अदालत ने माना कि यूपीएससी अध्यक्ष की नियुक्ति संबंधी मानक तय करने का उसे अधिकार नहीं है, लेकिन कहा कि सरकार अपने इस दायित्व से नहीं बच सकती
सरकार इस मामले में लगातार बचाव पेश कर रही थी कि दीपक गुप्ता के सेवानिवृत्त हो जाने के चलते इस मामले को रद्द किए जाने की ज़रूरत है। सरकार की दलील को नकारते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले में केंद्र सरकार समेत सभी पक्षकारों को नोटिस जारी किया और जवाब दाखिल करने को कहा। करीब एक साल से अधिक सुनवाई के बाद अदालत इस नतीजे पर पहुंची है कि भले ही दीपक गुप्ता के सेवानिवृत्त हो गए हों, लेकिन संघ लोक सेवा के अध्यक्ष और सदस्य के चयन की स्पष्ट प्रक्रिया न होने पर याचिकाकर्ता का सवाल वाजिब है। कोर्ट ने सरकार की इस दलील को भी स्वीकार किया कि उसे संघ लोक सेवा के अध्यक्ष और सदस्य के चयन के लिए कानून बनाने या गाइडलाइन तय करने का अधिकार नहीं है और यह काम सरकार का है, लेकिन उसने इस बात पर जोर दिया कि सरकार अपनी इस जिम्मेदारी से भाग नहीं सकती है।
इसमें शक नहीं कि संघ और राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति आज पूरी तरह से राजनीतिक जुगाड़ पर आधारित हो गई है। नियुक्ति की कोई स्पष्ट प्रक्रिया और मापदंड न होने के चलते सरकारें किसी को भी ऐसे महत्वपूर्ण पद पर बैठाकर उपकृत करने का काम लंबे समय से करती चली आ रही हैं। करीब दो साल पहले ऐसे ही एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अनिल यादव को बर्खास्त कर दिया था। यह पूरे भारत में पहला ऐसा मामला था, जिसमें राजनीतिक नियुक्ति के आधार पर किसी लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष को बर्खास्त किया गया था। अनिल यादव पर कई आपराधिक मामले होने के बावजूद उनकी नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया एक ही दिन में पूरी कर ली गई थी।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद उत्तर प्रदेश सरकार को राज्य लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्य के चयन के मानक और प्रक्रिया निर्धारित करनी पड़ी। इसके बाद पहली बार उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग को अध्यक्ष के चयन के लिए विज्ञापन निकालना पड़ा। पंजाब हाईकोर्ट ने भी वहां के लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों के चयन के लिए ऐसे ही मानक तय करने का दिशानिर्देश जारी किया था। इन निर्णयों को उच्चतम न्यायालय ने अपने परीक्षण में सही पाया था।
ऐसे में संघ लोक सेवा के अध्यक्ष और सदस्य के चयन की प्रक्रिया और मानक तय करने को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट का मौजूदा फैसला अपने आप में महत्वपूर्ण हो जाता है। दीपक गुप्ता को संघ लोक सेवा आयोग का सदस्य न होने के बावजूद उसका अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। याचिकाकर्ता ने आरटीआई से जो सूचना हासिल की है, उससे साफ है कि आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किए जाने की कोई स्पष्ट प्रक्रिया और मानक न होने के चलते ही यह नियुक्ति संभव हुई थी। इसलिए यह जरूरी है कि ऐसे महत्वपूर्ण पदों पर पारदर्शी नियुक्ति के लिए चयन का स्पष्ट मानदंड और प्रक्रिया हो। मगर बात सिर्फ संघ लोक सेवा आयोग की नहीं है। कई और संवैधानिक पद हैं, जहां इस तरह की पारदर्शी प्रक्रिया और मानदंड को अपनाने की जरूरत है जैसे रिजर्व बैंक का गवर्नर, नीति आयोग का उपाध्यक्ष, प्रदेशों के राज्यपाल, विभिन्न राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों के महानिदेशक या प्रशासक इत्यादि। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार न्यायालय के दिशानिर्देश के मंतव्य को समझते हुए इसे न केवल संघ लोकसेवा आयोग के मामले में बल्कि अन्य महत्वपूर्ण पदों के संदर्भ में भी लागू करेगी।
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इसमें शक नहीं कि संघ और राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति आज पूरी तरह से राजनीतिक जुगाड़ पर आधारित हो गई है। नियुक्ति की कोई स्पष्ट प्रक्रिया और मापदंड न होने के चलते सरकारें किसी को भी ऐसे महत्वपूर्ण पद पर बैठाकर उपकृत करने का काम लंबे समय से करती चली आ रही हैं। करीब दो साल पहले ऐसे ही एक मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष अनिल यादव को बर्खास्त कर दिया था। यह पूरे भारत में पहला ऐसा मामला था, जिसमें राजनीतिक नियुक्ति के आधार पर किसी लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष को बर्खास्त किया गया था। अनिल यादव पर कई आपराधिक मामले होने के बावजूद उनकी नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया एक ही दिन में पूरी कर ली गई थी।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद उत्तर प्रदेश सरकार को राज्य लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्य के चयन के मानक और प्रक्रिया निर्धारित करनी पड़ी। इसके बाद पहली बार उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग को अध्यक्ष के चयन के लिए विज्ञापन निकालना पड़ा। पंजाब हाईकोर्ट ने भी वहां के लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों के चयन के लिए ऐसे ही मानक तय करने का दिशानिर्देश जारी किया था। इन निर्णयों को उच्चतम न्यायालय ने अपने परीक्षण में सही पाया था।
ऐसे में संघ लोक सेवा के अध्यक्ष और सदस्य के चयन की प्रक्रिया और मानक तय करने को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट का मौजूदा फैसला अपने आप में महत्वपूर्ण हो जाता है। दीपक गुप्ता को संघ लोक सेवा आयोग का सदस्य न होने के बावजूद उसका अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। याचिकाकर्ता ने आरटीआई से जो सूचना हासिल की है, उससे साफ है कि आयोग का अध्यक्ष नियुक्त किए जाने की कोई स्पष्ट प्रक्रिया और मानक न होने के चलते ही यह नियुक्ति संभव हुई थी। इसलिए यह जरूरी है कि ऐसे महत्वपूर्ण पदों पर पारदर्शी नियुक्ति के लिए चयन का स्पष्ट मानदंड और प्रक्रिया हो। मगर बात सिर्फ संघ लोक सेवा आयोग की नहीं है। कई और संवैधानिक पद हैं, जहां इस तरह की पारदर्शी प्रक्रिया और मानदंड को अपनाने की जरूरत है जैसे रिजर्व बैंक का गवर्नर, नीति आयोग का उपाध्यक्ष, प्रदेशों के राज्यपाल, विभिन्न राष्ट्रीय महत्व के संस्थानों के महानिदेशक या प्रशासक इत्यादि। उम्मीद की जानी चाहिए कि सरकार न्यायालय के दिशानिर्देश के मंतव्य को समझते हुए इसे न केवल संघ लोकसेवा आयोग के मामले में बल्कि अन्य महत्वपूर्ण पदों के संदर्भ में भी लागू करेगी।
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