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एक परिषदीय शिक्षक की व्यथा को कुछ शब्द देने की कोशिश... : 72825 प्रशिक्षु शिक्षकों की भर्ती Latest News

शिक्षक भटकें वेतन बिन, कब आएंगे अच्छे दिन .
बिन वेतन के खाएं क्या? भीख मांगने जाएँ क्या ?

कोई टीचर समझता है कोई लोफ़र समझता है।
गली का श्वान भी हमको निजी नौकर समझता है।

चलूँ जब थाम कर थैला फटीचर जैसे गलियों में,
समझता है कोई पागल कोई बेघर समझता है।
खिलौना जानकर खेलें सभी हाक़िम हमीं से अब,
ख़ुदा ये दर्द क्यों मेरा बड़ा कमतर समझता है।
मिली है ख़ाक़ में इज़्ज़त गई तालीम गड्ढे में,
जुदा होकर हमारे से क़लम डस्टर समझता है।
बड़े उस्ताद बनते थे चले थे राह दिखलाने,
ज़माना ही हमें अब राह की ठोकर समझता है।
सियासी खेल में बुनियाद ही कमज़ोर कर बैठे,
न ये नेता समझता है न ही वोटर समझता है।
बहे जाओ इसी रौ में, न कर निर्दोष तू शिकवा
हमारा दिल ये बेचारा यही रोकर समझता है।
रचनाकार- निर्दोष कान्तेय

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