पाठ्यपुस्तक का निर्माण शिक्षा को एक रणनीति और कार्ययोजना के अनुरूप चलाने के लिए होता है। भारत में पाठ्य पुस्तक का निर्माण 1853-68 के आसपास हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान शिव प्रसाद सितारेहिंद ने बनाया था।
वहीं बंगाल में 1880 के आसपास गोपाल कृष्ण तर्कालंकार ने बनाया। बाद में और भी पाठ्य पुस्तकों का निर्माण होता रहा। शिव प्रसाद सितारेहिंद के पाठ्यपुस्तक पर विवाद भी उठे कि इनकी किताब में उर्दू और अरबी के शब्द ज्यादा हैं। वहीं मुसलमानों की उपस्थिति न के बराबर है।
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वहीं बंगाल में 1880 के आसपास गोपाल कृष्ण तर्कालंकार ने बनाया। बाद में और भी पाठ्य पुस्तकों का निर्माण होता रहा। शिव प्रसाद सितारेहिंद के पाठ्यपुस्तक पर विवाद भी उठे कि इनकी किताब में उर्दू और अरबी के शब्द ज्यादा हैं। वहीं मुसलमानों की उपस्थिति न के बराबर है।
पाठ्य पुस्तकों के साथ विवाद का रिश्ता भी पुराना है। अगर पिछले पंद्रह सालों में निर्मित पाठ्य पुस्तकों पर नजर डालें तो 2000 में बनी किताबों पर भी आरोप लगे ही। कंटेंट पर विद्वत समाज ने जो आरोप लगाए वह शिक्षा शास्त्र और शिक्षाविदों की नजर में निरपेक्ष नहीं थे। उन किताबों पर भगवाकरण के आरोप लगे। वहीं राज्य स्तर पर निर्मित पाठ्य पुस्तकों में भी समकालीन राजनेताओं की जीवनी को स्थान देकर पाठ्य पुस्तकें विवाद में रहीं।
कक्षा व स्कूल में जब पाठ्य पुस्तकें पहुंच गईं तब उनके साथ शिक्षक का क्या व्यवहार हो। एक शिक्षक कैसे पाठ्य पुस्तकों का इस्तमाल करे यह विचारणीय सवाल है। सन् 2000, 2002 में सर्वोच्च न्यायालय में हलफनामा देकर तब की किताबों से फलां फलां पन्नों, पैराग्राफों को न पढ़ाने के फरमान भी जारी किए गए। लेकिन इन तमाम बहसों में तर्कशीलता, सम्यक विश्लेषण और वस्तुपरकता को दरकिनार कर इतिहास की किताबों से पैराग्राफ और पन्नों को पढ़ाने, चर्चा करने पर रोक लगा दी गई।
शिक्षक इन विवादों और सवालों से कैसे निपटे इसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया। शिक्षक कक्षा में क्या पढ़ाए, कैसे पढ़ाए, कितना पढ़ाए यह शिक्षक नहीं तय करता। यह तय होता है रणनीतिकारों, नीति निर्माताओं की ओर से। शिक्षक को मान लिया जाता है कि यह जीव महज पाठ्य पुस्तकों का व्याख्याकार, टिप्पणीकार भर है। जबकि हक़ीकत इससे उलट होनी चाहिए। शिक्षक सिर्फ और सिर्फ लाउडस्पीकर नहीं है। शिक्षकों की सहभागिता और पाठ्य पुस्तक निर्माण पर नए सिरे से विमर्श करने की आवश्यकता है।
पाठ्य पुस्तकों में पाठों को शामिल करने और हटाने के पीछे कई बार शिक्षा शास्त्र को अधार बनाने की बजाए संभव है तत्कालीन राजनीति और वैचारिक प्रतिबद्धता के प्रभाव ज्यादा देखे जा सकते हैं। यही कारण है कि पाठ्य पुस्तकों, पाठ्यचर्याओं के निर्माण, चयन, लेखन समितियों में शिक्षाविदों की राय तो ली जाती है लेकिन वह भी राजनीति से ज्यादा प्रभावित नजर आती हैं। खासकर जब हम समय समय पर निर्मित पाठ्य पुस्तकों के कंटेंट पर नजर डालते हैं तो यह धारणा स्पष्ट और मजबूत हो जाती है कि कुछ खास पाठों को शामिल करने के पीछे तत्कालीन सत्ता ज्यादा मुखर रही है। वही कारण है कि शिव प्रसाद सितारेहिंद द्वारा तैयार हिन्दी, इतिहास, विज्ञान आदि की पाठ्य पुस्तकों पर विचारों, स्वधारणाओं और पूर्वाग्रहों का प्रभाव रहा जिसकी वजह से उनकी किताबों की आलोचना हुई। यदि 2000 में तैयार पाठ्य पुस्तकों का विश्लेषण करें तो भी इस प्रकार के वैचारिक असर साफ देखे, पढ़े जा सकते हैं। जब प्रेमचंद की कहानी को हटा कर मृदुला सिन्हा जी की कहानी को स्थान दिया तब 2002 का समय था। तब सत्ता में एनडीए सरकार थी। जब लालू प्रसाद सत्ता में थे तब उनकी जीवनी को पाठ्य पुस्तकों में शामिल किया गया। यह सिलसिला राजस्थान में भी चलता रहा। वहीं बंगाल में हाल ही में संगूर प्रकरण को सकारात्मक तरीके से पेश करते हुए ममता बैनर्जी की सराहना की गई।
पाठ्य पुस्तकों को हमेशा ही सत्ताधारियों को अपने विचारों और मान्यताओं के संवाहक के तौर पर इस्तमाल किया गया है। यह किसी एक सरकार ने नहीं किया बल्कि जब जब जो भी सरकार केंद्र में आई है उसने एनसीईआरटी को सबसे पहले अपना टारगेट बनाया। जैसे चाहा वैसी पाठ्य पुस्तकों का निर्माण कराया। जबकि एनसीईआरटी एक स्वायत्त संस्था है। इसकी भूमिका सरकार को शैक्षिक क्षेत्र में अपनी सिफारिशें देना और सुझाव देना भर है। सरकार माने या न माने इसमें इस संस्था की कोई जवाबदेही नहीं है।
सन् 2005 के नेशनल करिकूलम फ्रेमवर्क पर निर्मित पाठ्य पुस्तकों पर भी आरोप लगे कि इसमें खास विचार और मूल्यों को तवज्जो दी गयी है लेकिन समग्रता में देखें तो पाएंगे कि 2005 के बाद निर्मित किताबों में आधुनिक शैक्षिक दर्शन और विमर्शों को जगह देने की कोशिश की गई है। भाषा की किताबों में खासकर कल्पनाशीलता, सृजनशीलता को स्थान दी गई है। लेकिन शिक्षकों की शिकायत यह रही कि इसे कैसे पढ़ाएं, इसमें सब कुछ उलट पुलट है। इसमें वर्णमालाएं नहीं हैं, इसमें कक्षा एक की किताब कविता से शुरू की गई है आदि। जबकि यह शिकायत तब दूर हो जाती है जब शिक्षक पहले तीन चार पन्नों को पढ़ने में समय लगाते हैं। लेकिन दिक्कत यहीं आती है कि शिक्षक कायदे से पढ़ने से दूर जा चुके हैं। उन्हें हर चीज किताब के तौर पर परोस दिया जाए। जबकि किताबें उसमें भी पाठ्य पुस्तकें सिर्फ मार्ग दर्शक की भूमिका निभाती हैं। आगे शिक्षक को स्वयं चलना होता है। स्वविवेक और स्वसृजनशीलता का इस्तेमाल करने से पाठ्य पुस्तकें कभी नहीं रोकतीं। कई अनुभव बताते हैं कि शिक्षक गैर पाठ्य पुस्तकीय किताबें तो कम ही पढ़ते हैं यहां तक कि पाठ्य पुस्तकों के पाठों को भी सलीके से पढ़कर कक्षा में नहीं जाते। जब शिक्षकों से पूछा जाता है कि क्या आपने कोई कविता, कहानी, किताबें पढ़ी हैं? तो सवाल का जवाब बेहद रूखे तरीके से मिलता है कि समय नहीं मिलता। कब पढ़ें हजारों गैर शैक्षिक काम करने पड़ते हैं। उन्हें समझने की जरूरत है कि आप जिस पेशे में हैं उसमें पढ़ना नितांत आवश्यक है। नहीं पढ़ेंगे तो बच्चों को नई तालीम और नई तकनीक से कैसे परिचित करा पाएंगे। कैसे आप अपने पढ़ाने के औजारों को नया रख पाएंगे।
वकील, डॉक्टर, शिक्षक, इंजीनियर आदि पढ़ेंगे नहीं तो अपने क्षेत्र में होने वाले शोधों, नवाचारों से कैसे अपने आप को अपडेट रख सकेंगे। उक्त पेशे में खुद को स्थापित करने और नई नई चुनौतियों से सामना करने के लिए पढ़ना बेहद जरूरी होता है। कई बार पढ़ना बोरियत भरा लगता है। लेकिन हमें इस मनोदशा से निकल पेशे के साथ न्याय करने के लिए पढ़ना होता है। शिक्षक जब सिर्फ और सिर्फ पाठ्य पुस्तकों तक खुद को महदूद रख लेता है तब इल्म की खुली जमीन की उर्वरकता का समुचित प्रयोग नहीं कर पाता। पाठ्य पुस्तकेत्तर किताबों को पढ़ने से तत्कालीन और अतीत के इतिहास, संस्कृति और भाषायी संपदा को समझने में मदद मिलती है।
- कौशलेंद्र प्रपन्न
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