राहुल कहते हैं मार्च 2020 तक 20 लाख केंद्रीय पदों को भर देंगे, मोदी क्यों नहीं कहते ऐसा?

राहुल गांधी ने शिक्षा और सरकारी नौकरी से संबंधित दो बातें कही हैं. उन्होंने मालदा में कहा कि गांव और कस्बों में सरकारी कालेजों के नेटवर्क को दुरुस्त करेंगे. दूसरा सरकार में आने पर मार्च 2020 तक केंद्र सरकार के खाली पड़े 20 लाख पदों को भर देंगे. डेढ़ साल से नौकरी सीरीज़ और यूनिवर्सिटी सीरीज़ कर रहा हूं.
किसी राजनीतिक दल ने इन मुद्दों को गंभीरता से नहीं लिया. सबने किनारा किया. अब जब हर सर्वे में यह आ रहा है कि नौजवान सबसे अधिक बेरोज़गारी को प्राथमिकता दे रहा है इस पर कोई ठोस बात नहीं हो रही है.

राहुल गांधी के इन दो वादों से लगता है कि वे प्राइम टाइम देखते हैं! बीजेपी को भी देखना चाहिए. दुनिया के टेलिविज़न के इतिहास में पहली बार प्राइम टाइम टेलिविज़न पर शिक्षा और नौकरी पर इतना लंबा कवरेज़ किया हूं. एक दिन नहीं, एक हफ्ता नहीं बल्कि कई महीने. 50-60 एपिसोड यूनिवर्सिटी पर किया, सरकारी नौकरियों पर कई महीने तक प्राइम टाइम करता चला गया. फेसबुक पेज @RavishKaPage पर पचासों लेख लिखे हैं. कोई भी चेक कर सकता है. इस इतिहास को कोई टीवी वाला पहले मैच कर दिखा दे.
राहुल गांधी के दोनों बयानों पर बहस होनी चाहिए. तभी प्रतिस्पर्धा में बाकी दल भी सरकारी शिक्षा और रोज़गार को महत्व देंगे. ज़्यादा ठोस वादा करेंगे. राहुल के वादे में एक डेडलाइन है और एक नंबर है. मोदी की तरह हर साल दो करोड़ रोज़गार देने का वादा कर दायें बायें करने का पैटर्न नहीं है. उनसे पूछा जा सकता है कि 30 मार्च 2020 खत्म हो रहा है. 20 लाख में कितनी नौकरियां दीं. पत्रकारों और नौजवान भी इस डेडलाइन और नंबर से उनका पीछा कर सकते हैं. यह भी पूछा जाना चाहिए कि मौजूदा परीक्षा व्यवस्था की जो हालत है, वो खस्ता है. उसके बस की नहीं है कि कोई परीक्षा नियत समय पर कराए. आप ठोस तरीके से बताइये कि कैसे यह काम करेंगे.
राहुल के इस एलान को उनकी ही पार्टी के नेता बढ़ावा नहीं दे रहे हैं. शायद उन्हें यकीन कम होगा. चिदंबरम जैसे नेताओं को इसमें यकीन है या नहीं पता नहीं लेकिन इस तरह की लाइन राहुल को उनकी ही पार्टी के कोरपोरेट परस्त नेताओं से भिड़ा देगी. दो राजनीतिक दलों के बीच में और हर राजनीतिक दल के भीतर संघर्ष अब इन्हीं मुद्दों पर होना चाहिए. गांव कस्बों के कॉलेज दरक गए हैं. इसके लिए कांग्रेस की सरकारें भी ज़िम्मेदार रही हैं. बीजेपी और क्षेत्रीय दलों की भी. बीजेपी को तीन प्रमुख राज्यों में 15 साल सरकार चलाने का मौका मिला. आज तक कोई स्तरीय शिक्षण संस्थान नहीं बना सकी. उसने भी कस्बों और गांवों के सरकारी कॉलेजों को ध्वस्त का है. नतीजा साधारण लोगों के बच्चे शिक्षा से बेदखल हो गए. क्लाविटी की शिक्षा से दूर कर दिए गए.
मीडिया ने सिर्फ इसलिए किनारा नहीं किया क्योंकि उसे विपक्ष को किनारे करना था बल्कि इसलिए भी आज मीडिया भी शिक्षा व्यवस्था को लेकर ईमानदार नहीं है. प्रधानमंत्री मोदी ने कालेजों के बारे में पांच साल में कुछ नहीं कहा. सिर्फ इतना कहा कि टॉप टेन में दस यूनिवर्सिटी को लाने के लिए 10,000 करोड़ देंगे. जो असल में फंड दिया उसे सुनकर आप हंसेंगे. उन्होंने मंहगे संस्थान बनाने की नीति बनाई. अंबानी के कॉलेज को मान्यता दे दी जो कागज़ पर ही था. आप इस संबंध में इंटरनेट सर्च कर मीडिया रिपोर्ट देख सकते हैं. हमने भी प्राइम टाइम में दिखाया है और फेसबुक पेज पर लिखा है.
बीजेपी के पास 5 साल का मौका था इन पदों को भरने का, मगर उसे भरना नहीं था. सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट में ही बात आ गई थी कि किन-किन विभागों में कितने पद खाली हैं. उसी में था कि रेलवे में पदों की संख्या घटानी है. इंटरनेट पर है और मैंने अपने ब्‍लॉग पेज 'कस्बा' में लिखने से लेकर प्राइम टाइम में कई बार इस पर बोला है. पिछले साल अक्‍टूबर की खबर है. गृहमंत्री ने केंद्रीय बलों और दिल्ली पुलिस में ख़ाली पदों की समीक्षा की थी. पता चला कि 55,000 पद ख़ाली हैं. काश ऐसी समीक्षा पहले होते और समय से भरे गए होते ताकि कई नौजवानों को उम्र सीमा बीत जाने से पहले मौका मिल जाता. वही हाल रेलवे का था. संसद में मंत्री ही बता रहे थे कि ढाई लाख पद खाली हैं. मगर भरने का ख्याल तब आया जब चुनाव आया और बेरोज़गारी का मुद्दा सर चढ़कर बोलने लगा.
नौजवानों को राहुल गांधी और कांग्रेस को इस पर बोलने के लिए मजबूर करना चाहिए. वे जितना ज़्यादा बोलेंगे तभी पता चलेगा कि गांव कस्बों में सरकारी कालेज का नेटवर्क बनाने के लिए वे क्या-क्या सोच रहे हैं और कैसे एक साल के भीतर 20 लाख पदों को भर देंगे. कहां से ईमानदार परीक्षा व्यवस्था लाएंगे, कैसे परीक्षा करेंगे कि रिज़ल्ट पर किसी को शक न हो और मुकदमेबाज़ी न हो. कोई भी परीक्षा पूरी होने में साल-साल क्यों लगती है?
वित्त मंत्री जेटली ने एक अप्रैल को दैनिक भास्कर से कहा है कि नौकरियां घटने के आरोप बेबुनियाद हैं. पहले कहा था कि अगर नौकरियां नहीं होतीं तो देश भर में असंतोष होता. आज ही बिहार में बी पी एस सी के परीक्षार्थी आंदोलन कर रहे हैं. परीक्षार्थियों ने पटना के अशोक राजपथ पर मार्च निकाला है. हर दिन किसी न किसी राज्य में आंदोलन हो रहा है. बंगाल में वहां के लोक सेवा आयोग के बाहर छात्रों ने लंबा धरना दिया. यूपी में शिक्षा मित्रों ने कितनी लाठियां खाईं. कितनों ने आत्महत्या कर ली. शिक्षकों ने धरने दिए और लाठियां खाईं. अगर वित्त मंत्री को नहीं दिखता है तो क्या किया जा सकता है.
यूपी से 69,000 शिक्षकों की भर्ती के परीक्षार्थी मेसेज पर मेसेज ठेले जा रहे हैं. नार्मलाइज़ेशन की प्रक्रिया के बारे में न हमें समझ है और न ही परीक्षार्थी को. उनके सवालों को संतुष्ट नहीं किया जा रहा है. वही हाल है. यूपी पुलिस की 41,520 परीक्षार्थियों की ज्वाइनिंग नहीं कराई जा रही है. जबकि परीक्षार्थियों का आरोप है कि मंत्री यहां वहां बोल रहे हैं कि नौकरी दे दी गई. इन 41000 परीक्षार्थियों को लगता है कि अगर चुनाव निकल गया तो ज्वाइनिंग नहीं होगी. सरकारों का जो रिकार्ड है उसे देखकर इनकी आशंका सही है. इन 41000 छात्रों में 90 प्रतिशत मुझे गाली देते होंगे. हिन्दू मुस्लिम करते होंगे, फिर भी ये मुझी को कहते हैं कि आप लिख दें या दिखा दें. मगर मैं इसमें गहरा संकट देखता हूं. व्यक्तिगत तौर पर इनकी गालियों को नहीं लेता. इन्हें किस ग़लती की सज़ा दी जा रही है. इन्होंने परीक्षा पास की है तो ज्वाइनिंग होनी चाहिए.
उसी बिहार में मगध यूनवर्सिटी है. कानूनी पेंच के कारण इस बार तीसरे वर्ष का रिज़ल्ट नहीं आया. छात्र थक गए. 31 मार्च कर रेलवे की परीक्षा का फार्म भरने का मौका चला गया. बिहार यूनिवर्सिटी से छात्रों को फोन आया था. तीन साल का बीए पांच साल में भी पूरा नहीं हुआ है. छात्रों ने धरना प्रदर्शन किया मगर उसमें भी सौ पचास ही आए. बाकी छात्र अपना-अपना देखो और रवीश कुमार या मीडिया को मेसेज कर आई पी एल देखो की नीति पर चलते रहे. छात्रों की इसी राजनीतिक गुणवत्ता के कारण उन्हें मूर्ख बनाना संभव हो सकता है. पूरी ज़िंदगी बर्बाद करने के बाद भी उनके बीच वही राजनीतिक दल प्रासंगिक बने हुए हैं जिन्होंने उनकी समस्या सुनी तक नहीं.
टिप्पणियां

छात्रों को ही बिहार या किसी भी राज्य के शिक्षा और परीक्षा व्यवस्था को लेकर लड़ना होगा. वो लड़ रहे हैं मगर वो पर्याप्त नहीं है. उसमें कुछ बदलने का नैतिक बल नहीं है. दो लाख लोगों का जीवन सेशन लेट होने से बर्बाद हो गया. यही दो लाख अपने मां बाप के साथ गांधी मैदान में नंगे पांव खड़े हो जाते तो महीने भर में सरकार कुछ करने के लिए मजबूर होती. मीडिया कवरेज से ठोस बदलाव नहीं आएगा. वो मैंने करके देख लिए. डेढ़ साल करने के बाद आज नेता मजबूर तो हुए हैं बात करने के लिए मगर कुछ ठोस होता नहीं दिख रहा है. बहस ही नहीं है इस पर. इस चुनाव की सफलता तभी होगी जब नौजवान शिक्षा और रोज़गार के सवाल पर कांग्रेस और बीजेपी को मजबूर कर दे. नया सोचने और ठोस वादा करने के लिए.
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