इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डॉ. डीवाई चंद्रचूड़ को
स्थानांतरित किए जाने की कोलेजियम की सिफारिश के बाद उनके कार्यकाल के अहम
फैसले चर्चा में आ गए हैं।
चंद्रचूड़ ने अपने सवा दो साल के कार्यकाल में न सिर्फ न्यायिक प्रशासन को मजबूत दिशा दी बल्कि न्यायपालिका को लोकतंत्र के एक मजबूत स्तंभ के रूप में परिभाषित भी किया। उनके कई फैसले न्याय की नजीर के रूप में जाने जाते हैं।
चंद्रचूड़ के तबादले की सिफारिश ऐसे समय में हुई है जबकि इलाहाबाद हाईकोर्ट अपने डेढ़ सौ साल पूरे होने पर समारोह आयोजित करने जा रहा है।
इसकी रूपरेखा मुख्य न्यायाधीश के निर्देशन में ही तैयार हुई है। इसके अलावा हाईकोर्ट का डिजिटाइजेशन आदि कार्य अभी अधूरे हैं। इसके अलावा निचली अदालतों की सुरक्षा से जुड़ा मसला भी है जिसकी मानीटरिंग सात जजों की वृहदपीठ कर रही है। राज्य सरकार ने इसके लिए अलग से बजट भी निर्धारित कर रखा है। वैसे विधि क्षेत्र से जुड़े लोग इसे व्यवस्था के अंग के रूप में ही देखते हैं और कोलेजियम के फैसले से उन्हें कोई आश्चर्य नहीं है। हाईकोर्ट में तो एक हफ्ते पहले से ही यह खबर चर्चा में आ गई थी कि जस्टिस चंद्रचूड़ का तबादला होने जा रहा है।
डा. चंद्रचूड का तबादला यदि होता है तब भी इसका आदेश आने में अभी लगभग पंद्रह दिनों का वक्त लगेगा लेकिन उनके कार्यकाल को लेकर चर्चाएं होने लगी हैं। उन्होंने 31 अक्टूबर 2013 को इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश का पद संभाला था। लगभग दस लाख लंबित मुकदमों की संख्या एक बड़ी चुनौती थी और न्यायाधीशों के आधे से अधिक पद तब भी रिक्त थे। उन्होंने नियोजित तरीके से लंबित मुकदमों के निस्तारण पर ध्यान केंद्रित कराया। इसके अलावा न्यायिक अनुशासन पर भी हाईकोर्ट ने ध्यान केंद्रित किया। लखनऊ में ट्रेनी जजों के हुल्लड़ मचाने का मामला इसका उदाहरण था जबकि एक साथ 11 ट्रेनी जज बर्खास्त कर दिए गए। इसके साथ ही जिला कचहरी में अधिवक्ताओं को भी संदेश गया कि अराजकता पर उनके खिलाफ भी कार्रवाई हो सकती है और इसके लिए सभी जिला जजों से रिपोर्ट ली जाने लगी। इलाहाबाद हाईकोर्ट में आये दिन होने वाली हड़ताल पर भी उन्होंने अंकुश लगाया और इसके लिए हाईकोर्ट बार एसोसिएशन को भी विश्वास में लिया। लोकायुक्त प्रकरण में भी उन्होंने न्यायपालिका की साख को और ऊंचाई दी।
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चंद्रचूड़ ने अपने सवा दो साल के कार्यकाल में न सिर्फ न्यायिक प्रशासन को मजबूत दिशा दी बल्कि न्यायपालिका को लोकतंत्र के एक मजबूत स्तंभ के रूप में परिभाषित भी किया। उनके कई फैसले न्याय की नजीर के रूप में जाने जाते हैं।
चंद्रचूड़ के तबादले की सिफारिश ऐसे समय में हुई है जबकि इलाहाबाद हाईकोर्ट अपने डेढ़ सौ साल पूरे होने पर समारोह आयोजित करने जा रहा है।
इसकी रूपरेखा मुख्य न्यायाधीश के निर्देशन में ही तैयार हुई है। इसके अलावा हाईकोर्ट का डिजिटाइजेशन आदि कार्य अभी अधूरे हैं। इसके अलावा निचली अदालतों की सुरक्षा से जुड़ा मसला भी है जिसकी मानीटरिंग सात जजों की वृहदपीठ कर रही है। राज्य सरकार ने इसके लिए अलग से बजट भी निर्धारित कर रखा है। वैसे विधि क्षेत्र से जुड़े लोग इसे व्यवस्था के अंग के रूप में ही देखते हैं और कोलेजियम के फैसले से उन्हें कोई आश्चर्य नहीं है। हाईकोर्ट में तो एक हफ्ते पहले से ही यह खबर चर्चा में आ गई थी कि जस्टिस चंद्रचूड़ का तबादला होने जा रहा है।
डा. चंद्रचूड का तबादला यदि होता है तब भी इसका आदेश आने में अभी लगभग पंद्रह दिनों का वक्त लगेगा लेकिन उनके कार्यकाल को लेकर चर्चाएं होने लगी हैं। उन्होंने 31 अक्टूबर 2013 को इलाहाबाद हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश का पद संभाला था। लगभग दस लाख लंबित मुकदमों की संख्या एक बड़ी चुनौती थी और न्यायाधीशों के आधे से अधिक पद तब भी रिक्त थे। उन्होंने नियोजित तरीके से लंबित मुकदमों के निस्तारण पर ध्यान केंद्रित कराया। इसके अलावा न्यायिक अनुशासन पर भी हाईकोर्ट ने ध्यान केंद्रित किया। लखनऊ में ट्रेनी जजों के हुल्लड़ मचाने का मामला इसका उदाहरण था जबकि एक साथ 11 ट्रेनी जज बर्खास्त कर दिए गए। इसके साथ ही जिला कचहरी में अधिवक्ताओं को भी संदेश गया कि अराजकता पर उनके खिलाफ भी कार्रवाई हो सकती है और इसके लिए सभी जिला जजों से रिपोर्ट ली जाने लगी। इलाहाबाद हाईकोर्ट में आये दिन होने वाली हड़ताल पर भी उन्होंने अंकुश लगाया और इसके लिए हाईकोर्ट बार एसोसिएशन को भी विश्वास में लिया। लोकायुक्त प्रकरण में भी उन्होंने न्यायपालिका की साख को और ऊंचाई दी।
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