आधी-अधूरी प्रतिबद्धता का शिक्षा के क्षेत्र में क्या हश्र हो सकता है, यह उत्तर प्रदेश के ताजा उदाहरण से समझा जा सकता है, जहां इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक समयानुकूल फैसले ने करीब पौने दो लाख शिक्षामित्रों को स्थायी शिक्षक बनाने की राजनीतिक मंशा पर पानी फेर दिया है।
बेशक शिक्षामित्रों की पीड़ा समझी जा सकती है, जिनमें से कुछ ने हताशा में आत्महत्या जैसा कदम भी उठाया है।
लेकिन इस पूरे प्रसंग में उत्तर प्रदेश सरकार की भूमिका ज्यादा कचोटने वाली है। स्थायी और प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति के बजाय सूबे की प्राथमिक शिक्षा पिछले करीब डेढ़ दशक से जिस तरह शिक्षामित्रों के हवाले कर दी गई, अव्वल तो वही बहुत हैरान करने वाली बात है। तिस पर राज्य की सपा सरकार ने इन शिक्षामित्रों को स्थायी शिक्षक बनाने की शुरुआत कर दी थी, वह भी नियम-कानूनों को ताक पर रखकर।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को इसी आलोक में देखना चाहिए, जिसके तीन न्यायाधीशों की बेंच ने शनिवार को अवकाश के बावजूद अपना फैसला सुनाया, और ठेके पर रखे गए शिक्षामित्रों को स्थायी करने और इसके लिए उन्हें दूरस्थ शिक्षा से बीटीसी का प्रशिक्षण देने के सरकार के फैसलों को असांविधानिक बताया।
बीती सदी के आठवें दशक में प्राथमिक शिक्षा के विकेंद्रीकरण और स्थानीय युवाओं को रोजगार देने के लिए शिक्षामित्रों की जो शुरुआत की गई थी, वह एक प्रयोग के तौर पर ही ठीक था। इसके बजाय राज्यों ने इसे ही अध्यापकों की भर्ती का तरीका मान लिया। एक के बाद एक राज्य में प्राथमिक शिक्षा ठेके पर नियुक्त शिक्षकों के हवाले कर दी गई। उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में शिक्षामित्रों को शिक्षक योग्यता परीक्षा (टीईटी) पास नहीं करनी होती, और इनकी प्रशिक्षण अवधि भी कम होती है।
लेकिन राज्य सरकारों ने इस व्यवस्था के नुकसान पर गौर करना जरूरी नहीं समझा, क्योंकि ठेके पर रखे जाने वाले शिक्षामित्रों को कम वेतन देना पड़ता है। अब भी देर नहीं हुई है। बेहतर हो कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला दूसरे राज्यों में भी शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त इस विसंगति को दूर करने का अवसर बने। हमारी शिक्षा व्यवस्था तभी बेहतर होगी, जब शिक्षकों की प्रतिभा, योग्यता और उनके प्रशिक्षण पर जोर दिया जाएगा।
सरकारी नौकरी - Army /Bank /CPSU /Defence /Faculty /Non-teaching /Police /PSC /Special recruitment drive /SSC /Stenographer /Teaching Jobs /Trainee / UPSC
बेशक शिक्षामित्रों की पीड़ा समझी जा सकती है, जिनमें से कुछ ने हताशा में आत्महत्या जैसा कदम भी उठाया है।
लेकिन इस पूरे प्रसंग में उत्तर प्रदेश सरकार की भूमिका ज्यादा कचोटने वाली है। स्थायी और प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति के बजाय सूबे की प्राथमिक शिक्षा पिछले करीब डेढ़ दशक से जिस तरह शिक्षामित्रों के हवाले कर दी गई, अव्वल तो वही बहुत हैरान करने वाली बात है। तिस पर राज्य की सपा सरकार ने इन शिक्षामित्रों को स्थायी शिक्षक बनाने की शुरुआत कर दी थी, वह भी नियम-कानूनों को ताक पर रखकर।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को इसी आलोक में देखना चाहिए, जिसके तीन न्यायाधीशों की बेंच ने शनिवार को अवकाश के बावजूद अपना फैसला सुनाया, और ठेके पर रखे गए शिक्षामित्रों को स्थायी करने और इसके लिए उन्हें दूरस्थ शिक्षा से बीटीसी का प्रशिक्षण देने के सरकार के फैसलों को असांविधानिक बताया।
बीती सदी के आठवें दशक में प्राथमिक शिक्षा के विकेंद्रीकरण और स्थानीय युवाओं को रोजगार देने के लिए शिक्षामित्रों की जो शुरुआत की गई थी, वह एक प्रयोग के तौर पर ही ठीक था। इसके बजाय राज्यों ने इसे ही अध्यापकों की भर्ती का तरीका मान लिया। एक के बाद एक राज्य में प्राथमिक शिक्षा ठेके पर नियुक्त शिक्षकों के हवाले कर दी गई। उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों में शिक्षामित्रों को शिक्षक योग्यता परीक्षा (टीईटी) पास नहीं करनी होती, और इनकी प्रशिक्षण अवधि भी कम होती है।
लेकिन राज्य सरकारों ने इस व्यवस्था के नुकसान पर गौर करना जरूरी नहीं समझा, क्योंकि ठेके पर रखे जाने वाले शिक्षामित्रों को कम वेतन देना पड़ता है। अब भी देर नहीं हुई है। बेहतर हो कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह फैसला दूसरे राज्यों में भी शिक्षा व्यवस्था में व्याप्त इस विसंगति को दूर करने का अवसर बने। हमारी शिक्षा व्यवस्था तभी बेहतर होगी, जब शिक्षकों की प्रतिभा, योग्यता और उनके प्रशिक्षण पर जोर दिया जाएगा।
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