केंद्र एवं राज्य सरकारों की उदासीनता के
कारण स्वतंत्रता के 70 वर्ष बाद भी देश के आम लोग अच्छी और सस्ती स्तरीय
शिक्षा तथा चिकित्सा के लिए तरस रहे हैं।
भारत जैसे विकासशील देशों में
प्रगति का एकमात्र माध्यम शिक्षा ही हो सकता है और इसी तथ्य को ध्यान में
रखते हुए वर्ष 2009 में भारत में ‘राइट टू एजुकेशन’ का प्रावधान किया गया
था।
इसका मुख्य उद्देश्य पूरे भारत में
शत-प्रतिशत साक्षरता प्राप्त करना है और इसके लिए 6 से 14 वर्ष के बच्चों
के लिए शिक्षा अनिवार्य की गई है परंतु अधिकांश स्कूलों में बुनियादी ढांचे
का अभाव है और अनेक सरकारी स्कूलों की अपनी इमारतें तक नहीं हैं।
राजस्थान के अलवर जिले के गांधी सवाईराम
गांव का सरकारी हायर सैकेंडरी स्कूल एक श्मशानघाट में चलाया जा रहा है और
जब भी वहां किसी मृतक का अंतिम संस्कार किया जाता है तो उक्त स्कूल के 180
छात्रों को 3 दिन की छुट्टी दे दी जाती है।
इस स्कूल के पूर्व छात्र 75 वर्षीय
प्रभु दयाल के अनुसार जब वह यहां पढ़ते थे तब भी स्कूल में इसी तरह छुट्टïी
करवाई जाती थी और आज जब उनका पोता यहां पढ़ रहा है, यह सिलसिला जारी है।
हरियाणा में 46 सरकारी स्कूलों की
इमारतें अत्यंत जर्जर हालत में तथा 11368 अन्य स्कूलों की इमारतें 40 वर्ष
से अधिक पुरानी हैं जिनकी तुरंत मुरम्मत वांछित है अन्यथा वहां कभी भी कोई
दुर्घटना हो सकती है।
इस बार 10वीं और 12वीं के परीक्षा
परिणामों में फरीदाबाद जिला अंतिम स्थान पर रहा था और कई स्कूलों का नतीजा
शून्य रहने पर उनके अध्यापकों को चार्जशीट भी किया गया।
इसीलिए इस वर्ष जिले में कोई भी अध्यापक
राष्टपति पुरस्कार के योग्य नहीं समझा गया और किसी भी अध्यापक का नाम
शिक्षक दिवस पर राष्टपति द्वारा सम्मानित करने के लिए नहीं भेजा गया।
पंजाब की धर्मकोट तहसील के 109 सरकारी
प्राइमरी स्कूलों में से 46 स्कूलों में मात्र 1 अध्यापक से काम चलाया जा
रहा है। कुछ स्कूलों में तो अध्यापकों की कमी के चलते कुछ छात्रों को ही
कक्षा के अन्य छात्रों को संभालने की जिम्मेदारी सौंपी हुई है।
धर्मकोट जिले के रेहड़वावां प्राइमरी
स्कूल में 140 छात्र हैं और इसके लिए अध्यापकों के 6 पद स्वीकृत हैं परंतु
यहां एक ही अध्यापक काम कर रहा है। जलालपुर के प्राइमरी स्कूल में किसी
रैगुलर अध्यापक की बात तो दूर, चपरासी तक नहीं है। यहां स्कूल की चाबियां
भी बच्चे ही संभालते हैं जो शाम को ताला लगाते और सुबह इमारत का ताला खोलते
हैं।
इस स्कूल में 2 वर्षों से अध्यापकों को
‘वीकली बेसिस’ पर तैनात किया जाता है और किसी-किसी दिन तो किसी अध्यापक के न
आने पर छात्रों को निराश वापस लौट जाना पड़ता है। जुलाई महीने के पहले तीन
सप्ताहों में यहां कोई अध्यापक ही नहीं आया।
जम्मू-कश्मीर के सरकारी स्कूलों में भी
विभागीय उदासीनता के कारण शिक्षा की हालत अत्यंत दयनीय है। स्कूलों में न
सिर्फ स्टाफ बल्कि बुनियादी ढांचे का भारी अभाव है। पुंछ जिले में एक
सरकारी स्कूल की अपनी इमारत न होने के कारण एक दुकान में स्कूल चलाए जाने
का समाचार था।
हिमाचल के भी अनेक स्कूलों में शिक्षक
नहीं हैं जबकि कुछ स्कूल ऐसे भी हैं जिनमें शिक्षक तो हैं लेकिन छात्र नहीं
हैं और इनकी दुर्दशा से स्पष्ट है कि लगभग सभी सरकारी स्कूल एक जैसी
समस्याओं से ही जूझ रहे हैं।
इसके लिए सरकारी स्कूलों में अध्यापन
तथा अन्य स्टाफ की कमी को पूरा करने, सरकारी स्कूलों के लिए पर्याप्त
इमारतों की व्यवस्था करने, जर्जर इमारतों की मुरम्मत तथा बुनियादी सुविधाओं
में सुधार करने, शौचालय बनवाने तथा स्कूलों के परिणाम के लिए अध्यापकों को
जवाबदेह बनाने की आवश्यकता है तभी देश में शिक्षा का अधिकार सही अर्थों
में लागू किया जा सकेगा और शिक्षा का स्तर ऊंचा उठ सकेगा।
इसके साथ ही सभी सरकारी जनप्रतिनिधियों,
नेताओं तथा कर्मचारियों के लिए यह अनिवार्य किया जाए कि वे अपने बच्चों को
सरकारी स्कूलों में ही पढ़ाएं तभी इनकी हालत में कुछ सुधार होगा।
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