला सुनाया गया है। कुल मिलाकर यह तो स्पष्ट हो चुका है कि योगी सरकार पिछली सरकार या सरकारों के फैसलों की समीक्षा करते हुए उपयुक्त कदम भी उठा रही है, पर वह खुद भी ऐसे मामलों में नहीं फंसेगी, इस बात का उसे भी ध्यान रखना पड़ेगा। एक सरल, सशक्त और प्रभावी शासन और प्रशासन देना तभी संभव हो पाएगा। वस्तुत: नौकरी एक ऐसा विषय है जिसे दिलवाने में राजनीतिक हस्तक्षेप कतई नहीं होना चाहिए। सरकारों को ऐसे संवेदनशील मसले पर तटस्थ ही रहना चाहिए। अदालत का मंतव्य साफ है कि नौकरी योग्यता व आवश्यकता के आधार पर ही दी जानी चाहिए।
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