Tuesday 30 January 2018

देश में उच्च शिक्षा संस्थानों की साख पर सवाल: क्या केवल चार-छह नियमित अध्यापकों से कोई उच्च शिक्षा

उच्च शिक्षा में गुणवत्ता और उसकी उपयोगिता की स्थिति को लेकर अनेक प्रकार की चिंताएं सामने आती रहती हैं। जिस देश में उच्च शिक्षा संस्थानों में 40 प्रतिशत अध्यापकों के पद दशकों से रिक्त हों वहां अध्यापन, शोध, नवाचार में गुणवत्ता का ह्रास अपेक्षित ही है।
सरकारी विश्वविद्यालयों में संसाधनों की कमी और नौकरशाही का
बोलबाला और निजी विश्वविद्यालयों की धनार्जन को पहली और अंतिम प्राथमिकता अब किसी से छिपी नहीं है। सुधार के लिए आशा की किरण बन सकती है नई शिक्षा नीति जिसका प्रारूप बनाने के लिए बनी समिति की अनुशंसाओं की उत्सुकता से प्रतीक्षा हो रही है। अब यह सर्व-स्वीकार्य धारणा है कि विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों और नेतृत्व पर गंभीर विचार-विमर्श कर नई नीतियां बनाने की महती आवश्यकता है। डा. राधाकृष्णन ने स्पष्ट विचार दिया था कि शिक्षा सभी का अधिकार है, मगर बौद्धिक कार्य केवल उन्हीं के लिए है जिनकी नैसर्गिक अभिरुचि उसमें हो। अन्य के लिए नहीं है वह। इधर कुलपति और आचार्य के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों की नीतियां लगातार असफल हुई हैं। इसे नकारना नई पीढ़ी के साथ न्याय करना नहीं माना जाएगा। कुलपति का डिग्री फर्जी होने के कारण हटाया जाना, छुट्टी पर भेजा जाना, भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तारी, करीब दस केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के विरुद्ध जांच प्रारंभ होना जैसे प्रकरण अब हैरान नहीं करते। हालिया शिक्षा सर्वेक्षण में अस्सी हजार ‘घोस्ट’ अध्यापक पाए गए। अध्यापकों का ट्यूशन करना, कोचिंग में पढ़ाना असामान्य नहीं रहा। यदि कुलपति की नियुक्ति दौड़-धूप, सिफारिश और राजनीतिक कारणों से होगी और अध्यापक थोड़े से मानदेय पर अनियतकालीन नियुक्तियां पाएंगे तो यह सब तो होगा ही।1कुलपति और आचार्य की संकल्पना भारत की वैचारिक श्रेष्ठता की थाती रही है। यह प्राचीन भारत की संस्कृति में विशिष्ट स्थान रखती थी। कुलपति का आचरण उनके साथ कार्यरत ‘आचार्यों’ के लिए भी अनुकरणीय होता था। आधुनिक काल में भी सर आशुतोष मुखर्जी, डॉक्टर राधाकृष्णन, पंडित मदन मोहन मालवीय, रामलाल पारिख, पंडित अमरनाथ झा, पंडित गंगानाथ झा जैसे मनीषी कुलपति इसी श्रेणी में आते हैं। कुलपति की सफलता का मूल आधार उसके सहयोगी आचार्य होते हैं जो ज्ञानार्जन परंपरा को आगे ले जाने में लगे रहते हैं। समाज इनके बताए मार्ग का सदा ही बेहिचक अनुसरण करता रहा है। अब आवश्यक है कि कुलपति और आचार्यों के पदों की गरिमा एवं मान-सम्मान पर कोई आंच न आए और इसके पुनस्र्थापन की और गंभीरता से नए उपाय खोजे जाएं। भारत की ज्ञानार्जन परंपरा में राज्य की कोई दखलंदाजी शिक्षा के क्षेत्र में नहीं रही है। जब-जब ऐसा हुआ है तो गुणवत्ता क्षरण देखने को मिली। राजा, राज्य और समाज का उत्तरदायित्व गुरुकुलों की आवश्यकता पूर्ति करने तक सीमित था। उनकी जरूरतें भी सीमित थीं, क्योंकि अपरिग्रह का महत्व केवल उपदेश से नहीं, व्यावहारिकता से ही पढ़ाया जा सकता है। आज स्थिति इसके विपरीत है। एक विश्वविद्यालय के कुलपति से जब यह पूछा गया कि उन्होंने तीन करोड़ रुपये अपने निवास पर तरणताल और टेनिस कोर्ट बनाने में क्यों खर्च किए तो उनका उत्तर था-ताकि आगे आने वाले कुलपति अच्छे माहौल में कार्य कर सकें।1सरकारें नए विश्वविद्यालयों की घोषणा अनेक प्रकार के दबाव में आकर कर तो देती हैं, मगर नियामित नियुक्तियों की अनुमति नहीं देती हैं। क्या केवल चार-छह नियमित अध्यापकों से कोई उच्च शिक्षा संस्थान अपनी प्रतिष्ठा स्थापित कर सकता है? भावी पीढ़ी का यह नैसर्गिक अधिकार है कि उसे उचित स्तर पर ज्ञान और कौशल मिल सके ताकि उनकी सर्जनात्मकता और प्रतिभा विस्तार पा सके। सुधार के प्रयासों में सफलता के लिए वास्तविकता को स्वीकार करना होगा। सबसे पहले सरकारें यह समङों कि शिक्षा में किया गया निवेश ही सर्वाधिक लाभांश देता है। यदि शोध और कौशल विकास के लिए अध्यापक नहीं होंगे, प्रयोगशालाएं संसाधन-विहीन होंगी, उनका नवीनीकरण नहीं किया जाएगा तो स्तरीय बौद्धिक कार्य कैसे हो सकेगा? संस्थाओं की साख स्थापित करने के लिए नियुक्तियों में केवल प्रतिभा और योग्यता को पारदर्शिता के साथ अपनाना होगा। इसकी अनदेखी के परिणाम अब सामने आ रहे हैं। यदि अधिकांश कुलपतियों की नियुक्तियों में राजनीति अथवा अभ्यर्थी की पहुंच की क्षमता के आधार पर होंगी तो नियुक्तियों में पक्षपात और सिफारिशों को रोक पाना कैसे संभव हो सकेगा? 1कुलपति/निदेशक तो पांच साल या उससे भी कम समय के लिए आते हैं, पर अधिकांश प्राध्यापक लंबे समय तक अध्ययन-अध्यापन करते हैं। कुलपति के बाद सबसे महत्वपूर्ण नियुक्ति प्रवक्ता/असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर ही होती है। ऐसा अक्सर देखा गया है कि अनेक कुलपति साक्षात्कार के आधार पर ही नियुक्ति करते हैं। अभ्यर्थी के शोध, प्रकाशन, अनुभव को केवल ‘साक्षात्कार के लिए पात्रता मात्र मान लेते हैं। इसमें पारदर्शिता लाना जरूरी है। हर तथ्य सार्वजनिक होना चाहिए। मालवीय जी को यदि सरकारी बाबुओं या नेताओं से अनुमति लेकर ही नियुक्तियां करनी पड़ती तो क्या कशी हिंदू विश्वविद्यालय कभी वह गरिमा पा सकता था जो उसे हासिल हुई? कुछ ऐसी व्यवस्था करनी पड़ेगी कि अपने-अपने क्षेत्र के नामी-गिरामी विद्वानों को विश्वविद्यालय आमंत्रित कर सके। वे युवाओं को प्रेरित कर सकें और संस्था की साख बढ़ा सकें। विचार-मंथन और स्थिति-विश्लेषण के लिए प्रखर मष्तिष्क आवश्यक होते हैं और यह यदि विश्वविद्यालयों में नहीं होंगे तो कहां होंगे? विश्वविद्यालय तो राष्ट्र के प्रतिभा केंद्र के रूप में विकसित होने चाहिए और सामान्य जन को भी यह विश्वास होना चाहिए कि समस्याओं के निदान के रास्ते वहीं से निकलते हैं। वे भारत के विद्वान ही थे जिन्होनें हरित क्रांति जैसी अद्भुत उपलब्धि भारत को दी। भारत की नई पहचान बनाने में उन युवाओं का असीमित योगदान रहा है जिन्होनें अमेरिका जाकर नासा और सिलिकॉन वैली में अपना सम्मानपूर्ण स्थान बनाया। प्रतिभा को पहचानने तथा विकसित करने का उत्तरदायित्व विश्वविद्यालयों का है। प्रतिभाशाली युवाओं के सामने अनेक चुनौतियां हैं, नवाचार के अवसर उनके सामने हैं। सौर ऊर्जा, हाइड्रोजन ईंधन सेल का उपयोग, समुद्री पानी को उपयोग योग्य बनाना, बीमारी और कुपोषण के विरुद्ध संघर्ष, कृषि क्षेत्र में पुनर्जागरण और तीन फसलें लेने के प्रयास इत्यादि। इनमें सफल होकर ही भारत अपनी सकल घरेलू उत्पाद दर बढ़ा सकेगा। असीमित उत्तरदायित्व हैं उच्च शिक्षा संस्थानों के। इन्हें हर प्रकार का सहयोग सरकार और समाज से मिलना चाहिए। इसमें कोई भी शिथिलता स्वीकार नहीं होनी चाहिए। 1(लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं)

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