प्राथमिक विद्यालय का गिरता स्तर व इसका मुख्य कारण: यह लेख मा मुख्यमंत्री योगी जी व दूसरे सभी जिम्मेदार नेताओं अधिकारियों और आलोचकों के ध्यानाकर्षण के लिए मेगा सिंह की कलम से

यह लेख मा मुख्यमंत्री योगी जी व दूसरे सभी जिम्मेदार नेताओं अधिकारियों और आलोचकों के ध्यानाकर्षण के लिए है। जिससे वह प्राइमरी स्कूल के बच्चों की व्यथा और यहाँ के हालात को समझ सकें।
क्योंकि पिछली सरकारे केवल अपनी जिम्मेदारी छुपाकर अध्यापक पर दोषारोपण करती रही है काश योगी जी अध्यापक की इस ब्यथा को समझ सकें।
न्यूज चैनल पर *"उ.प्र. की बेसिक शिक्षा का गिरता स्तर"* पर चर्चा चली जिसमें अनेक विद्वान व कथित विद्वान लोगों ने भाग लिया और अपने अपने तर्क दिये। इस सम्बन्ध में टीवी पर बैठे लोगों से मैं एक प्रश्न करना चाहता हूँ कि आपमें से किसका बच्चा है जो केवल क्लास में ही पढ़ता है और घर पर किताब उठाकर न देखता हो और बिना अभिभावक या ट्यूटर के मेधावी बन गया हो।
आज बेसिक शिक्षा बदहाल तब दिखाई पड़ती है जब इसकी तुलना कान्वेंट स्कूल से की जाती है जबकि कान्वेंट व परिषदीय विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चे की पृष्ठभूमि में कोई नहीं जाना चाहता है।
कान्वेंट स्कूल में बच्चे के एडमिशन से पहले बच्चे के माता पिता की योग्यता का test होता है। फिर बच्चे का टेस्ट होता है। एडमिशन के बाद अभिभावक मोटी मोटी रकम फीस व किताबों में खर्च करता है बच्चे को विद्यालय से आने जाने वाले वाहन पर भी मोटी रकम खर्च करता है। अभिभावकों के शिक्षित होने के कारण इतनी मोटी रकम खर्च करने के उद्देश्य को यह शिक्षित अभिभावक भलीभांति जानते है और उनका पहला उद्देश्य मात्र अपने बच्चे की शिक्षा होती है।
शिक्षित व समृद्ध अभिभावक प्रतिदिन सुबह को अपने बच्चे को स्कूल की वैन आने से पूर्व समय से उठाकर पढ़ाते है उसके बाद नहलाकर uniform पहनाते है माँ बड़े प्यार से लंच बॉक्स तैयार करके उसके बैग में रखती है और घर से बाहर सड़क पर खड़े होकर वैन आने का इंतजार करते है जब बच्चा वैन में बैठ कर स्कूल चला जाता है उसके बाद माँ बाप की अपनी निजी जिंदगी के काम शुरू होते हैं।
बच्चे की छुट्टी के बाद माँ बाप उसको रिसीव करने के लिए फिक्रमन्द होते है और व्यापारी अपना व्यापार नौकरपेशा अपनी ड्यूटी से समय निकालकर बच्चे को रिसीव करता है।
बच्चा घर आने के बाद निर्धारित टाइम टेबल के अनुसार टीवी देखता व खेलता है उसके बाद माँ बाप या ट्यूटर बच्चे को लेकर बैठते है और स्कूल में कराये काम का 4 गुना काम होम वर्क के रूप में पूरा कराते है। यहाँ तक कि बच्चा सोने से पहले भी याद (learn) करता है।
छोटे छोटे बच्चों को स्कूल से प्रोजेक्ट के नाम पर ऐसे ऐसे काम मिलते जो छात्र तो कर ही नहीं सकता माता पिता को भी करने में पसीने छुट जाते हैं उसको तैयार करने में बाज़ार की खाक छाननी पड़ती है।
प्रति माह होनी वाली पेरेंट्स मीटिंग में चाहे व्यापार बंद करना पड़े या नौकरपेशा को CL लेनी पड़े लेकिन मीटिंग में भाग लेकर अपने बच्चे से जुडी जानकारी लेते है।
कहने का मतलब यह है कि उक्त अभिभावक वो है जो शिक्षित व समृद्ध हैं और अपने बच्चे को ही अपना भविष्य व पूँजी मानकर अपनी खुद की इच्छाओं से ज्यादा मेहनत अपने बच्चे पर करते हैं।
इसका दूसरा रूप सरकारी स्कूल में पड़ने वाले छात्र व उसके अभिभावक है। इन स्कूल में आने वाले 80% बच्चों के अभिभावकों को बच्चे के एड्मिसन से कोई मतलब ही नहीं है अध्यापक स्वयं गली अथवा गाँव में जाकर बच्चों को खोजकर उनका प्रवेश स्कूल में करता है जिसको प्रतिदिन अथवा समय से विद्यालय भेजने के प्रति उसके माता पिता को कोई मतलब नहीं होता है बल्कि जब बच्चे को कोई काम घर पर नहीं होता है तब बच्चा स्कूल की ओर रुख करता है इससे भी बड़ा एक और कारण कि ये ऐसे माता पिता है जिन्हें बच्चे की शिक्षा से पहले अपनी रोजी रोटी कमानी होती है आज कक्षा 5 से लेकर 8 तक का बच्चा 100 से लेकर150 रु रोज कमाता है इन गरीब बच्चों के माँ बाप आज इन बच्चों से पहले कमाई करवाना पसन्द करते है और समय बचे तो स्कुल भेजना होता है।
ग्रामीण क्षेत्र के सरकारी स्कुल का छात्र जब सुबह उठता है तो पहले घर के पालतू पशुओं के चारे की व्यवस्था करता है उसके पश्चात खेती या मजदूरी का काम देखता है और जब कोई काम नहीं होता तो खाली समय में स्कूल आता है उस दिन स्कूल में जो पड़कर जाता है उसे घर पर देखने वाले न अभिभावक हैं न ट्यूटर है।अर्थात जहाँ CONVENT स्कूल के छात्र के हाथ में 24घंटे में से लगभग 10 घंटे किताब होती है बहीं सरकारी स्कूल के छात्र के हाथ में हसिया या खुरपी होती है। एक ओर वो अभिभावक है जिसे उसका बच्चा ही सब कुछ है एक ओर वो है जिसे अपने भूखे पेट को भरने के लिए रोजी रोटी ही सब कुछ है।
पत्रकारों का कहना है कि कक्षा 2 के बच्चे को नाम लिखना नहीं आता ।मैं कहता हूँ कि कक्षा 2 यानि कान्वेंट का नर्सरी ,क्या नर्सरी का बच्चा अपना नाम लिख सकता है मुफ्त भोजन के चक्कर में न समझ अभिभावक 3-3 साल के बच्चे की उम्र अधिक बताकर कक्षा 1 में प्रवेश दिला देते हैं यानि 3साल पहले। जबकि कान्वेंट में PLAY,NURSARY,JUNIOR KG,SENIOR KG उसके बाद कक्षा1 में बच्चा आता है।आज परिषदीय स्कूल का कक्षा 4 के छात्र की आयु CONVENT वाले कक्षा 1 के छात्र के बराबर है।सरकार ने नीति बना दी कि बच्चे को फेल नहीं करना है। और इन सब के बावजूद हमेशा फंसता कौन है। कृपया पूरा लेख जरूर पढ़ें...
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एक शिक्षक की कलम से....
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वर्तमान परिस्थिति के कुछ सटीक विश्लेषण..
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मेरे प्रिय शिक्षक साथियों।
बहुत समय से मैं आत्मसंघर्ष से गुजर रहा हूँ
विचारों में, कर्म में और अभिव्यक्ति में भी।
परन्तु वस्तुत: मानसिक संघर्ष को आज आपके समक्ष व्यक्त करने से स्यवं को रोक नहीं पा रहा हूँ।
शिक्षक होना अपने आप में गर्व की बात है।
परन्तु अब ऐसा लग रहा है इस विकल्प को चुनकर घोर अपराध किया है। उस पर प्राथमिक शिक्षक होना "एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा" वाली कहावत को चरितार्थ करता है।
सरकारी स्कूलों मे प्राथमिक शिक्षा की दशा अत्यन्त शोचनीय है। यह कहने की आवश्यकता भी नहीं है। लेकिन ऐसी स्थिति के लिए जिम्मेदार किसे माना जाए यह यक्ष प्रश्न मेरे सम्मुख काफी समय से मुँह बाए खड़ा है, परन्तु जितना चिन्तन करता हूँ समस्या गहरी और बहुमुखी प्रतीत होती जाती है।
कभी प्रशासनिक स्तर, कभी संस्थागत स्तर पर, कभी व्यक्तिगत स्तर पर, कभी सामाजिक स्तर पर और कभी चयन के स्तर पर। परन्तु समस्या एक शिक्षक के लिए बहुआयामी है जबकि शेष समाज,
सरकार, प्रशासन के लिए समस्या एकल-आयामी है। वह शिक्षक को घूर के देखता है जैसे वही अपराधी हो।
बेसिक शिक्षा की सारी दुर्दशा का एकमात्र दोशी शिक्षक को माना जा रहा है। अच्छी विडम्बना है।
अब बात अपने प्राथमिक शिक्षा को लेकर करता हूँ। मैं भी सरकारी प्राथमिक स्कूल से कक्षा 5 उत्तीर्ण हूँ। तब न सही भवन थे, न ही किताबें मिलती थी, न ही ड्रेस मिलती थी, न ही मध्याह्न भोजन की व्यस्था थी, विद्यालय भी प्राय: दूर ही होते थे। प्रशासनिक नियन्त्रण व हस्तक्षेप न के बराबर था। परन्तु शिक्षा आज से कई गुना बेहतर थी। शिक्षक भी पर्याप्त संख्या में प्रत्येक विषय के अलग-2। शिक्षण के अलावा कोई कार्य नहीं था। न रोज सूचना देना था, न खाना बनवाना था, न बिल्डिंग बनवानी थी, न आडिट करवाना था, न प्रधान के घर के चक्कर लगाने थे और न अधिकारियों की चापलूसी करनी थी। मेरे प्राथमिक शैक्षिक जीवन में कभी विद्यालय का निरीक्षण भी न के बराबर हुआ। फिर भी अच्छी पढ़ाई होती थी। आज इसके जवाब में कहा जाता है तब शिक्षक ईमानदार चरित्रवान होते थे, पर आज नही है। अगर आज ईमानदार चरित्रवान शिक्षक कम हैं तो इसका जिम्मेदार कौन है..??? क्या चयन प्रणाली इसके लिए जिम्मेदार नही है..??? आज शिक्षक को कर्मचारी बना दिया गया है। किसने बनाया खुद शिक्षक ने..??? सरकार ने पहले उन्हे बिल्डर, टेलर, बुक सेलर, खानसामा, विभिन्न विभागों के भिन्न-2 पदों के कार्य सौंप दिये जैसे राजस्व विभाग, पंचायत विभाग, खाद्य आपूर्ति, स्वास्थ्य आदि । अब जब कर्मचारी बन गए हैं तो स्वाभाविक है कि कुछ गुण कर्मचारी के आ ही जाएंगे।
वाह रे नीति नियन्ता। अब उपदेश देते हैं शिक्षक धर्म का पालन करो।वो भी बिना किसी अधिकार के। जैसे बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1765-72 तक द्वैध शासन चलाया था। जिसमें अधिकार कंपनी के पास और कर्तव्य सारे नवाब करें। वैसी हालत हमारे बेशिक शिक्षा की है।
जब तक शिक्षा की नीति रीति शिक्षक स्यवं नही बनाएगा और ऊपर से हवा-हवाई नीतियाँ बनेगी तब तक शिक्षा व्यवस्था सुधरने से रही। दंडात्मक प्रक्रिया चलती रहेगी, प्रशासनिक हस्तक्षेप बढ़ता रहेगा, साथ ही शिक्षकों का शोषण बढ़ता रहेगा जिससे शिक्षा व्यवस्था का स्तर गिरता रहेगा। शिक्षा विभाग मे आज भी एक से बढ़कर एक बहुत से विद्वान शिक्षक मौजूद हैं परंतु चापलूसों और चाटुकारों के आगे उनकी कोई पहचान नहीं है।

नोट-इस पोष्ट को फारवर्ड/शेयर जरूर करें जिससे ये बातें शिक्षा के नीति-नियंताओं तक जरूर पहुँचे।

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