पांच सितंबर को शिक्षक दिवस की औपचारिकता के महज दो दिन बाद
ही लखनऊ में शिक्षक बनने का सपना देख रहे छह युवाओं ने सरकारी प्रपंच से
हताश होकर गोमती में कूद कर जान देने का प्रयास किया. दो ने तो अपनी नसें
तक काट डालीं. यह सब हुआ लखनऊ में प्रदेश भर से आए सहायक शिक्षक भर्ती
परीक्षा में शामिल रहे सम्भावित अध्यापकों की नाराज और उत्पीड़ित भीड़ के
बीच.
सरकारी भर्तियों पर लगातार सवाल
उत्तर प्रदेश में पिछले 10-15 वर्ष से सरकारी नौकरियों के लिए कोई भी चयन प्रक्रिया बेदाग या अविवादित नहीं रही. कई बार तो नौकरी करने लगे लोगों को तक अदालती पचड़ों में फंस कर नौकरियां गंवानी भी पड़ी हैं. शिक्षा विभाग तो खैर इस मामले में सबसे ज्यादा बदनाम हो चुका है. टीईटी पास बेरोजगारों का मामला हो या शिक्षा मित्रों का, बीटीसी पास अभ्यर्थियों की बात हो या सहायक अध्यापकों की भर्ती की, हर परीक्षा, हर चयन प्रक्रिया भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद के दुष्चक्र में फंस गई.
सहायक शिक्षकों की भर्ती की तो पहली परीक्षा में भी भारी अंधेर हुआ था. 2011 में हुई परीक्षा में 72,825 पदों के लिए चयन होना था, लेकिन वह पूरी परीक्षा ही बार बार बदलते नियमों की भेंट चढ़ गई. तत्कालीन शिक्षा निदेशक संजय मोहन इस परीक्षा में हुए भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते जेल तक गए और आवेदकों को न्याय के लिए कई-कई बार सुप्रीम कोर्ट तक के चक्कर लगाने पड़े. योगी सरकार ने दावा किया था कि इस बार की चयन प्रक्रिया पूर्णतः भ्रष्टाचार मुक्त एवं पारदर्शी होगी लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा.
भ्रष्टाचार और गड़बड़ियों की सैकड़ों शिकायतें मिलने के बाद योगी सरकार ने गड़बड़ियों की जांच के लिए एक समिति बनाई. हालांकि इस समिति मे वे लोग भी सदस्य बनाए गए जिनके खिलाफ जांच होनी थी. लेकिन गड़बड़ियां इतनी बेशर्मी से की गई थीं कि मुख्यमंत्री को मामले का संज्ञान लेते हुए परीक्षा व्यवस्था की जिम्मेदार रहीं सचिव सुक्ता सिंह को तत्काल प्रभाव से निलंबित करना पड़ा. बेसिक शिक्षा परिषद के सचिव को भी उनके पद से हटा दिया गया. कइयों पर अभी गाज गिरनी बाकी है.
इन गड़बड़ियों की शिकायत हाईकोर्ट में भी पहुंची है. वहां पाया गया कि मनचाहों को उत्तीर्ण करने के लिए भारी हेरा फेरी की गई है. हाईकोर्ट के आदेश पर तलब कापियों में अभ्यर्थियों को जितने नंबर मिले हैं, रिजल्ट में उससे बहुत कम दर्ज किए गए हैं. मसलन रिजवाना नाम की अभ्यर्थी को कापी में 87 नंबर मिले हैं जबकि रिजल्ट में सिर्फ सात चढ़ाए गए हैं. इसी तरह अजमल के 92 नंबर रिजल्ट में 39 हैं और अजय वीर के 81 नंबर रिजल्ट तक आते आते 52 बन गए हैं. ऐसे मामले हजारों हैं.
शिक्षा की बदहाली और सरकार की पोल
यह पूरा प्रकरण उत्तर प्रदेश में शिक्षा की बदहाली और शिक्षा व्यवस्था के प्रति सरकारी रवैय्ये की कलई खोल देता है. बच्चे देश का भविष्य माने जाते हैं लेकिन सरकारों का कार्यकाल 5-10 साल का ही होता है. शायद इसीलिए उत्तर प्रदेश में सरकारी स्तर पर दी जाने वाली प्राथमिक शिक्षा की दशा लगातार बिगड़ती ही जा रही है. शिक्षा की वार्षिक स्थिति की सरकारी रिपोर्ट (एएसईआर) के मुताबिक यूपी में तीसरी कक्षा के महज सात फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा की किताब पढ़ पाते हैं. ग्रामीण स्कूलों के कक्षा पांच के 56 फीसदी बच्चे पढ़ नहीं पाते और 8.2 फीसदी तो अक्षर तक नहीं पढ़ पाते.
हर बच्चे पर होने वाले खर्च के मामले में राज्य पहले नंबर पर है. मगर राज्य में प्राथमिक शिक्षकों की भी बेहद कमी है. 18 हजार से ज्यादा प्राइमरी स्कूल ऐसे हैं जहां सिर्फ एक ही कर्मचारी है. स्कूलों में शौचालय, पीने के पानी जैसी समस्याएं तो हैं ही, हजारों स्कूलों में भवन या तो हैं ही नहीं या फिर वे इस लायक नहीं रह गए कि वहां बैठ कर पढ़ाई की जा सके. पढ़ाई का स्तर बेहद खराब है. गुणवत्ता बढ़ाने और निरीक्षण की व्यवस्थाएं खत्म हो चुकी हैं. ज्यादातर सरकारी स्कूल सिर्फ गरीब बच्चों के दोपहर के भोजनालय बन कर रह गए हैं.
ऐसी स्थितियों में जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शिक्षकों को उलाहना दिया कि वे अनिवार्य रूप से अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं ताकि वहां शिक्षा का स्तर सुधर सके तो इसकी शिक्षक समुदाय में तीखी प्रतिक्रिया हुई. अध्यापक संगठनों ने मुख्यमंत्री के बयान को कटे पर नमक छिड़कने वाली हरकत बताया. प्राथमिक शिक्षक संघ का कहना है कि शिक्षकों को इस तरह का ताना मारने से पहले सरकार को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए. उनका सवाल है कि सरकार शिक्षा महकमे में भ्रष्टाचार को खत्म करने की पहल क्यों नहीं करती. वे यह भी पूछ रहे हैं कि बिना भवन, बिना शिक्षक और बिना संसाधनों के किस तरह उत्तर प्रदेश के नौनिहाल शिक्षा हासिल कर रहे हैं, यह सरकार को दिखता क्यों नहीं है.
जूनियर हाईस्कूल शिक्षक संघ के पदाधिकारी सुरेश जायसवाल कहते हैं, ‘हम पढ़ाएं कब? पूरा समय तो मिड डे मील के इंतजाम में लग जाता है. उपर से स्वेटर खरीद जैसे काम भी हमीं पर थोप दिए जाते हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘सरकारी स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं और अच्छी मॉनीटरिंग की कमी है. इसलिए हमें मजबूरी में अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना पड़ता है.’ प्राथमिक शिक्षक संघ के मंत्री वीरेन्द्र सिंह कहते हैं, ‘पहले नेता और अधिकारी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं, इसके बाद शिक्षक खुद ब खुद आगे आएंगे.’
लेकिन यह ‘नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी’ जैसी स्थिति है. नेता और अधिकारी खुद अभी ऐसा करेंगे, इसमें शक है. शिक्षकों की मांग या सलाह मानने की बात तो दूर उत्तर प्रदेश की चतुर ब्यूरोक्रेसी ने तो इस बारे में इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश तक को ताक पर रख दिया है. 18 अगस्त 2015 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश किया था कि सरकार एक ऐसा कानून बनाए जिसके तहत सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों और नेताओं के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़वाना अनिवार्य कर दिया जाय. अदालत का कहना था कि ऐसा होने से सरकारी स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता मे सुधार आ सकेगा. राज्य के मुख्य सचिव को इसके लिए छह महीने का वक्त दिया गया था. मगर तत्कालीन समाजवादी सरकार ने कानून बनाने के बजाय इस आदेश के खिलाफ स्पेशल अपील कर डाली. कोई राहत नहीं मिली तो फिर समीक्षा याचिका दायर कर दी गई जो अब तक अनिर्णीत है.
इतना ही नहीं, समाजवादी सरकार ने अफसरों के बच्चों को उच्च स्तर की विशेष शिक्षा दिलाने के लिए लखनऊ में चक गंजरिया इलाके में 10 एकड़ में 109 करोड़ की लागत से ‘संस्कृति स्कूल’ का निर्माण शुरू कर दिया. यह स्कूल 2760 बच्चों को हर साल शिक्षा देगा. इसमें पढ़ाई शुरू भी हो चुकी है. अफसरों के वीआईपी बच्चे इसमें पढ़ेंगे. आम आदमियों के भूखे बच्चे सरकारी स्कूलों की बदहाल व्यवस्था में मिड डे मील खा कर अपना और देश का भविष्य उज्ज्वल बनाएंगे, और योगी जी या और कोई दूसरा नेता स्कूली शिक्षा की दशा में आमूलचूल परिवर्तन कर देने का दावा करता रहेगा.
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सरकारी भर्तियों पर लगातार सवाल
उत्तर प्रदेश में पिछले 10-15 वर्ष से सरकारी नौकरियों के लिए कोई भी चयन प्रक्रिया बेदाग या अविवादित नहीं रही. कई बार तो नौकरी करने लगे लोगों को तक अदालती पचड़ों में फंस कर नौकरियां गंवानी भी पड़ी हैं. शिक्षा विभाग तो खैर इस मामले में सबसे ज्यादा बदनाम हो चुका है. टीईटी पास बेरोजगारों का मामला हो या शिक्षा मित्रों का, बीटीसी पास अभ्यर्थियों की बात हो या सहायक अध्यापकों की भर्ती की, हर परीक्षा, हर चयन प्रक्रिया भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद के दुष्चक्र में फंस गई.
सहायक शिक्षकों की भर्ती की तो पहली परीक्षा में भी भारी अंधेर हुआ था. 2011 में हुई परीक्षा में 72,825 पदों के लिए चयन होना था, लेकिन वह पूरी परीक्षा ही बार बार बदलते नियमों की भेंट चढ़ गई. तत्कालीन शिक्षा निदेशक संजय मोहन इस परीक्षा में हुए भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते जेल तक गए और आवेदकों को न्याय के लिए कई-कई बार सुप्रीम कोर्ट तक के चक्कर लगाने पड़े. योगी सरकार ने दावा किया था कि इस बार की चयन प्रक्रिया पूर्णतः भ्रष्टाचार मुक्त एवं पारदर्शी होगी लेकिन हुआ इसका ठीक उल्टा.
भ्रष्टाचार और गड़बड़ियों की सैकड़ों शिकायतें मिलने के बाद योगी सरकार ने गड़बड़ियों की जांच के लिए एक समिति बनाई. हालांकि इस समिति मे वे लोग भी सदस्य बनाए गए जिनके खिलाफ जांच होनी थी. लेकिन गड़बड़ियां इतनी बेशर्मी से की गई थीं कि मुख्यमंत्री को मामले का संज्ञान लेते हुए परीक्षा व्यवस्था की जिम्मेदार रहीं सचिव सुक्ता सिंह को तत्काल प्रभाव से निलंबित करना पड़ा. बेसिक शिक्षा परिषद के सचिव को भी उनके पद से हटा दिया गया. कइयों पर अभी गाज गिरनी बाकी है.
इन गड़बड़ियों की शिकायत हाईकोर्ट में भी पहुंची है. वहां पाया गया कि मनचाहों को उत्तीर्ण करने के लिए भारी हेरा फेरी की गई है. हाईकोर्ट के आदेश पर तलब कापियों में अभ्यर्थियों को जितने नंबर मिले हैं, रिजल्ट में उससे बहुत कम दर्ज किए गए हैं. मसलन रिजवाना नाम की अभ्यर्थी को कापी में 87 नंबर मिले हैं जबकि रिजल्ट में सिर्फ सात चढ़ाए गए हैं. इसी तरह अजमल के 92 नंबर रिजल्ट में 39 हैं और अजय वीर के 81 नंबर रिजल्ट तक आते आते 52 बन गए हैं. ऐसे मामले हजारों हैं.
शिक्षा की बदहाली और सरकार की पोल
यह पूरा प्रकरण उत्तर प्रदेश में शिक्षा की बदहाली और शिक्षा व्यवस्था के प्रति सरकारी रवैय्ये की कलई खोल देता है. बच्चे देश का भविष्य माने जाते हैं लेकिन सरकारों का कार्यकाल 5-10 साल का ही होता है. शायद इसीलिए उत्तर प्रदेश में सरकारी स्तर पर दी जाने वाली प्राथमिक शिक्षा की दशा लगातार बिगड़ती ही जा रही है. शिक्षा की वार्षिक स्थिति की सरकारी रिपोर्ट (एएसईआर) के मुताबिक यूपी में तीसरी कक्षा के महज सात फीसदी बच्चे दूसरी कक्षा की किताब पढ़ पाते हैं. ग्रामीण स्कूलों के कक्षा पांच के 56 फीसदी बच्चे पढ़ नहीं पाते और 8.2 फीसदी तो अक्षर तक नहीं पढ़ पाते.
हर बच्चे पर होने वाले खर्च के मामले में राज्य पहले नंबर पर है. मगर राज्य में प्राथमिक शिक्षकों की भी बेहद कमी है. 18 हजार से ज्यादा प्राइमरी स्कूल ऐसे हैं जहां सिर्फ एक ही कर्मचारी है. स्कूलों में शौचालय, पीने के पानी जैसी समस्याएं तो हैं ही, हजारों स्कूलों में भवन या तो हैं ही नहीं या फिर वे इस लायक नहीं रह गए कि वहां बैठ कर पढ़ाई की जा सके. पढ़ाई का स्तर बेहद खराब है. गुणवत्ता बढ़ाने और निरीक्षण की व्यवस्थाएं खत्म हो चुकी हैं. ज्यादातर सरकारी स्कूल सिर्फ गरीब बच्चों के दोपहर के भोजनालय बन कर रह गए हैं.
ऐसी स्थितियों में जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने शिक्षकों को उलाहना दिया कि वे अनिवार्य रूप से अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं ताकि वहां शिक्षा का स्तर सुधर सके तो इसकी शिक्षक समुदाय में तीखी प्रतिक्रिया हुई. अध्यापक संगठनों ने मुख्यमंत्री के बयान को कटे पर नमक छिड़कने वाली हरकत बताया. प्राथमिक शिक्षक संघ का कहना है कि शिक्षकों को इस तरह का ताना मारने से पहले सरकार को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए. उनका सवाल है कि सरकार शिक्षा महकमे में भ्रष्टाचार को खत्म करने की पहल क्यों नहीं करती. वे यह भी पूछ रहे हैं कि बिना भवन, बिना शिक्षक और बिना संसाधनों के किस तरह उत्तर प्रदेश के नौनिहाल शिक्षा हासिल कर रहे हैं, यह सरकार को दिखता क्यों नहीं है.
जूनियर हाईस्कूल शिक्षक संघ के पदाधिकारी सुरेश जायसवाल कहते हैं, ‘हम पढ़ाएं कब? पूरा समय तो मिड डे मील के इंतजाम में लग जाता है. उपर से स्वेटर खरीद जैसे काम भी हमीं पर थोप दिए जाते हैं.’ वे आगे कहते हैं, ‘सरकारी स्कूलों में मूलभूत सुविधाओं और अच्छी मॉनीटरिंग की कमी है. इसलिए हमें मजबूरी में अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाना पड़ता है.’ प्राथमिक शिक्षक संघ के मंत्री वीरेन्द्र सिंह कहते हैं, ‘पहले नेता और अधिकारी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाएं, इसके बाद शिक्षक खुद ब खुद आगे आएंगे.’
लेकिन यह ‘नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी’ जैसी स्थिति है. नेता और अधिकारी खुद अभी ऐसा करेंगे, इसमें शक है. शिक्षकों की मांग या सलाह मानने की बात तो दूर उत्तर प्रदेश की चतुर ब्यूरोक्रेसी ने तो इस बारे में इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश तक को ताक पर रख दिया है. 18 अगस्त 2015 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश किया था कि सरकार एक ऐसा कानून बनाए जिसके तहत सरकारी अधिकारियों, कर्मचारियों और नेताओं के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़वाना अनिवार्य कर दिया जाय. अदालत का कहना था कि ऐसा होने से सरकारी स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता मे सुधार आ सकेगा. राज्य के मुख्य सचिव को इसके लिए छह महीने का वक्त दिया गया था. मगर तत्कालीन समाजवादी सरकार ने कानून बनाने के बजाय इस आदेश के खिलाफ स्पेशल अपील कर डाली. कोई राहत नहीं मिली तो फिर समीक्षा याचिका दायर कर दी गई जो अब तक अनिर्णीत है.
इतना ही नहीं, समाजवादी सरकार ने अफसरों के बच्चों को उच्च स्तर की विशेष शिक्षा दिलाने के लिए लखनऊ में चक गंजरिया इलाके में 10 एकड़ में 109 करोड़ की लागत से ‘संस्कृति स्कूल’ का निर्माण शुरू कर दिया. यह स्कूल 2760 बच्चों को हर साल शिक्षा देगा. इसमें पढ़ाई शुरू भी हो चुकी है. अफसरों के वीआईपी बच्चे इसमें पढ़ेंगे. आम आदमियों के भूखे बच्चे सरकारी स्कूलों की बदहाल व्यवस्था में मिड डे मील खा कर अपना और देश का भविष्य उज्ज्वल बनाएंगे, और योगी जी या और कोई दूसरा नेता स्कूली शिक्षा की दशा में आमूलचूल परिवर्तन कर देने का दावा करता रहेगा.
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