Wednesday 30 May 2018

दोषी कौन: सरकारें,शिक्षामित्र या न्यायपालिका

कुशीनगर- भारत वर्ष रूपी इस पुष्प वाटिका को अपने हृदय रक्त से सिंचित करने वाले अमर शहीदों ने कभी इस बात की कल्पना भी न की होगी कि हरा-भरा यह उद्यान बसंत आने के पूर्व ही जातिवाद, क्षेत्रवाद, साम्प्रदायिकता और द्वेष पूर्ण तथा बदले की भावना से प्रेरित राजनीति की ज्वाला मे जलने लगेगा और इसका शिकार होगी आम, बेबस, निर्दोष जनता।जिसे अशिक्षा, गरीबी, भूखमरी और बेरोजगारी जैसी यात्नाऐं झेलनी पड़ेंगी।साथ ही अपने अधिकारों को पाने के लिए सरकारों के खिलाफ क्रांति करनी पड़ेगी।

वर्तमान उत्तर प्रदेश सरकार एवं बेसिक शिक्षा परिषद की नीतियां उक्त स्थिति की ओर इशारा भी कर रही हैं।हम बात कर रहे हैं उत्तर प्रदेश के उन निरीह शिक्षामित्रों की जिन्होंने अपने जीवन का स्वर्णिम समय बेसिक शिक्षा परिषद के माध्यम से समाज सेवा मे लगा दिया और आज स्वयं अपने भविष्य को लेकर चिंतित, सशंकित एवं भयभीत हैं।उम्र के इस पड़ाव पर अब वे कहाँ जाएं, क्या करें, समझ से परे हो चुका है।इन्हीं चिंताओं मे दिन प्रतिदिन आत्महत्या कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर रहे हैं।पर क्यों?, आखिर इनकी ख़ता क्या है?
क्या ये कि इन्होंने अल्प मानदेय मे समाज सेवा का बीड़ा उठाया?, क्या ये कि इन्होंने अपने खून पसीने से बेसिक शिक्षा को तब सींचा जब विभाग के आधे से अधिक विद्यालय या तो एकल थे या शिक्षक विहीन?, क्या ये कि इन्होंने ग्यारह माह का मानदेय पाने के बावजूद तपती गर्मी की छुट्टियों मे भी एक नियमित शिक्षक की भांति वे सारी ड्यूटियां इमानदारी से की जो इनसे नहीं ली जानी चाहिए?,क्या ये कि इन्होंने इस आस मे अपनी उम्र गुजार दी कि हमें भी एक दिन सम्मान मिलेगा और हमारे भी अच्छे दिन आएगें?
बातें तो सभी सरकारें करती हैं किन्तु आज जब शिक्षामित्र मर रहे हैं तो राजनीतिक पार्टियां चुप हैं? आखिर क्यों? क्यों नही आवाज उठाती इन निरीह शिक्षामित्रों के लिए जिन्होंने अपनी जवानी गवां दी अच्छे दिनों की आस मे।सरकार आखिर इनके बारे मे क्यों नही सोच रही है? क्या शिक्षामित्रों ने इस पद का सृजन स्वयं किया था? क्या इसकी नियमावली स्वयं शिक्षामित्रों ने ही बनाई थी? क्या सत्रह वर्षों के शिक्षण अनुभव के बाद भी ये पढ़ाने लायक नहीं हैं? क्या इन्हें सम्मान पाने का अधिकार नही है? यदि नही तो क्यों?
सरकारें बदलती हैं किन्तु नौकरशाह नही और जब नियमावली की विधिक जानकारियां रखना नौकरशाहों का कार्य है तो इन्होंने इतनी कमजोर एवं असंवैधानिक नियमावली क्यों बनाई जिससे लाखों परिवारों के भविष्य पर संकट के बादल छा गए।क्या ऐसी नियमावली के लिए उन्हें कठोर दण्ड नही मिलना चाहिए ताकि भविष्य मे जानबूझ कर कोई ऐसी गलती न करे जिससे किसी बेगुनाह का जीवन बर्बाद हो? आखिर कब तक सरकार नौकरशाहों से मिलकर शिक्षामित्रों को बलि का बकरा बनाकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकती रहेगी?
एक ओर जहाँ राजनीतिक द्वेष एवं बदले की भावना से प्रेरित गंदी मानसिकता ने शिक्षामित्रों के जीवन से खेला है वहीं दूसरी ओर न्यायपालिका ने भी अपने निर्णय को इस रूप मे प्रस्तुत किया है कि आम आदमी भी उस पर प्रश्नचिह्न लगा रहा है।देश का आम आदमी यह समझ नही पा रहा है कि यदि शिक्षामित्र अयोग्य हैं तो उन्हें माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विद्यालय से निकाल क्यों नही दिया? वे अब भी उसी विद्यालय मे उन्हीं बच्चों को पढ़ा रहे हैं जहाँ पहले पढ़ाया करते थे।क्या केवल नाम बदलने मात्र से वे योग्य हो गए? या यूं कहें कि जब शिक्षामित्र सहायक अध्यापक के रूप मे वेतन पाते हुए कार्य कर रहे थे तब वे अयोग्य थे और अब जबकि वे शिक्षामित्र होकर मानदेय प्राप्त करते हुए कार्य कर रहे हैं तो योग्य हैं।अर्थात न कार्य बदला न व्यवहार सिर्फ नाम बदलने से योग्यता बदल गई।क्या यही है हमारी न्यायपालिका और यही है उसका न्याय- “वेतन पर अयोग्य, मानदेय पर योग्य?” समाज के सामने यह एक यक्ष प्रश्न है जिसका उत्तर हम सभी को ढ़ुंढ़ना पड़ेगा।आखिर किस ओर जा रहा है हमारा देश?
‘अंतिम विकल्प’ के लिए कुशीनगर से जटाशंकर प्रजापति
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