शिक्षक दिवस: शिक्षकों का अभाव - कैसे होगा बदलाव?

अध्यापक शैक्षिक प्रक्रिया का केन्द्रीय किरदार है। विद्यार्थियों को केन्द्र में रख कर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की कोई परिकल्पना अध्यापक के बिना सम्पन्न नहीं हो सकती। अध्यापक विद्यार्थियों के मन-मस्तिष्क में चलने वाली हलचल को पढ़ता है और उसके मुताबिक अपनी योजनाओं का निर्धारण करता है।
वह दूरदर्शी दार्शनिक के रूप में काम करता हुआ बच्चों पर प्रोत्साहनकारी प्रभाव छोड़ता है। अध्यापक से मिली प्रेरणा विद्यार्थी के लिए संजीवनी बूटी का कार्य करती है। निरंकुश तानाशाह बनने की बजाय यदि अध्यापक विद्यार्थियों का मित्र-पथप्रदर्शक बन जाए तो देश के विकास में चमत्कार हो सकता है।
अपने स्तर पर तो अनेक अध्यापक अपनी बाल केंद्रित सोच, शिक्षण विधियों, प्रतिबद्धता की बदौलत मिसाल कायम कर रहे हैं। लेकिन व्यवस्था के स्तर पर बेहतर माहौल व सुविधाएं प्रदान करके बेहतर अध्यापनकर्म की परिकल्पना कागजों में धूल फांक रही हैं और स्कूलों की स्थितियां कुछ और ही कहानी बयां कर रही हैं।
ऐसा नहीं है अध्यापकों की व्यक्तिगत कमजोरियां नहीं हैं। लेकिन व्यवस्थागत खामियों के चलते यह कमजोरियां विकराल रूप धारण करके शिक्षा संस्थानों की सामुदायिक भूमिका बढ़ाने और शैक्षिक विकास में आड़े आ रही हैं।
सबसे दुखद तो यह है कि एक तरफ तो अध्यापक को गुरू जी कह कर उसका महिमामंडन कर दिया जाता है और दूसरी तरफ उसे सबसे दोयम दर्जे का कर्मचारी घोषित कर दिया गया है।
एक कर्मचारी की तरह ही सरकार व शिक्षा विभाग उसके साथ पेश आते हैं। फिर लगातार ऐसी परिस्थितियां पैदा की जा रही हैं, जिससे अध्यापक को आसानी से कामचोर, अपनी राह से भटका हुआ, भ्रष्ट और बच्चों की शिक्षा की घोर उपेक्षा करने वाला घोषित एवं सिद्ध किया जा सके।
व्यवस्था परिवर्तन में अहम भूमिका निभाने वाले शिक्षक को ही व्यवस्था ने अपने निशाने पर ले लिया है। इन्हीं कारणों से सरकारी स्कूलों के अध्यापकों की विश्वासनीयता के बारे में तरह-तरह की बातें की जाती हैं।
शानदार परीक्षा-परिणामों और सामाजिक भूमिका के बावजूद सरकारी स्कूलों और अध्यापकों की लानत- मलानत की जा रही है। कुछ स्वार्थी लोग शिक्षा के निजीकरण का राग अलाप रहे हैं।
सरकारी स्तर पर भी लोगों की मेहनत और सामूहिक भागीदारी से खोले गए सरकारी स्कूलों के निजीकरण के लिए जोरदार ढ़ंग से कोशिशें की जा रही हैं। शिक्षकों में भी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले प्राथमिक शिक्षक को शिक्षा जगत का एक निरीह प्रणाी बना दिया गया है।
एक तरफ जहां निजी प्ले स्कूल व प्राथमिक स्कूल चलाने वाले लोग अपने स्कूलों में सुविधाएं बढ़ा कर अभिभावकों को आकर्षित कर रहे हैं। वहीं राजकीय प्राथमिक पाठशालाओं में सुविधाओं का अकाल पसरा रहता है।
प्राथमिक पाठशालाओं में कम से कम अध्यापकों से ज्यादा से ज्यादा परिणाम की उम्मीद की जा रही है। आर्थिक रूप से सपन्न माने जाने वाले प्रदेश में आज भी कितने ही प्राथमिक स्कूल बिना किसी अध्यापक के चलाए जा रहे हैं।
कईं स्कूलों में बच्चों की बड़ी संख्या के बावजूद एक अध्यापक से काम चलाया जा रहा है। धीरे-धीरे उनमें बच्चे भी कम हो रहे हैं। एक अध्यापक के भरोसे चल रहे स्कूल में भी यदि बच्चे बने हुए हैं तो यह साफ है कि परिवारों की इतनी हैसियत नहीं है कि वे अपने बच्चों को किसी निजी स्कूल में भेज पाएं।
शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के बावजूद स्कूलों में पर्याप्त अध्यापकों की व्यवस्था नहीं करके देश के नौनिहालों को अज्ञानता के अंधेरे में धकेला जा रहा है। इस स्थिति की जिम्मेदारी तो सरकार व शिक्षा विभाग की है, लेकिन इसका ठीकरा प्राय: अध्यापक के सिर पर फूटता है।
क्योंकि स्कूल में मौजूद अध्यापक ही लोगों को सरकार का प्रतिनिधि लगता है। यदि प्राथमिक पाठशाला के गैर-शैक्षिक एवं लिपिकीय कार्यों की बात करें तो वे थोड़े नहीं हैं। यह सारे कार्य अध्यापकों को ही करने पड़ रहे हैं।
अध्यापक पर लिपिकीय कार्यों की जिम्मेदारी डाल देना क्या उसे लिपिक बनाने की कोशिश नहीं है। लिपिक ही नहीं अधिकतर प्राथमिक पाठशालाओं में तो सफाई कर्मचारी व चपड़ासी भी नहीं है।
पाठशाला में सफाई करना या विद्यार्थियों से करवाना, चपड़ासी के सारे कार्य खुद वहन करना, मिड-डे- मील की एक-एक ग्राम सामग्री का हिसाब-किताब रखना, सिलैंडर लेकर आना, सब्जी व अन्य सामान लेकर आना जैसे कार्य करने के साथ-साथ कितने अध्यापक अपने बच्चों पर कैसे ध्यान दे पाएंगे। इस बारे में सोचने वाला कोई दिखाई नहीं दे रहा है।
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