देश के बच्चों के भविष्य और शिक्षा के स्तर में सुधार से जुड़े सभी लोग
इस पर सहमत हैं कि भविष्य में हमारे गांवों के सरकारी स्कूलों में पढ़ने
वाले किशोर महानगरीय समवयस्कों से कहीं अधिक तादाद में रोजगार की तलाश
करेंगे और उनमें से अधिकतर नौकरी पाकर वापस गांव जाने के बजाय शहरी बनना
पसंद करेंगे।
जानकार लोग सरकारी रपटों से कहीं अधिक भरोसा गांवों में
स्कूली शिक्षा पर 2005 से लगातार जारी होने वाली सालाना शोध रपट
‘असर’(एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन फॉर रूरल इंडिया) पर करने लगे हैं। गैर
सरकारी संगठन ‘प्रथम’ वैज्ञानिक पारदर्शी तरीके से इसे नियमित रूप से जारी
करता है। इसकी ताजा (12वीं) रपट जो 1,641 गांवों के स्कूलों एवं 25,000
परिवारों पर किए गए शोध पर आधारित है और जो 2017 में पहली बार प्राइमरी
शिक्षा से आगे जाती है वह हमारे 14 से 18 साल की उम्र वाले ग्रामीण छात्रों
की शैक्षणिक दशा पर दुर्लभ ब्योरे और कई चौंकाने वाले तथ्य उजागर कर रही
है। यह सही है कि 2009 के शिक्षा को बुनियादी अधिकार मानने वाला कानून
बनाने और सघन सर्व शिक्षा अभियान के कारण हमारे गांवों में लड़के-लड़कियों,
दोनों की ही स्कूली भर्तियां बढ़ी हैं और प्राइमरी के बाद पढ़ाई छोड़ने
वालों की तादाद में भी कमी आई है, पर बड़ा सवाल कक्षा में उपस्थिति का
नहीं, बल्कि यह है कि कक्षा में ग्रामीण बच्चे आठवीं से 12वीं तक की जो
पढ़ाई कर रहे हैं उसका स्तर कैसा है? उक्त रपट बताती है कि हालात अच्छे
नहीं हैं। आज हमारे 14-18 साल उम्र के कम से कम एक चौथाई ग्रामीण छात्र
अपनी मातृभाषा की किताबें भी मुश्किल से पढ़ पाते हैं और आधे से भी अधिक
सामान्य गुणा भाग के सवाल हल करने में अक्षम हैं। भारत का नक्शा दिखाने पर
14 फीसद छात्र यह नहीं बता सके कि यह नक्शा किस श का है। 36 प्रतिशत छात्र श
की राजधानी का और 21 फीसद नक्शे पर अपने राज्य का नाम तक नहीं खोज सके।
सामान्य गणित में भी दशा दयनीय है। छात्र चार तरह के नोट दिखाकर पूछने पर
उसका योग भी नहीं बता पाए। यही नहीं, सरकार जिस समय डिजिटल क्रांति के सपने
ख रही है, शोधकर्ताओं ने पाया कि 2017 में ग्रामीण छात्रों में से 28 फीसद
ने ही कंप्यूटर का प्रयोग किया था और इंटरनेट तक कुल 26 प्रतिशत की ही
पहुंच थी।1इसका खास पहलू यह भी है कि 60 प्रतिशत छात्रों ने कहा कि वे
स्कूली पढ़ाई के बाद कॉलेज जाना चाहते हैं, लेकिन वे आगे किस तरह की पढाई
के इच्छुक हैं, इस बाबत अधिकांश लड़के पुलिस या सेना में जाने के इच्छुक
निकले तो अधिकांश लडकियां शिक्षा या नर्सिग से जुड़े काम करने की। उनकी
शैक्षिक योग्यता का जो स्तर पाया गया उससे लगता है कि आज के उच्च तकनीक
आधारित और बेहद प्रतिस्पर्धी बाजार में ऐसे छात्र जब अपने लिए नौकरी खोजने
निकलेंगे तो कॉलेज की डिग्री होने के बाद भी तमाम को निराशा ही हाथ लगेगी।
एक समय था जब मेरी नानी अपने बच्चों को पत्र लिखते समय सगर्व उनके नाम के
आगे अमुक वी या श्री अमुक के बाद उनकी डिग्री बीए या एमए, लिखना न भूलती
थीं। ‘मातृभाषा के पुजारी विमल बीए पास’ बाबू श्यामसुंदर दास के लिए एक
विशेषण की तरह प्रयोग होता था, लेकिन आज पीएचडी धारक लोग क्लर्की की नौकरी
के लिए आवेदन रहे हैं तो बीए की डिग्री वह पुराना करिश्माई वलय कतई खो चुकी
है।1‘असर’ की रपट के अनुसार गांवों के अधिकांश छात्र अब शहर जा कर कॉलेजों
में दाखिला चाहते हैं और साथ ही वहीं कोई नौकरी भी। मलिन गांवों में खेती
की दुर्दशा से खिन्न उनके अभिभावक भी उनको जबरन गांव में रोककर ‘उत्तम खेती
मध्यम बान, निखिद चाकरी भीख निदान’, का सीख भरा पद उनको नहीं सुनाते। उधर
ये छात्र भी आधुनिक डिजिटल शिक्षा के माध्यम यानी अंग्रेजी से लैस हो जाने
की शर्त पूरी नहीं कर पा रहे हैं। अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने और गांवों के
स्कूलों को ‘डिजिटल इंडिया’ का प्रमुख लक्ष्य बनाकर व्यावहारिक योजनाएं
साकार करना, युद्धस्तर पर वहां के टूटे-फूटे खड़िया मिट्टी श्यामपट्ट टाट
पट्टी की क्लास वाले परिसरों को हर हाल में डिजिटल कक्षाओं में बदलने की
बात आई तो हमारी सभी सरकारें शैक्षिक के बजाय अपने राजनीतिक चश्मे से परखने
बैठ जाती हैं। 1हाल में राजनीतिक दलों के भीतर से यही जिज्ञासा लगातार
सुनाई ने लगी है कि अगले चुनाव में 21वीं सदी में जन्मे 18 बरस के वे छात्र
जो पहली बार वोट ंगे, कुल तादाद में कितने हैं? अगला सोच पड़ाव यह है कि
उनको अपने दल की तरफ किस तरह के झुनझुने कर झुकाया जा सकेगा? चुनावी वार
कक्षों में इस पर काम चालू आहे, पर मौजूदा शिक्षा को लेकर सबका असली रुख आज
भी कई बच्चों वाले उसी मतलबी पिता का है जो वर्षो से अपने पोलियोग्रस्त
बच्चे को नई बैसाखियां कर ही चलाता आया है। अगर एक नया सहज प्रस्ताव आता है
कि एक आमूलचूल भिन्न किस्म की सर्जरी से बच्चे की वह बेकार पड़ चुकी टांग
काट कर उसकी जगह कृत्रिम टांग लगा दी जाए तो वह बिदकता है। वह बच्चा खुद
कैसे चलना चाहता है या घिसटती चाल उसे किस तरह की जिंदगी की ओर ले जा रही
है, इसमें किसी की कोई खास रुचि नहीं। आजादी के बाद हमारे यहां शिक्षा पर
कई कमीशन बैठे। दर्जनों रपटें बनवाई गईं जिनमें सचमुच कई क्रांतिकारी,
किंतु साकार किए जा सकने वाले व्यावहारिक सुझाव थे। इस जमीन पर राजनीतिक
उर्वरक (त्रिसूची भाषा प्रस्ताव हो या सिर्फ क्षेत्रीय माध्यम से शिक्षा
ना, मुफ्त के लैपटॉप आदि) डाला जाता रहा। इससे कुछ र हरियाली का आभास भले
हुआ हो, अंतत: भारतीय शिक्षा की सहज उर्वरता नष्ट हुई है। सुधी पाठक याद
करें जब नीतीश द्वारा लड़कियों को साइकिल ना एक शैक्षणिक क्रांति और
वुमनिया सशक्तीकरण का शंखनाद बताया गया था, लेकिन उससे कितने बदलाव आए।
दरअसल हर खेती की जमीन बेहतर फसल ने के लिए स्थानीय मिट्टी की वैज्ञानिक
जानकारी और मौलिक प्रयोग मांगती है और साथ ही यह ईमानदार स्वीकारोक्ति कि
शिक्षा में सुधार का सवाल स्कूल बनाने या मुफ्त किताब या लैपटॉप आदि बांटने
से कहीं बड़ा है। असल जरूरत यह है कि अपनी शिक्षा की समग्र सार्थकता यह श
टैगोर, सर सैयद, फुले दंपती या मालवीय जी की तरह सर्जनात्मक तरीके से भीतर
खोजे। अपनापन विसर्जित कर किसी ‘टर्न की’ आधार पर शिक्षा का सारा ढांचा
बाहर से आयात करने से यही होगा जो हो रहा है। यानी जो भर हाथ पैसा चुका सके
वह ठीक ठाक शिक्षा पाकर ठीक ठाक काम पा जाएगा, शेष मजूरी को तैयार रहें।
शिक्षा पर तकलीफह ढंग से पुनर्विचार और उसके लिए आर्थिक साधन मुहैया कराने
का यह काम बहुत दुष्कर, पर प्रथम सरीखी संस्थाओं के रहते करणीय है। ‘नारी
तुम केवल श्रद्धा हो,’ या ‘श की युवाशक्ति को शत शत नमन’ जैसे गैर
जिम्मेदार और वाहवाही लूटने वाले नारों से भरे भाषण इस विशाल आबादी के तीन
चौथाई युवा अंश को बहुत दिन तुष्ट नहीं कर सकते।
(लेखिका प्रसार भारती की पूर्व प्रमुख और वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
मृणाल पाण्डेअवधेश राजपूत
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