...ये सब तो ठीक है लेकिन सुयोग्‍य शिक्षक आएंगे कहां से जो बदलेंग नजरिया

गुजन राजपूत। मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने हाल ही में शिक्षा के क्षेत्र में सरकार की उपलब्धियों का विस्तार से जिक्र किया है जो वाकई में सरकार की शिक्षा जगत की तस्वीर बदलने की सोच की महत्ता को दर्शाता है। जावड़ेकर ने अपने एक लेख में बताया है कि शिक्षक जितना सुयोग्य होता है
शिक्षा उतनी ही सार्थक होती है। यह कथन हर मायने में सही है परंतु एक सवाल पैदा करता है, ‘आखिरकार सुयोग्य शिक्षक लाएं कहां से?’1किसी भी क्षेत्र के विकास के लिए जरूरी है उस क्षेत्र में काम करने वाले कुछ होनहारों की और अगर होनहार लोग नहीं हैं तो उन्हें होनहार बनाने की। किसी भी क्षेत्र में काम करने के लिए युवाओं को उस क्षेत्र का चयन करना होगा और उस क्षेत्र के विकास का जिम्मा लेना होगा। अब मोड़ आता है कि क्षेत्र तो सबसे ज्यादा वही आकर्षित होगा जिसका बाजार ज्यादा भव्य होगा।

मिसाल के तौर पर पिछले ही महीने खबर आई कि आइआइटी मद्रास की स्नेहा रेड्डी को गूगल कंपनी ने करीब डेढ़ करोड़ रुपये के पैकेज का प्रस्ताव दिया। इससे यह एहसास हुआ एक भर्ती सर्कस के शो के शुरू होने का, जो देश में आइआइटी और आइआइएम के कैंपस में जाता है, कानपुर से कोझिकोड, अहमदाबाद से कलकत्ता तक, जीवन बदलने वाली सुर्खियां। हमारा भारतीय मीडिया भी इंजीनियरिंग एवं बिजनेस स्कूल कैंपस भर्ती के लिए जुनूनी है। समाचार पत्र भी इस उत्सव के लिए बड़े-बड़े आलेख समर्पित करते हैं। और यह कहानियां आमतौर पर इस प्रकार से आती हैं- एक्स को वाइ करोड़ रुपये के औसत वेतन की नौकरी मिली, किसी के संघर्ष की कहानी जिसमें किसी छात्र या छात्र को एक विदेशी कंपनी ने वाइ करोड़ रुपये का जबरदस्त पैकेज का ऑफर दिया और आखिरकार कुछ लड़कों और लड़कियों की कहानी जिन्होंने कैंपस प्लेसमेंट से लगी नौकरियों को छोड़ने और अपने स्वयं के उद्यम स्थापित करने का फैसला किया।

इसी के विपरीत अखबारों की खबरें हमारे ही देश के एक अन्य तबके का हाल यह भी बताती हैं कि एक स्कूल की विज्ञान की शिक्षिका को अपने प्रतिमाह के 28,500 रुपये के वेतन में से 6,000 रुपये स्कूल को वापस न करने की स्थिति में उन्हें हटा दिया गया। एक दूसरी खबर के अनुसार रायबरेली के कुछ अंशकालिक शिक्षकों का समूह अपने मासिक वेतन 7,000 रुपये से 5,000 रुपये होने की वजह से सोनिया गांधी के ऑफिस के बाहर धरने पर बैठे। और फिर खराब शिक्षक, उच्च छात्र-शिक्षक अनुपात, अपर्याप्त शिक्षण समग्री जैसी खबरें भी हैं। इसका  मतलब यह नहीं कि आइआइटी या आइआइएम की खबरें सराहनीय नहीं है। परंतु बात यहां एक तरह का बाजार तैयार करने का है। अगर हम बाजार में सिर्फ खबरों में किसी एक क्रीम के बारे में ही पढ़ेंगे जिसे लगाने से हम गोरे, जवान और सुंदर दिखने लगेंगे तो लगभग हम में से बहुत से लोग उसी क्रीम को खरीदने का प्रयास करेंगे।
यही हो रहा है हमारे समाज में शिक्षण पेशे को लेकर। आमतौर पर हमारे युवा ऐसे पेशे की तरफ आर्कषित होते हैं जहां वह बहुत ही बड़ी संख्या वाले वेतन, अच्छे सूट बूट पहन कर एयरकंडीशन कमरे में बैठ कर काम कर सकें। कम ही देख पाएंगे हम ऐसे युवाओं को जो रोज की खबरों में छाए हुए एक ऐसे अध्यापक की तरह बनना चाहते होंगे जिसका वेतन शायद एक विदेशी कंपनी में काम कर रहे बाबू से कई मायनो में कम है। ये सभी समाचार एक ऐसा माहौल तैयार करते हैं जिससे हमारे युवा इन संस्थानों के प्रति ज्यादा आकर्षित होते हैं। क्या आपने कभी भारत के शीर्ष 10 बीएड कॉलेजों के बारे में सुना है? क्या हमने कभी शिक्षक बनने के लिए कॉलेजों में जेईई जैसी संयुक्त परीक्षा के बारे में सुना है?

उपरोक्त के अलावा और भी अनेक परीक्षाएं हैं जिनके लिए युवाओं में प्रतिस्पर्धा का माहौल बना रहता है, जैसेकि नाटा की परीक्षा आर्किटेक्चर विधा के लिए, नीट की परीक्षा मेडिकल के लिए, क्लॉट की परीक्षा लॉ कॉलेज एनएलयू में दाखिले के लिए, एनडीए की परीक्षा डिफेंस के लिए, निफ्ट की परीक्षा फैशन डिजाइनिंग के लिए, एएनसीएचएमसीटी की परीक्षा होटल मैनेजमेंट के आइएचएम में एडमिशन के लिए। इनके अलावा और भी परीक्षाएं अलग-अलग व्यवसायों के लिए आयोजित होती हैं। क्यों शिक्षकों को तैयार करने वाली प्रवेश परीक्षाएं सिर्फ एक विश्वविद्यालय के स्तर पर सिमट कर रह जाती है? एक नजर समाचारों की सुर्खियों पर डालते हैं- राष्ट्रीय स्तर की शिक्षण प्रशिक्षण पाठ्यक्रम की परीक्षा में देश के विभिन्न राज्यों से करीब 10 लाख आवेदन आए, युवाओं के बीच शिक्षण प्रशिक्षण संस्थाआें में भर्ती लेने की होड़, फलाने शिक्षण प्रशिक्षण संस्थान के फलाने छात्र अध्यापक को फलाने स्कूल ने इनते करोड़ रुपये का वेतन ऑफर किया, फलाने देश के प्रतिष्ठित विद्यालय ने भारत के फलाने शिक्षक परीक्षण संस्थान में ऑनलाईन परीक्षा के जरिये इतने छात्रों को चयनित किया।
भारतीय मूल के वह शिक्षक देश के स्कूली शिक्षा के प्रतिनिधि चयनित हुए। क्या ये खबरें मजबूर नहीं करेंगी हमारे युवाओं को इस अवसर के बारे में सोचने को। भारत सरकार 20,000 करोड़ रुपये खर्च करेगी देशभर में छह नए आइआइटी बनाने में। इतनी रकम सरकार खर्च करेगी स्कूली शिक्षा का स्तर बढ़ाने में। सभी सुर्खियां मन को लुभाने वाला माहौल तैयार करती हैं। तो क्यों न खर्च किया जाए कुछ विश्वस्तरीय दौड़ में शामिल होने वाले शिक्षण प्रशिक्षण संस्थाओं पर और कह दिया जाए ऐसी संस्थाओं से कि जो शीर्ष वर्ग के शिक्षक बनाएगा, इस रेस को जीतने का हकदार वही होगा।


नोन-डिटेंशन पॉलिसी के हटने, बीएड पाठ्यक्रम के दो साल से चार साल का होने से कहीं ज्यादा जरूरी है एक ऐसे माहौल को पुनर्जीवित करने का जहां सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों या स्कूलों के सर्वश्रेष्ठ छात्र शिक्षक बनने की लड़ाई में भी शामिल हों अन्यथा हमारे भारतीय शिक्षक की परिभाषा सिर्फ साधारण कपड़े वाले, बिना फैशन किए हुए, स्कूल में समय पर न पहुंचने वाले, स्कूलों से लापता रहने वाले, 7,000 रुपये से 5,000 रुपये की लड़ाई लड़ने वाले की रह जाएगी।