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हाईकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक: बेसिक शिक्षा परिषद उत्तर प्रदेश की RTE एक्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट में मौजूद मुकदमो की तसदीक

हाइकोर्ट से सुप्रीम कोर्ट तक :  बेसिक शिक्षा परिषद उत्तर प्रदेश की RTE एक्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट में मौजूद मुकदमो की तसदीक : राहुल 'अविचल' आज मै शिक्षक भर्ती के मामले में मुकदमे के ऐसे विन्दुओं पर चर्चा करने चल रहा हूँ जिसपर आज के पूर्व कभी भी वार्ता नहीं की है ।
शिक्षामित्रों ने बड़ा नाम हरीश  साल्वे साहब को आज मैदान में उतारा और न्यायमूर्ति थे जस्टिस श्री दीपक मिश्रा और जस्टिस माननीया आर. भानुमती जी ।
माननीया आर. भानुमती जी को NCTE, सर्विस रूल , NCTE गाइडलाइन और शिक्षामित्रों के विषय में प्रकांड ज्ञान है ।
अतः अब किसी वकील द्वारा कोर्ट को गुमराह नहीं किया जा सकता है ।
किसी भी पद पर चयन प्रक्रिया के लिए एक सेवा नियमावली होती है इसका निर्माण संविधान के अनुच्छेद 309 के अवलोक में होता है ।
उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा के लिए निर्मित नियमावली का नाम उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा (शिक्षक) नियमावली , 1981 है ।
जो कि बेसिक शिक्षा एक्ट 1972 के आधारभूत ढांचे पर निर्मित है ।
नियमावली के क्लॉज़ 8 में शिक्षक बनने की योग्यता बतायी गयी गयी है और समय-समय पर अन्य योग्यताओं को भी स्थान मिला है ।
उदाहरण के तौर पर शिक्षक बनने की योग्यता बीटीसी है, परंतु दिनांक 14 जनवरी 2004 को SBTC को भी स्थान मिला क्योंकि BTC का अभाव था ।
सरकार बीटीसी और SBTC के लिए चयन अपनी मनमर्जी से शासनादेश के जरिये कर लेती है लेकिन शिक्षक बनने के लिए पूर्ण रूप से नियमावली का अनुपालन होता है ।
जैसे क्लॉज़ 14 से विज्ञापन जारीकर्ता और चयन के आधार का विवरण , क्लॉज़ 6 से उम्र की उम्र की गणना , क्लॉज़ 9 से रिजर्वेशन आदि आदि ।

RTE एक्ट लागू होने के बाद बीएड वालों को  सहायक अध्यापक पद पर  डायरेक्ट नियुक्ति का एक निश्चित समय के लिए अधिकार मिला, मगर यह शर्त थी कि नियुक्ति के बाद छः माह का विशेष कार्यक्रम पूरा कराया जाये ।
इस प्रकार सरकार के पास सिर्फ दो विकल्प था
1. अपनी नियमावली में प्रशिक्षु शिक्षक का कैडर बनाती और उसी पर नियमावली के सभी क्लॉज़ का अनुपालन करके नियुक्त करती और नियुक्ति के बाद छः महीने का प्रशिक्षण देकर सबको सहायक अध्यापक पद पर समायोजित कर देती ।
2. बीएड वालों को डायरेक्ट सभी नियम का पालन करते हुए सहायक अध्यापक पद पर नियुक्त करती और छह महीने के प्रशिक्षण के बाद सब स्वतः पूर्ण वेतन के हकदार हो जाते ।

इसी प्रकार सरकार अपनी नियमावली में भी वर्ष 1999 ई० में शिक्षामित्र का कैडर बनायी होती तो नियमावली से सभी को शिक्षामित्र पद पर नियुक्त करती और भविष्य में जब भी चाहती तो प्रशिक्षण कराकर सहायक अध्यापक पद पर समायोजित कर देती मगर सरकार ने इनको नियमावली में स्थान न देकर संविदा पर चयन किया इसलिए जब सरकार ने शिक्षामित्रों को सर्विस रूल का अनट्रेंड टीचर बताकर प्रशिक्षण की इजाजत प्राप्त कर ली तो लोगों ने उनको संविदाकर्मी बताकर प्रशिक्षण का विरोध किया तो एकल बेंच ने स्टे दिया लेकिन खंडपीठ  ने कहा कि इनको ट्रेनिंग करा दी जाये और यदि मुकदमे में संविदाकर्मी साबित हुए तो इनका प्रशिक्षण रद्द मान लिया जायेगा ।

सरकार ने प्रशिक्षण कराने के बाद उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा नियमावली 1981 में संशोधन 19वां किया और दो चरण में 1.37 लाख शिक्षामित्रों को सहायक अध्यापक पद पर समायोजित कर दिया ।
अर्थात शिक्षामित्र पद पर चयन के समय तो इनका सर्विस रूल में स्थान नहीं था लेकिन समायोजन के समय इनको सर्विस रूल में स्थान दे दिया ।
यदि सरकार वर्ष 1999 ई० में चाही होती तो बेशक नाम शिक्षामित्र रहता लेकर नियमावली के सहायक अध्यापक पद की शर्तों के साथ नियमावली के सभी नियमों का पालन करके चयन की होती तब भी ये सहायक अध्यापक पद पर समायोजित हो जाते , तब ये कहा जाता कि मात्र नाम शिक्षामित्र था बाकी चयन सहायक अध्यापक जैसा ही हुआ था ।
मगर नियमावली में वर्ष 1998 में ही सहायक अध्यापक  बनने की योग्यता स्तानक+बीटीसी कर दी गयी थी अतः शिक्षामित्र के रूप में चयन सहायक अध्यापक पद की शर्तों के साथ चयन संभव ही नहीं था ।

जब शिक्षामित्रों का सहायक अध्यापक पद पर समायोजन होने लगा तो  उस विषय में  मैंने यही तर्क दिया कि नियमावली का  संशोधन 19 अल्ट्रावायरस होगा क्योंकि शिक्षामित्र का प्राविधान नियमावली में नहीं था और न ही ये शिक्षामित्र पद पर चयन के समय सहायक अध्यापक बनने की योग्यता रखते थे ।
कुछ लोग कहेंगे कि केंद्रीय नियम में इंटरमीडिएट योग्यता ही थी तो उनको जानना होगा कि वर्ष 2001 तक उत्तर प्रदेश राज्य का अपनी नियमावली पर पूर्ण अधिकार था और शिक्षामित्र  बीटीसी के रूप में प्रशिक्षु भी नहीं थे अतः पूर्णतया अयोग्य थे ।

माननीय न्यायमूर्ति श्री (डॉ०) धनञ्जय यशवंत चंद्रचूड जिनका जन्म ही जज बनने के लिए हुआ था कि तीन जजों की पीठ का आदेश पढ़िए उन्होंने यही कहा है कि ये सर्विस रूल में शिक्षामित्र पद पर चयन के समय नहीं थे अतः सर्विस रूल में किया गया गया संशोधन 19 अल्ट्रावायरस घोषित किया जाता है ।
इस प्रकार शिक्षामित्रों का समायोजन हाई कोर्ट द्वारा निरस्त हुआ और उक्त आदेश पर सुप्रीम कोर्ट में अभी सरकार और शिक्षामित्र समुदाय को स्थगन आदेश प्राप्त  है ।
फाइनल बहस में परम विद्वान श्री हरीश साल्वे भी इनकी नैया नहीं बचा पाएंगे लेकिन उनके आने से 72825 की भर्ती में एक नया मोड़ आयेगा ।

वक़्त के पहले ही मैंने अपना विचार रखा है , जब हाई कोर्ट में 99 हजार भर्ती पर अभी हाल में बहस चल रही थी तो मेरे पास उसके मुख्य याची श्रीकांत दुबे का फोन आया था और श्रीकांत दुबे इसके लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं कि मैं यदि गलत बोलूं तो मेरा खंडन कर सकते हैं ।
श्रीकांत जी ने कहा कि भैया मेरा 15 हजार भर्ती में चयन नहीं हुआ तो अकादमिक मेरिट को चैलेन्ज कर दिया पर मेरा अगली भर्ती 16 हजार में चयन हो गया है , अंतिम निर्णय क्या होगा ।
मैंने कहा कि श्रीकांत दुबे तुम यह मुकदमा हाई कोर्ट से जीत रहे हो लेकिन अभी तुम्हारी नौकरी भी बची रहेगी ।
अंतिम निर्णय सुप्रीम कोर्ट से होगा और परिणाम भी वही रहा और हाई कोर्ट ने सबकी नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट के CA 4347-4375/14 के अंतिम निर्णय के आधीन कर दी मगर मुकदमा भी हाई कोर्ट से श्रीकांत दुबे ही जीते हैं क्योंकि हाई कोर्ट ने 99 हजार भर्ती अवैध कर दी है ।

शुरुवात में ही मैंने लिखा है कि बीएड का चयन RTE एक्ट के बाद सर्विस रूल से होगा ।
इनका मुकदमा सुप्रीम कोर्ट में पेंडिंग है ,
सरकार ने पुराना विज्ञापन न तो नियमावली में प्रशिक्षु शिक्षक का कैडर बनाकर ही निकाला और न ही सहायक अध्यापक की चयन की शर्तों के साथ ही निकाला ।
सरकार ने RTE एक्ट के बाद वजूद खो चुकी SBTC की भर्ती जैसा विज्ञापन निकाल दिया जिससे की प्रशिक्षण के बाद तब नियमावली से नियुक्ति होती
प्रशिक्षण के लिए भी चयन सहायक अध्यापक की शर्तों के साथ नहीं किया ।
यह सुप्रीम कोर्ट का आदेश है कि यदि सर्विस रूल है तो फिर उसकी शर्तों की अवमानना नहीं की जा सकती है ।
नियमावली के क्लॉज़ 14 (1) में लिखा था कि विज्ञापन सिर्फ BSA निकाल सकता है लेकिन वह विज्ञापन सचिव ने निकाला था इसलिए उसपर स्टे हो गया और नयी सरकार ने दिनांक 31 अगस्त 2012 को उस विज्ञापन को निरस्त कर दिया ।
नियमावली में संशोधन 15 किया जिसपर बीएड के लिए सहायक अध्यापक का विज्ञापन आता लेकिन उससे मेरा चयन संभव नहीं था इसलिए बीएड के लिए प्रशिक्षु कैडर का निर्माण और उसके लिए अलग चयन के आधार  प्रारूप पर मैंने ध्यान केंद्रित किया ।
नियमावली का संशोधन 16 हुआ और बीएड के लिए नया कैडर बना और अलग चयन का आधार बना ।
संशोधन 16 से रूल का 14(1) जो कि SBTC, BTC और उर्दू बीटीसी वालों की सहायक अध्यापक पद पर नियुक्ति की बात करता है उसे रूल 14(1)(A) में स्थान मिला , उस वक़्त मैंने रूल 14(1) में वर्णित जिला वरीयता पर ध्यान केंद्रित नहीं किया अन्यथा 16वें संशोधन से रूल 14(1)(A) बनते समय इसे ख़त्म करा दिया जाता ।
ऐसे लोग जो चाहते हैं कि जिला वरीयता पर मुकदमा भी सुप्रीम कोर्ट से ही निर्णीत हो जाये तो उनको खंडपीठ में पेंडिंग काउंटर काल को सुप्रीम कोर्ट में SLP के जरिये चैलेन्ज करना चाहिए और इसको लेकर एक नजीर भी जस्टिस श्री DY चंद्रचूड के आदेश के रूप में मौजूद है ।
मगर मेरा SBTC/BTC/उर्दू बीटीसी की नियुक्ति प्रक्रिया में कोई इंटरेस्ट नहीं था ।
अतः इन सब पर ध्यान केंद्रित नहीं किया ।

इस प्रकार  फिर दिनांक 7 दिसंबर 2012 को बीएड के लिए  नया विज्ञापन आया और कुछ याचियों ने सरकार द्वारा रद्द पुराने विज्ञापन को बहाल करने की मांग की ।
दिनांक 16 जनवरी 2013 को एकल बेंच में जस्टिस
श्री अरुण टंडन पुराना ने पुराना विज्ञापन को बहाल करने की मांग वाली याचिका खारिज कर दी ।
जस्टिस श्री अरुण टंडन ने कहा कि वह विज्ञापन  सहायक अध्यापक की शर्तों को पूरा करने वाला विज्ञापन नहीं है और नियमावली में प्रशिक्षु शिक्षक का कैडर नहीं है इसलिए प्रशिक्षु शिक्षक का विज्ञापन नहीं आ सकता था और राज्य सरकार ने उसे निरस्त कर दिया है अतः वह बहाल नहीं किया जा सकता है ।

खंडपीठ ने यह कहकर नये विज्ञापन पर रोक लगा दी कि पहले चाहे नियुक्ति होती या ट्रेनिंग चयन समान व्यक्ति का होता जबकि वस्तुतः ऐसा नहीं था , उसी बीच नॉन टीईटी के घटनाक्रम के बाद तीन जजों की पीठ ने
NCTE की गाइडलाइन के क्लॉज़ 9बी के तहत टीईटी वेटेज की बाध्यता अनिवार्य कर दिया ।
जस्टिस श्री अशोक भूषण और जस्टिस श्री विपिन सिन्हा की पीठ ने नियमावली का संशोधन 15 अलग-अलग यूनिवर्सिटी बोर्ड के मुद्दे पर अल्ट्रावायरस कर दिया ।
टीईटी मेरिट को टीईटी वेटेज समझकर और पुराने विज्ञापन को सहायक अध्यापक की शर्तों वाला विज्ञापन समझकर बहाल कर दिया ।
जबकि वह विज्ञापन सहायक अध्यापक की शर्तों वाला विज्ञापन नहीं था ।
इस प्रकार वह विज्ञापन सर्विस रूल में प्रशिक्षु शिक्षक का कैडर न होने के कारण न तो  प्रशिक्षु शिक्षक के रूप में खरा उतरता है और न ही खंडपीठ द्वारा सहायक अध्यापक का विज्ञापन बताये जाने के बावजूद सहायक अध्यापक की शर्त ही पूरी करता है ।
हक़ीक़त यह है कि खंडपीठ ने विज्ञप्ति पर ध्यान ही नहीं दिया अन्यथा या तो उसे रद्द करना पड़ता या फिर मॉडिफाई करना पड़ता ।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने सभी अंतरिम आदेश  यह समझकर दिए कि वह विज्ञापन सहायक अध्यापक का विज्ञापन है और सरकार ने बीच में ही उसे रद्द करके नियम बदलकर नया विज्ञापन निकाल दिया है ।
इस तरह शिक्षामित्र और बीएड के पुराने विज्ञापन की दशा एक समान है और बड़े वकील इस पर अपनी जोरदार आजमाइस करेंगे ।
सबसे इंट्रेस्टिंग फैक्ट यह है कि जब रूल से हटकर चयन प्रक्रिया शुरू हुई तब मैं उसके विरुद्ध कोर्ट  गया क्योंकि रूल और विज्ञापन में विवाद होने पर रूल फॉलो होता है ।
विरोध का पारितोषक भी व्यक्तिगत रूप से मुझे मिला है लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि यदि सुप्रीम कोर्ट ने NCTE की गाइडलाइन की क्लॉज़ 9बी को राज्य पर बाध्यकारी बता दिया तो फिर 99 हजार शिक्षक अवैध हो जायेंगे और बीएड का नया विज्ञापन भी ख़त्म हो जायेगा तब ऐसी सूरत में ये लोग पुराने विज्ञापन को भी बगैर रूल के साबित कर देंगे और कोर्ट इसे डिले कहकर इसलिए नहीं बचा पाएगी क्योंकि विज्ञापन यदि रूल पर नहीं है तो वह सरकार द्वारा दिनांक 31 अगस्त 2012 को ही निरस्त किया जा चुका है ।
यदि सुप्रीम कोर्ट ने गाइडलाइन की क्लॉज़ 9बी की बाध्यता राज्य पर  ख़त्म की तो बीएड का नया विज्ञापन बहाल हो जायेगा और 99 हजार लोग भी बच जाएंगे लेकिन तब पुराने विज्ञापन के चयनितों का क्या होगा क्योंकि शिक्षामित्र उन्ही को अपने बचने का आधार बनाएंगे ।
यह मुकदमा अब अतिशीघ्र निर्णीत होगा ।
सुप्रीम कोर्ट में व्यक्तिगत रूप से मेरी दो SLP पेंडिंग हैं और जिसका आधार खंडपीठ का आदेश है और 99 हजार लोगों के सुप्रीम कोर्ट पहुँचने के बाद एक और  SLP की इच्छा मन में फाइल करने की हो रही है ।
सब कुछ स्पष्ट है और मुकदमे में फाइनल आदेश का ही महत्त्व होता है ।

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