नए शिक्षा सत्र की शुरुआत में ही प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने-पढ़ाने के प्रति जो अरुचि एवं उदासीनता दिखी, वह निराशाजनक है। केंद्र और राज्य सरकार प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए पानी की तरह पैसा बहा रही हैं। इसके बावजूद न शिक्षक पढ़ाने में रुचि लेते हैं और न विद्यार्थी पढ़ने में। प्राथमिक शिक्षा के खस्ताहाल की वजह से प्रदेश में माध्यमिक और उच्च शिक्षा का भी स्तर गिरता जा रहा है।
राज्य सरकार यदि प्राथमिक शिक्षा को बदहाली से बाहर निकालना चाहती है तो विद्यालयों के लिए एक पारदर्शी निगरानी प्रणाली विकसित करनी होगी। इस प्रणाली का सर्वाधिक प्रभावी यंत्र ग्राम पंचायतें हो सकती हैं जो विद्यालय के तय समय पर खुलने-बंद होने, शिक्षकों और विद्यार्थियों की उपस्थिति और पठन-पाठन के माहौल पर नजर रखें और इसकी रिपोर्ट बेसिक शिक्षा अधिकारी को नियमित रूप से भेजें। इसके अलावा कई अन्य विकल्प तलाशे जा सकते हैं। अपवाद छोड़कर अधिकतर ग्रामीण विद्यालयों के पास सरकारी या किराए पर ठीक-ठाक भवन हैं जहां बिजली, पानी और टॉयलेट की भी सुविधा है। इन विद्यालयों में लाखों शिक्षक नियुक्त हैं। इसके बावजूद यहां पढ़ाई नहीं होती। विद्यालयों के खुलने और बंद होने का समय कागजों पर निर्धारित है, पर इसका पालन नहीं होता। यह शिक्षक की मनमानी पर निर्भर करता है कि विद्यालय कब खुलेगा और कब बंद होगा। अधिकतर विद्यालयों का सबसे बड़ा आकर्षण मिड डे मील है जिसका वितरण होते ही बच्चे घर चले जाते हैं।
प्राथमिक विद्यालयों की दुर्गति का अहम कारण जवाबदेही का निर्धारण न होना है। मिडडे मील की व्यवस्था प्राथमिक शिक्षा को मजबूत करने के लिए की गई थी। लक्ष्य था कि मिडडे मील से बच्चों को पौष्टिक आहार मिलेगा और वे विद्यालयों की ओर आकृष्ट होंगे। इस लक्ष्य के विपरीत मिडडे मील व्यवस्था ने प्राथमिक शिक्षा में कई नई विसंगतियां पैदा करके कोढ़ में खाज जैसे हालात बना दिए। वक्त की मांग है कि राज्य सरकार अपनी प्राथमिक शिक्षा नीति की गहन मीमांसा करें और इसके सुराख चिह्न्ति करके एक सुदृढ़ प्राथमिक शिक्षा तंत्र खड़ा करे। जब तक प्राथमिक शिक्षा की सेहत नहीं सुधरती, शिक्षा की स्थिति में समग्र सुधार का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता।
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राज्य सरकार यदि प्राथमिक शिक्षा को बदहाली से बाहर निकालना चाहती है तो विद्यालयों के लिए एक पारदर्शी निगरानी प्रणाली विकसित करनी होगी। इस प्रणाली का सर्वाधिक प्रभावी यंत्र ग्राम पंचायतें हो सकती हैं जो विद्यालय के तय समय पर खुलने-बंद होने, शिक्षकों और विद्यार्थियों की उपस्थिति और पठन-पाठन के माहौल पर नजर रखें और इसकी रिपोर्ट बेसिक शिक्षा अधिकारी को नियमित रूप से भेजें। इसके अलावा कई अन्य विकल्प तलाशे जा सकते हैं। अपवाद छोड़कर अधिकतर ग्रामीण विद्यालयों के पास सरकारी या किराए पर ठीक-ठाक भवन हैं जहां बिजली, पानी और टॉयलेट की भी सुविधा है। इन विद्यालयों में लाखों शिक्षक नियुक्त हैं। इसके बावजूद यहां पढ़ाई नहीं होती। विद्यालयों के खुलने और बंद होने का समय कागजों पर निर्धारित है, पर इसका पालन नहीं होता। यह शिक्षक की मनमानी पर निर्भर करता है कि विद्यालय कब खुलेगा और कब बंद होगा। अधिकतर विद्यालयों का सबसे बड़ा आकर्षण मिड डे मील है जिसका वितरण होते ही बच्चे घर चले जाते हैं।
प्राथमिक विद्यालयों की दुर्गति का अहम कारण जवाबदेही का निर्धारण न होना है। मिडडे मील की व्यवस्था प्राथमिक शिक्षा को मजबूत करने के लिए की गई थी। लक्ष्य था कि मिडडे मील से बच्चों को पौष्टिक आहार मिलेगा और वे विद्यालयों की ओर आकृष्ट होंगे। इस लक्ष्य के विपरीत मिडडे मील व्यवस्था ने प्राथमिक शिक्षा में कई नई विसंगतियां पैदा करके कोढ़ में खाज जैसे हालात बना दिए। वक्त की मांग है कि राज्य सरकार अपनी प्राथमिक शिक्षा नीति की गहन मीमांसा करें और इसके सुराख चिह्न्ति करके एक सुदृढ़ प्राथमिक शिक्षा तंत्र खड़ा करे। जब तक प्राथमिक शिक्षा की सेहत नहीं सुधरती, शिक्षा की स्थिति में समग्र सुधार का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकता।
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