पिछले कुछ वर्षो में बाल और किशोर अपराधों के साथ-साथ बच्चों में
विकृत-असामान्य व्यवहार के मामलों में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। बच्चों की
ओर से आक्रामक मनोवृत्ति का प्रदर्शन करने और यहां तक कि हिंसा, हत्या,
दुष्कर्म की घटनाओं में शामिल होने की खबरें अब आए दिन दिखाई पड़ रही हैं।
समस्या गांव से लेकर शहर और गरीब से लेकर अमीर, सभी तबकों में जिस तरह से
फैल रही है वह एक महामारी का रूप धारण कर सकती है। इस खतरनाक हालत की वजहें
जानने की कोशिश करने के साथ उनके समाधान में शिक्षा व्यवस्था की भूमिका पर
गंभीरता से विचार होना चाहिए। इस क्रम में यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या
सिर्फ बच्चों का ही शिक्षण पर्याप्त है? पिछले कुछ सालों में भारतीय समाज
काफी बदल गया है। नगरीकरण, शिक्षा, रोजगार इत्यादि के लिए नई जगहों में
प्रवास, टूटते संयुक्त परिवार और बढ़ते हुए एकल परिवार के साथ आधुनिक
जीवनशैली ने नए दवाबों को जन्म दिया है। अब वह सामूहिक टोला-मोहल्ला
संस्कृति नहीं रही जिसमें समाज के बड़े-बुजुर्ग का दबाव बच्चों पर होता था।
इस संस्कृति में हर बड़ा व्यक्ति चाचा या दादा हुआ करता था, जो गलत काम के
लिए बच्चों-किशोरों को डांट भी सकता था। इसके अतिरिक्त बढ़ती हुई भौतिकता,
आगे बढ़ने की अंधी होड़, पति-पत्नी, दोनों का कामकाजी होना, घर में
दादा-दादी आदि के न होने से बच्चों को सही-गलत बताने वाला कोई नहीं रहा।
ऊपर से कोढ़ में खाज की तरह टेलीविजन, इंटरनेट, सोशल मीडिया के उफान ने
बच्चों को एक अंधी सुरंग में धकेल दिया है। 1टेलीविजन में पश्चिमी
समाज-संस्कृति से प्रभावित ऐसे ऊटपटांग किस्म के सीरियल दिखाए जा रहे हैं
जहां हर कोई हर किसी का प्रतिद्वंद्वी या दुश्मन है। बच्चों में लोकप्रिय
काटरून चैनलों की हालत भी बुरी है। उनमें हर चरित्र यहां तक कि पौराणिक
धार्मिक-ऐतिहासिक बाल नायक भी उग्र रूप में प्रस्तुत किए जा रहे हैं। उनकी
आंखों में बालसुलभ सौम्यता की जगह आक्रामकता झलकती है। हिंदी काटरूनों की
बात करें तो मोटू-पतलू, तेनालीरामा, गली गली सिमसिम, अकबर-बीरबल जैसे
इने-गिने सीरियल हैं जो बाल मन पर वैसा कुप्रभाव नहीं छोड़ते। विदेशी
काटरूनों की डबिंग करके हिंदी भाषा में पेश कर बच्चों के सामने एक ऐसी
संस्कृति परोसी जा रही जहां बड़े-छोटे का लिहाज, समरसता, नम्रता और करुणा
आदि भावों के लिए कोई जगह ही नहीं। ऊपर से इंटरनेट, वीडियो गेम्स और सोशल
मीडिया ने बच्चों को ऐसी आभासी दुनिया में ला पटका है जहां हिंसा, अपराध और
विकृत व्यवहार भी सहज खेल ही बन गए हैं। इन चीजों ने बच्चों को हकीकत के
सामूहिक-सामाजिक जीवन से और भी अलग-थलग कर दिया है। आज पांचवीं- छठीं कक्षा
के बच्चों के भी फेसबुक, वाट्सएप आदि के अकाउंट हैं। परंपरागत वैकल्पिक
साधनों की अनुपस्थिति के कारण बच्चे सोशल मीडिया की लत का शिकार हो रहे
हैं। आठवीं कक्षा के विद्यार्थी द्वारा ई-मेल पर अपनी शिक्षिका के साथ
कैंडिल लाइट डिनर और फिर शारीरिक संबंध के प्रस्ताव की एक ताजा खबर भयावह
स्थितियों का संकेत मात्र है। 1समाधान के विविध आयाम हो सकते हैं। एक
शिक्षार्थी होने के नाते मेरा दृष्टिकोण शिक्षापरक है। इस संदर्भ में पहला
सुझाव है कि स्कूली शिक्षा में प्राचीन भारतीय संस्कृति के तत्वों का
समावेश अर्थात नैतिक और मूल्यपरक शिक्षा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए।
हाल में सीबीएसई बोर्ड ने अपने से जुड़े स्कूलों में कक्षा छह से आठ के
विद्यार्थियों के लिए एक तीन वर्षीय मूल्यपरक कोर्स का प्रस्ताव रखा है।
इसके तहत विद्यार्थियों को भाईचारा, विनय और करुणा से संबद्ध मानवीय गुणों
की शिक्षा दी जाएगी, लेकिन इस स्वागतयोग्य प्रस्ताव की कुछ सीमाएं हैं। एक
तो यह स्कूलों के लिए स्वैच्छिक होगा यानी वे इसे अपनाएं या न अपनाएं जबकि
इसे अनिवार्य किया जाना चाहिए। दूसरे, यह पाठ्यक्रम साल भर में 16 पीरियड
का प्रस्तावित है, जबकि इसे कम से कम प्रति सप्ताह एक यानी 32 पीरियड का
होना चाहिए। इसे सिर्फ सीबीएसई बोर्ड तक ही न होकर पूरे देश में लागू किया
जाना चाहिए और, अंतत: इसमें उत्तीर्ण होना अनिवार्य किया जाना चाहिए। दूसरा
सुझाव है कि नौवीं से 10वीं कक्षा के विद्यार्थियों के लिए श्रम संबंधित
पाठ्यक्रम की अनिवार्यता हो। हमारे गुरुकुलों में राजपुत्र से लेकर सामान्य
बालक को भी लकड़ी चुनने से लेकर आश्रम व्यवस्था में हाथ बंटाने के विभिन्न
श्रम-संबंधित कार्य करने पड़ते थे। आधुनिक युग में विवेकानंद से लेकर
गांधीजी ने भी श्रम के महत्व पर जोर दिया है। यह ठीक है कि आधुनिक युग में
लकड़ी चुनने जैसे कार्य संभव नहीं, लेकिन श्रम संबंधित शिक्षा में बागवानी
या विभिन्न हस्तकलाओं जैसी चीजों का ज्ञान कराने से एक तरफ भविष्य में
रोजगार की संभावना रहेगी तो दूसरी तरफ श्रम की महत्ता और उसके प्रति सम्मान
का भाव भी बच्चों में पनपेगा। इस सबसे उनकी विपुल ऊर्जा कुप्रभावों की ओर न
जाकर एक सकारात्मक दिशा में अग्रसर होगी। विद्यार्थियों के अलावा
माता-पिता को जागरूक करना भी आज बहुत जरूरी हो गया है। 1भौतिकता की अंधी
दौड़ में शामिल माता-पिता के पास आज बच्चों के लिए समय नहीं है और न ही
उन्हें यह पता है कि आज की परिस्थितियों यथा इंटरनेट-सोशल मीडिया की आंधी
में बच्चों का कैसे मार्गदर्शन करें? यूरोपीय देशों ने इस समस्या के लिए
सामुदायिक बाल केंद्रों की स्थापना की है। इनमें स्कूल उपरांत बच्चों को
व्यस्त रखने से लेकर माता-पिता को भी प्रशिक्षित किया जाता है। अपने देश
में संसाधनों केअभाव में ऐसी व्यवस्था निकट भविष्य में संभव तो नहीं है,
लेकिन अभिभावकों के लिए ग्राम पंचायतों, सार्वजनिक भवनों या सामुदायिक
केंद्रों में पाक्षिक या मासिक वर्कशॉप-व्याख्यान होने चाहिए। इसके लिए गैर
सरकारी संगठनों की मदद ली जा सकती है। वहीं कोष कॉरपोरेट सोशल
रिस्पांसबिलिटी यानी सीएसआर के तहत जुटाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त
मीडिया के भी शिक्षण की जरूरत है। जिस तरह की चीजें विभिन्न मीडिया माध्यम
परोस रहे हैं उसके प्रति उन्हें आगाह करने का वक्त आ गया है। इसके लिए
मीडिया संगठनों को चार-छह माह में नियमित तौर पर रिव्यू या वर्कशॉप जैसा
कार्यक्रम आयोजित करना चाहिए। इस तरह का आदेश सूचना-प्रसारण मंत्रलय या
अन्य मीडिया संगठन दे सकते हैं। इसी क्रम में मीडिया नीति शास्त्र का पेपर
मीडिया कोर्स का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाना चाहिए। भारत में छह से 15 वर्ष
आयु समूह में करीब 28 करोड़ बच्चे हैं। उनका मानसिक विकास सही तरह से हो
और वे देश की आवश्यकतानुरूप विकसित हों, यह चिंता सभी को करनी चाहिए।
1(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)
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