शिक्षकों की कमी की ओर किसी का ध्यान नहीं, बस योजनाएं बनती जा रही हैं

हाल ही में लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान पूछे गए तारांकित प्रश्नों के जवाब में कहा गया कि देशभर में दस लाख से भी ज्यादा प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर शिक्षकों की कमी है। यह कमी दस लाख से भी ज़्यादा मानी गई है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 मानती है कि प्रत्येक कक्षा में शिक्षक-छात्र अनुपात 25/1 एवं 30/1 का होना चाहिए। लेकिन शिक्षकों की कमी की वजह ये यह शिक्षक/छात्र अनुपात को हम हासिल नहीं कर पा रहे हैं। शिक्षकों की कमी से न केवल प्राथमिक, माध्यमिक स्कूली शिक्षा को खामियाज़ा भुगतना पड़ रहा है, बल्कि उच्च शिक्षा यानी विश्वविद्यालय स्तर पर भी शिक्षकों की कमी देखी जा सकती है। यह स्थिति स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय से लेकर शिक्षक−प्रशिक्षण संस्थानों में भी यथावत् है। हालांकि आरटीई एक्ट 2009 स्पष्ट तौर पर मानती और निर्देशित करती है कि शिक्षकों की भर्ती प्रशिक्षित शिक्षकों से की जाए। यदि केंद्र व राज्य सरकार तत्काल शिक्षकों की (गैर प्रशिक्षित) भरती करती है तो उसे कानूनन तीन वर्ष के अंदर गैर प्रशिक्षित शिक्षकों को प्रशिक्षण प्रदान करना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। इस प्रावधान को आधार बनाकर उत्तर प्रदेश और बिहार में लाखों शिक्षकों की भर्ती स्कूलों में की गई। उन्हें बाद में प्रशिक्षण प्रदान किए गए।
 
दिल्ली के अलावा हर राज्य में शिक्षकों की बहाली लंबे समय से ठंडे बस्ते में है। दिल्ली सरकार की डीएसएसबी पिछले 2015−16, 2016−17 के टीजीटी और पीआरटी के पोस्ट जिनकी परीक्षाएं ले चुकी हैं, उन्हें अब तक ज्वाइनिंग नहीं मिली है। जबकि हर साल शिक्षक अवकाश प्राप्त कर रहे हैं। उनके पोस्ट जो खाली हुए वे तो हैं कि साथ ही अन्य पोस्ट भी भरे जाने थे किन्तु किन्हीं कारणों से वे भी खाली हैं। गौरतलब हो कि पिछले साल मई जून में पीआरटी कार्यरत शिक्षकों की प्रोन्नति टीजीटी के रूप में हो चुकी है। लेकिन वे भी अभी अपनी नई ज्वाइनिंग के इंतजार में हैं। समस्या तब ज़्यादा भयावह हो जाएगी जब वे पीआरटी टीजीटी बन कर नए स्कूलों में चले जाएंगे और नगर निगम के स्कूलों में पोस्ट खाली हो जाएंगी। तब स्कूलों में अध्यापन कार्य कौन करेगा। मालूम हो कि निगर निगम स्कूलों में अभी भी हज़ारों पोस्ट खाली हैं। ऐसी स्थिति में स्कूलों में बचे शिक्षक एक से ज्यादा कक्षाएं पढ़ाया करते हैं। दूसरे शब्दों में पढ़ाने की बजाए बच्चों को किसी तरह मैनेज किया करते हैं। ताकि स्कूल में कोई अप्रिय घटना न हो जाए। यदि नगर निगम के स्कूलों में जाने का मौका मिले तो जान सकते हैं कि स्कूलों में बचे हुए शिक्षक किस प्रकार शिक्षण और गैर शैक्षिक कामों में उलझे हुए हैं। कई स्कूल तो ऐसे भी हैं जहां लंबे समय से चपरासी, क्लर्क तक नहीं हैं। उनके भी काम शिक्षक कर रहे हैं। एक बार स्कूल प्रधानाचार्य अवकाश प्राप्त करती हैं उसके बाद इनचार्ज से ही काम चलाया जा रहा है। ठीक वैसे ही जैसे दिल्ली के नौ डाइट्स में पूर्ण रूप से दो या तीन ही प्राचार्य हैं। बाकी के डाइट्स में इनचार्ज काम कर रहे हैं। यह स्थिति केंद्र शासित दिल्ली राज्य की है। बाकी राज्यों में रिक्त पदों, कक्षाओं को कैसे मैनेज किया जा रहा है यह जानना अपने आप में मानिखेज है।
 
प्राथमिक से लेकर टीजीटी और पीजीटी स्तर पर भी कहानी समान ही है। कक्षाओं में आरटीई एक्ट के अनुसार बताए गए अनुपात से कहीं ज़्यादा पचास, साठ बच्चे और एक शिक्षक किसी तरह अध्यापन कर रहा है। हम एक ओर लगातार स्कूलों के इंफ्रास्टक्चर को ठीक कर रहे हैं। स्कूलों में हैपी करिकूलम पढ़ाने और लागू करने की कोशिश कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर ऐसे भी स्कूल हैं जहां सचमुच न तो बैठने की स्थिति है और न ही खेलने के मैदान। हमने दो तरह से स्कूलों की स्थापना की है। पहले वे स्कूल हैं जहां शिक्षक, कक्षा−कक्ष, आईसीटी आदि की व्यवस्थाएं हैं। वहीं दूसरे वे स्कूल हैं जहां पर्याप्त न तो टीचर हैं और न ही बच्चों के बैठने के लिए कक्षा। आईसीटी के नाम पर कुछ पुराने कम्प्यूटर लगे हैं जिस पर धूल की परते जमी हैं।
 
देशभर में प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी से स्कूली शिक्षा लगातार जूझ रही है। इस प्रकार की स्थिति से उबरने के लिए कुछ राज्यों में तदर्थ शिक्षकों, निविदारत शिक्षकों, शिक्षा मित्रों आदि की नियुक्ति की गई है। इन निविदारत शिक्षकों के कंधे पर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इनकी भी स्थिति आज किसी से छुपी नहीं है। उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान आदि में तदर्थ शिक्षकों के नाम जो भी लें शिक्षा मित्रों को पिछले दस पंद्रह सालों से कांट्रैक्ट पर ही रखा गया है। जो भी नई सरकार आती है वे सपने दिखाती है कि हम आएंगे तो आपको स्थायी कर देंगे। सरकारें आती रहीं और जाती भी रहीं लेकिन तदर्थ शिक्षकों की स्थिति यथावत् बनी हुई है। सरकार ने 1986−80 के आस−पास तदर्थ शिक्षकों, निविदा, शिक्षामित्रों के नामों से भारी संख्या में नियुक्तियां कीं। उन्होंने तब स्थायी शिक्षकों के समानांतर तदर्थ शिक्षकों की सत्ता खड़ी की। इसमें राज्य सरकार को भी अन्य भत्ता आदि देने से छुटकारा मिला। हर साल इन्हें पुनर्नियुक्ति कर सालों साल यह सिलसिला जारी रहा। हर साल जॉब रीन्यू होगी या नहीं इस डोलड्रम की स्थिति में लाखों शिक्षक सांसें ले रहे हैं।
 
शैक्षिक रिपोर्ट लगातार आगाह कर रही हैं कि स्कूली स्तर पर शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आ रही है। यह सरकारी और गैर सरकारी दोनों की स्तरों की संस्थाएं हमें ताकीद कर रही हैं। इस दबाव में सरकारें तरह तरह के नवाचार भी कर रही हैं। कभी मिशन बुनियाद, कभी ऑपरेशन ब्लैक बोर्ड, कभी सर्व शिक्षा अभियान आदि। लेकिन इन अभियानों से हमारे मकसद क्यों पूरे नहीं हो पा रहे हैं, हमें सोचना होगा। हमें यह भी मंथन करने की आवश्यकता है कि सर्व शिक्षा अभियान और राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान में करोड़ों रुपए खर्च करने के बावजूद भी शिक्षा में गुणवत्ता को सुनिश्चित क्यों नहीं कर पा रहे हैं। क्या कहीं प्लानिंग में कोई खामी रह रही है या फिर कार्यान्वयन में कोई अड़चन आ रही है। इसे समझना होगा। हमें पूरी रणनीति बनाकर स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने की आवश्यकता है। न केवल नीति के स्तर पर बल्कि ज़मीनी हक़ीकतों को ध्यान में रखते हुए योजनाएं बनानी होंगी। हमने सतत् विकास लक्ष्य में तय किया है कि 2030 तक स्कूली शिक्षा को समान और समतामूलक सभी बच्चों को स्कूली शिक्षा मुहैया करा देंगे। यदि इस लक्ष्य को पाना है तो दस लाख से ज़्यादा खाली शिक्षकों के पद को शिक्षित शिक्षकों द्वारा भरने की रणनीति बनानी होगी।
 
-कौशलेंद्र प्रपन्न 

(शिक्षा एवं भाषा पैडागोजी विशेषज्ञ)