Ticker

6/recent/ticker-posts

Ad Code

शिक्षामित्रों के समायोजन वैधता वाली याचिका, अब जनहित याचिका के सहारे

शिक्षामित्रों के समायोजन वैधता वाली याचिका,अब जनहित याचिका के सहारे
*भारत का उच्चतम न्यायालय - केन्द्रीय पक्ष*..जनहित याचिका (जहिया), भारतीय कानून में, सार्वजनिक हित की रक्षा के लिए मुकदमे का प्रावधान है।
अन्य सामान्य अदालती याचिकाओं से अलग, इसमें यह आवश्यक नहीं की पीड़ित पक्ष स्वयं अदालत में जाए। यह किसी भी नागरिक या स्वयं न्यायालय द्वारा पीडितों के पक्ष में दायर किया जा सकता है।
जहिया के अबतक के मामलों ने बहुत व्यापक क्षेत्रों, कारागार और बन्दी, सशस्त्र सेना, बालश्रम, बंधुआ मजदूरी, शहरी विकास, पर्यावरण और संसाधन, ग्राहक मामले, शिक्षा, राजनीति और चुनाव, लोकनीति और जवाबदेही, मानवाधिकार और स्वयं न्यायपालिका को प्रभावित किया है।[1] न्यायिक सक्रियता और जहिया का विस्तार बहुत हद तक समांतर रूप से हुआ है और जनहित याचिका का मध्यम-वर्ग ने सामान्यतः स्वागत और समर्थन किया है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि जनहित याचिका भारतीय संविधान या किसी कानून में परिभाषित नहीं है। यह उच्चतम न्यायालय के संवैधानिक व्याख्या से व्युत्पन्न है, इसका कोई अंत‍‍‍र्राष्ट्रीय समतुल्य नहीं है और इसे एक विशिष्ट भारतीय संप्रल्य के रूप में देखा जाता है।
इस प्रकार की याचिकाओँ का विचार अमेरिका में जन्मा। वहाँ इसे 'सामाजिक कार्यवाही याचिका' कहते है। यह न्यायपालिका का आविष्कार तथा न्यायधीश निर्मित विधि है। भारत में जनहित याचिका पी.एन.भगवती ने प्रारंभ की थी।
ये याचिकाएँ जनहित को सुरक्षित तथा बढाना चाहती है। ये लोकहित भावना पे कार्य करती हैं। ये ऐसे न्यायिक उपकरण है जिनका लक्ष्य जनहित प्राप्त करना है। इनका ल्क्ष्य तीव्र तथा सस्ता न्याय एक आम आदमी को दिलवाना तथा कार्यपालिका विधायिका को उनके संवैधानिक कार्य करवाने हेतु किया जाता है। ये 'समूह हित' में काम आती है ना कि व्यक्ति हित में। यदि इनका दुरूपयोग किया जाये तो याचिकाकर्ता पर जुर्माना तक किया जा सकता है। इनको स्वीकारना या ना स्वीकारना न्यायालय पर निर्भर करता है।
जनहित याचिकाओं की स्वीकृति हेतु उच्चतम न्यायालय ने कुछ नियम बनाये हैं-
1. लोकहित से प्रेरित कोई भी व्यक्ति, संगठन इन्हे ला सकता है2. कोर्ट को दिया गया पोस्टकार्ड भी रिट याचिका मान कर ये जारी की जा सकती है3. कोर्ट को अधिकार होगा कि वह इस याचिका हेतु सामान्य न्यायालय शुल्क भी माफ कर दे4. ये राज्य के साथ ही निजी संस्थान के विरूद्ध भी लायी जा सकती है
इसके लाभ
1. इस याचिका से जनता में स्वयं के अधिकारों तथा न्यायपालिका की भूमिका के बारे में चेतना बढती है यह मौलिक अधिकारों के क्षेत्र को वृहद बनाती है इसमे व्यक्ति को कई नये अधिकार मिल जाते है
2. यह कार्यपालिका विधायिका को उनके संवैधानिक कर्तव्य करने के लिये बाधित करती है, साथ ही यह भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की सुनिशिचतता करती है.


आलोचनाएं
1. ये सामान्य न्यायिक संचालन में बाधा डालती है
2. इनके दुरूपयोग की प्रवृति परवान पे है
इसके चलते सुप्रीम कोर्ट ने खुद कुछ बन्धन इनके प्रयोग पर लगाये है
जनहित याचिका नियमित न्यायिक चर्याओं से भिन्न है। हालाँकि यह समकालीन भारतीय कानून व्यवस्था का महत्वपूर्ण अंग है, आरम्भ में भारतीय कानून व्यवस्था में इसे यह स्थान प्राप्त नहीं था। इसकी शुरुआत अचानक नहीं हुई, वरन् कई राजनैतिक और न्यायिक कारणों से धीरे-धीरे इसका विकास हुआ। कहा जा सकता है कि ७० के दशक से शुरुआत होकर ८० के दशक में इसकी अवधारणा पक्की हो गयी थी। ए के गोपालन और मद्रास राज्य (१९-०५-१९५०) केस में उच्चतम न्यायालय ने संविधान की धारा २१ का शाब्दिक व्याख्या करते हुए यह फैसला दिया कि धारा में व्याख्यित 'विधिसम्मत प्रक्रिया' का मतलब सिर्फ उस प्रक्रिया से है जो किसी विधान में लिखित हो और जिसे विधायिका द्वारा पारित किया गया हो।[2] अर्थात्, अगर भारतीय संसद ऐसा कानून बनाती है जो किसी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार से अतर्कसंगत तरीके से वंचित करता हो, तो वह मान्य होगा। न्यायालय ने यह भी माना कि धारा २१ की विधिसम्मत प्रक्रिया में प्राकृतिक न्याय या तर्कसंगतता शामिल नहीं है। न्यायालय ने यह भी माना कि अम‍रीकी संविधान के उलट भारतीय संविधान में न्यायालय विधायिका से हर दृष्टिकोण में सर्वोच्च नहीं है और विधायिका अपने क्षेत्र (कानून बनाने) में सर्वोच्च है। इस फैसले की काफी आलोचना भी हुई लेकिन यह निर्णय २५ साल से भी ज्यादा समय तक बना रहा। ये उच्चतम न्यायालय के आरंभिक वर्ष थे जब इसका रुख सावधानीभरा और विधायिका समर्थक था। यह काल हर तरह से, आज के माहौल, जब न्यायिक समीक्षा की अवधारणा स्थापित हो चुकी है और न्यायालय को ऐसी संस्था के रूप में देखा जाता है जो नागरिकों को राहत प्रदान करता है और नीति-निर्माण भी करता है जिसका राज्य को पालन करना पड़ता है, से भिन्न था। बाद के फैसलों में, न्यायालयों की सर्वोच्चता स्थापित हुई और इस बीच विधायिका और न्यायपालिका के बीच मतभेद और संघर्ष भी हुआ। गोलक नाथ और पंजाब राज्य (१९६७) केस में ११ जजों की खंडपीठ ने ६-५ के बहुमत से माना कि संसद ऐसा संविधान संशोधन पारित नहीं कर सकता जो मौलिक अधिकारों का हनन करता हो। केशवानंद भारती और केरल राज्य (१९७३) केस में उच्चतम न्यायालय ने गोलक नाथ निर्णय को रद्द करते हुए यह दूरगामी सिद्दांत दिया कि संसद को यह अधिकार नहीं है कि वह संविधान की मौलिक संरचना को बदलने वाला संशोधन करे और यह भी माना कि न्यायिक समीक्षा मौलिक संरचना का भाग है। आपातकाल के दौरान नागरिक स्वतंत्रता का जो हनन हुआ था, उसमें उच्चतम न्यायालय के ए डी एम जबलपुर और अन्य और शिवकांत शुक्ला (१९७६) केस, जिसके फैसले में न्यायालय ने कार्यपालिका को नागरिक स्वतंत्रता और जीने के अधिकार को प्रभावित करने की स्वछंदता दी थी, का भी योगदान माना जाता है। इस फैसले ने अदालत के नागरिक स्वतंत्रता के संरक्षक होने की भूमिका प‍र प्रश्नचिह्न लगा दिया। आपातकाल (१९७५-१९७७) के पश्चात् न्यायालय के रुख में गुणात्मक बदलाव आया और इसके बाद जहिया के विकास को कुछ हद तक इस आलोचना की प्रतिक्रिया के रूप में देख सकते हैं।[1] मेनका गाँधी और भारतीय संघ (१९७८) केस में न्यायालय ने ए के गोपालन केस के निर्णय को पलटकर जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकारों को विस्तारित किया।
जहिया का प्रथम मुख्य मुकदमा १९७९ में हुसैनआरा खा़तून और बिहार राज्य (AIR 1979 SC 1360) केस में कारागार और विचाराधीन कैदियों की अमानवीय परिस्थितियों से संबद्ध था। यह एक अधिवक्ता द्वारा दि इंडियन एक्सप्रेस अखबार में छपे एक खबर, जिसमें बिहार के जेलों में बन्द हजारों विचाराधीन कैदियों का हाल वर्णित था, के आधार पर दायर किया गया था। मुकदमे के नतीजतन ४०००० से भी ज्यादा कैदियों को रिहा किया गया था। त्वरित न्याय को एक मौलिक अधिकार माना गया, जो उन कैदियों को नहीं दिया जा रहा था। इस सिद्धांत को बाद के केसों में भी स्वीकार किया गया। [3]
एम सी मेहता और भारतीय संघ और अन्य (१९८५-२००१) - इस लंबे चले केस में अदालत ने आदेश दिया कि दिल्ली मास्टर प्लान के तहत और दिल्ली में प्रदूषण कम करने के लिये दिल्ली के रिहायशी इलाकों से करीब १००००० औद्योगिक इकाईयों को दिल्ली से बाहर स्थानांतरित किया जाए। इस फैसले ने वर्ष १९९९ के अंत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में औद्योगिक अशांति और सामाजिक अस्थिरता को जन्म दिया था और इसकी आलोचना भी हुई थी कि न्यायालय द्वारा आम मजदूरों के हितों की अनदेखी पर्यावरण के लिये की जा रही है। इस जहिया ने करीब २० लाख लोगों को प्रभावित किया था जो उन इकाईयों में सेवारत थे। [4]
एक और संबद्ध फैसले में उच्चतम न्यायालय ने अक्टूबर २००१ में आदेश दिया कि दिल्ली की सभी सार्वजनिक बसों को चरणबद्ध तरीके से सिर्फ सी एन जी (कम्प्रेस्ड नेचुरल गैस) ईंधन से चलाया जाए।[5] क्योंकि यह माना गया कि सी एन जी डीज़ल की अपेक्षा कम प्रदूषणकारी है। हालाँकि बाद में यह भी पाया गया कि बहुत कम गंधक वाला डीज़ल (ULSD) भी एक अच्छा या बेहतर विकल्प हो सकता है।[6]
अब उक्त शीर्ष अदालत में पुनः 1,37000/ शिक्षामित्रों के समायोजन को बचाने के लिए की गई जनहित से उक्त पीड़ित वर्ग को बहुत बड़ी आपेक्षाएं हैं, कि उनके 17 वर्षों के निरन्तर परिश्रम का प्रतिफल अवश्य मिलेगा, नहीं तो, उक्त पीड़ित वर्गों न्यायालय पर विश्वसनीयता सदैव के लिए समाप्त हो जाएगी.. अब देखना व सोचना दिलचस्प होगा कि कल दिनांक - 24 नवम्बर को होने वाली माननीय सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पर, कैसा फैसला आता है?
हम सभी प्रभाभित  वर्गों को पूर्ण विश्वास है कि नयी वृहत पीठ अब पुनः हमारे साथ अन्याय नहीं करने देगी..  बाकि सब कुछ भगवान की मर्जी..
उक्त आपेक्षिक के साथ
*जय महाकाल*
जनपद - इलाहाबाद
sponsored links:
ख़बरें अब तक - 72825 प्रशिक्षु शिक्षकों की भर्ती - Today's Headlines

إرسال تعليق

0 تعليقات

latest updates

latest updates

Random Posts