शिक्षा मित्र समायोजन रद्द होने की मुख्य वजह उमा देवी केस का विश्लेषण : 72825 प्रशिक्षु शिक्षकों की भर्ती Latest News

 देश के समस्त संविदा कर्मियों (दैनिक/साप्ताहिक श्रमिक, दैनिक भत्ते पर, एडहॉक कर्मचारी आदि) को नियमित व स्थायी करने को लेकर सुप्रीम कोर्ट की 5 जजों की संविधानिक पीठ ने 10 अप्रैल 2006 को सेक्रेटरी ऑफ़ स्टेट ऑफ़ कर्नाटक बनाम उमा देवी केस में अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए कुछ स्पष्ट दिशानिर्देश दिए हैं जो कि इस सन्दर्भ में क़ानून का काम करते हैं।
10 अप्रैल 2006 के बाद किसी भी संविदा कर्मी को नियमित केवल इस ही केस के आदेश में दिए गए दिशानिर्देशों के तहत किया जा सकता है। 12 सितम्बर 2015 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की पूर्ण पीठ से समायोजन केवल टीईटी फेल शिक्षा मित्रों का ही रद्द नहीं हुआ था बल्कि उन शिक्षा मित्रों का भी रद्द हुआ था जो टीईटी पास थे, इसकी मुख्य वजह सम्पूर्ण समायोजन की प्रक्रिया का ही अवैध होना था न कि केवल टीईटी फेल का समायोजन। उमा देवी केस इसकी मुख्य वजह रहा।

इस केस का केंद्र बिंदु संविधान के अनुच्छेद 14 व 16(1) के तहत सरकारी सेवा में आने के रास्ते को स्पष्ट रूप से जाहिर करना है। अनुच्छेद 14 समानता के अधिकार की बात करता है तो अनुच्छेद 16 सरकारी पदों पर नियुक्ति हेतु समान अवसर दिए जाने के अधिकार की बात करता है। इस केस का आदेश काफी बड़ा है व कुल 49 पैराग्राफों में फैला हुआ है। पूरा विश्लेषण बहुत लम्बा है, जिस कारण लिखने में काफी समय लग गया। बेंचमार्किंग के नजरिये से यह विश्लेषण करीब 24 पेज का है। यदि आपमें धैर्य तथा इस मुद्दे में रूचि है और मुद्दे को विस्तार से समझना चाहते हैं तब शुरू से पूरा पढ़ें, आलसी लोग केवल पॉइंट 8, 9,10 व 11 पढ़ें। इन पॉइंट्स में भी आपको पूरी फ़िल्म का आनन्द आएगा।
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कोर्ट ने निर्णय को एक प्रवाह में लिखा है जिस कारण मुद्दे आगे आगे पीछे हो गए हैं, परन्तु मैंने कोशिश की है कि समस्त आर्डर को अलग अलग खण्डों में व्यवस्थित कर सकूँ ताकि सम्पूर्ण निर्णय को एक सूत्र में पिरोया जा सके व एक चेन बनाई जा सके।

आर्डर को मैंने 11 भागों में बांटा है :

1) केस के तथ्य
2) Dharwad केस की संक्षिप्त व्याख्या
3) Dharwad केस पर 5 जजों की पीठ की टिप्पणी
4) कोर्ट द्वारा की गई समीक्षा
5) विभिन्न सुप्रीम कोर्ट नजीरें व उन पर टिप्पणियाँ
6) कोर्ट द्वारा निकाले गए निष्कर्ष
7) अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग व आदेश
8) आदेश का सार
9) आदेश का महा सार
10) शिक्षा मित्र केस से लिंक
11) Pro Tip

1⃣ ‪#‎केस_के_तथ्य‬ : केस में दो तरह के मुद्दे थे -

🚩 पहला मुद्दा यह था कि कुछ लोग कई वर्षों से कर्नाटक के वाणिज्य कर विभाग में संविदा पर कार्यरत थे। इनकी प्रथम नियुक्ति 1985-86 में हुई थी। उन्हें ऐसे ही कार्य करते करते 10 वर्ष से अधिक समय बीत गया तब अचानक से एक दिन उनके मन में स्थायी कर्मचारी होने की इच्छा जाग उठी। जिसको लेकर उन्होंने विभाग के निदेशक को पटा लिया, इसी क्रम में वाणिज्य कर विभाग के निदेशक महोदय ने कर्नाटक सरकार को सुझाव दिया कि उक्त कर्मचारियों को स्थायी कर दिया जाए। हालाँकि सरकार ने निदेशक महोदय के सुझाव पर कोई ध्यान नहीं दिया तथा ऐसे संविदा कर्मियों को स्थायी करने को लेकर कोई कदम नहीं उठाया जिस से पीड़ित होकर ऐसे संविदा कर्मियों ने एडमिनिस्ट्रेटिव ट्रिब्यूनल में अर्जी लगाई तथा कहा, 'हे महान ट्रिब्यूनल, हम पिछले 10 वर्ष से संविदा पर इस विभाग में कार्य कर रहे हैं परन्तु हमें अभी तक स्थायी होने का सुख प्राप्त नहीं हुआ है। आप आधी कोर्ट हैं, आप माई बाप हैं, कृपया सरकार को आदेशित करें कि वह हम गरीबों को नियमित करे।'

ट्रिब्यूनल ने केस की विस्तृत सुनवाई करने के उपरान्त निर्णय दिया कि ऐसे संविदा कर्मियों के पास स्थायी होने का कोई कानूनी हक नहीं है और उनकी याचिका खारिज कर दी। क्षुब्ध होकर फिर याची लोग हाई कोर्ट पहुँचे तथा ट्रिब्यूनल के निर्णय को चुनौती दे डाली। हाई कोर्ट ने Dharwad Distt. P.W.D. Literate Daily Wage Employees Association & ors. Vs. State of Karnataka & Ors. के केस में सुप्रीम कोर्ट द्वारा ही दिए गए निर्णय के आधार पर संविदा कर्मियों के पक्ष में निर्णय सुनाया और कहा कि यह संविदा कर्मी बेचारे गरीब लोग हैं, सालों से कार्य कर रहे हैं अतः इनकी तनख्वाह भी स्थायी कर्मियों के बराबर होनी चाहिए। हाई कोर्ट उन कर्मचारियों के प्रेम में इतनी मग्न हो गई कि सरकार को 4 माह के अंदर अंदर उनका समायोजन व साथ ही उनको उनकी जॉइनिंग की तारीख से ही स्थायी कर्मचारियों के बराबर वेतन देने का आदेश दे डाला, जिसका असर यह हुआ कि सरकार को पिछले 12 सालों का वेतन देने का आदेश हुआ, दरअसल सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट जाने की मुख्य वजह यह ही रही।

🚩 दूसरा मुद्दा यह था कि Dharwad Distt. P.W.D. Literate Daily Wage Employees Association & ors. Vs. State of Karnataka & Ors. के केस के निर्णय का पालन करने हेतु कर्नाटक सरकार ने 01 जुलाई 1984 के बाद के सभी संविदा कर्मियों की नियुक्ति रद्द कर दी, जिससे पीड़ित होकर उक्त कर्मचारियों ने हाई कोर्ट में सरकार के इस कदम के विरुद्ध तथा कर्नाटक के समस्त संविदा कर्मियों के समायोजन/स्थायीकरण हेतु याचिका दाखिल कर दी। कर्नाटक हाई कोर्ट की एकल पीठ ने कर्मचारियों की मांग मानते हुए सरकार को ऐसे कर्मचारियों का समायोजन और नियमित कर्मचारियों के बराबर वेतन देने का आदेश दे डाला। इससे पीड़ित होकर कर्नाटक सरकार ने कर्नाटक हाई कोर्ट की डिवीज़न बेंच में अपील दायर की जिसमें डिवीज़न बेंच ने माना कि दिनाँक 01 जुलाई 1984 के बाद नियुक्त हुआ कोई भी संविदा कर्मी Dharwad Distt. P.W.D. Literate Daily Wage Employees Association & ors. Vs. State of Karnataka & Ors. केस के आदेश के अनुपालन में बनाई गई स्कीम का लाभ पाने हेतु अर्ह नहीं है और एकल पीठ के आदेश को निरस्त कर दिया। डिवीज़न बेंच के आदेश से पीड़ित होकर, कर्मचारी सुप्रीम कोर्ट पहुँच गए।

उक्त मुद्दे सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की पीठ के समक्ष सुनवाई को पहुचे, परन्तु दोनों जजों के इस सम्बन्ध में विचार परस्पर विरोधाभासी होने के कारण मुद्दे को तीन जजों की पीठ को स्थानांतरित कर दिया गया। तीन जजों की पीठ ने मामले की पेचीदगी को समझते हुए निर्णय लिया कि इस का फैसला 5 जजों की संविधानिक पीठ को करना चाहिए। अंततः केस की सुनवाई 5 जजों की पीठ के समक्ष शुरू हुई।

2⃣ ‪#‎Dharwad_केस_की_संक्षिप्त_व्याख्या‬ :

सर्वप्रथम Dharwad Distt. P.W.D. Literate Daily Wage Employees Association & ors. Vs. State of Karnataka & Ors. केस के बारे में जानना आवश्यक है जिसने इतना रायता फैलाया। दरअसल इस केस में मुख्य मुद्दा था कि समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जाना चाहिए, जिस के लिए कोर्ट ने कर्नाटक सरकार को इस बाबत एक स्कीम बनाने का आदेश दे दिया। सरकार ने तर्क रखा कि सभी संविदा कर्मियों को स्थायी कर्मचारियों के बराबर तनख्वाह देना वित्तीय रूप से वर्तमान में असम्भव है, अर्थात हमारे पास इतना पैसा नहीं है कि सभी संविदा कर्मियों को स्थायी कर्मियों के बराबर पैसा दे सकें। सरकार ने कहा कि अधिक से अधिक हम एक स्कीम बना सकते हैं जिसके तहत हम धीरे धीरे संविदा कर्मियो को स्थायी करते रहेंगे। फलस्वरूप एक स्कीम बनाई गई, जिसके तहत 01जुलाई 1984 तक नियुक्त संविदा कर्मियों को स्थायी करने, व अन्य स्थायी कर्मचारियों के बराबर वेतन देने की बात की गई जिसको कि कोर्ट ने अनुमोदित कर दिया। ☠☠

3⃣ ‪#‎Dharwad_केस_पर_5_जजों_की_पीठ_की_टिप्पणी‬ :

Dharwad Distt. P.W.D. Literate Daily Wage Employees Association & ors. Vs. State of Karnataka & Ors. केस में जिस स्कीम की बात की गई थी उसका मुख्य उद्देश्य समान कार्य के लिए समान वेतन देना था परन्तु उसमें ऐसे समस्त संविदा कर्मियों जो कि क़ानून में विहित सामान्य चयन प्रक्रिया से चयनित न हुए हों, को स्थायी अथवा नियमित करने की भी बात कही गई। Dharwad केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, "कोर्ट को केस विशेष की समस्या के अनुसार न्याय को परिभाषित करना चाहिए।" उक्त कथन को 5 जजों की पीठ ने सिरे से नकारते हुए कहा (इस पैराग्राफ से मैं अत्यधिक प्रभावित हुआ क्योंकि यह उनके लिए भी है जो कोर्ट को अपनी खाला का घर समझते हैं और फेंकते हैं कि मैं यह करा दूंगा, वह करा दूंगा) :

"With respect, it is not possible to accept the statement, unqualified as it appears to be. This Court is not only the constitutional court, it is also the highest court in the country, the final court of appeal. By virtue of Article 141 of the Constitution of India, what this Court lays down the law of the land. Its decisions are binding on all the courts. Its main role is to interpret the constitutional and other statutory provisions bearing in mind the fundamental philosophy of the Constitution. We have given unto ourselves a system of governance by rule of law. The role of the Supreme Court is to render justice according to law. As one jurist put it, the Supreme Court is expected to decide questions of law for the country and not to decide individual cases without reference to such principles of law."

"उपरोक्त कथन उचित प्रतीत नहीं होता तथा इसको स्वीकार किया जाना सम्भव नहीं है। यह कोर्ट केवल एक संविधानिक कोर्ट नहीं है बल्कि देश की अंतिम व सबसे ऊँची कोर्ट है। अनुच्छेद 141 के तहत यह कोर्ट जो भी निर्णय देती है वह देश का कानून बन जाता है। इस कोर्ट द्वारा सुनाए गए निर्णय भारत की समस्त न्यायालयों पर बाध्यकारी होते हैं। इसका मुख्य कार्य संविधान के मूलभूत सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए संविधानिक व अन्य कानूनी नियमों की व्याख्या करना है। 👉 हम ने स्वयं को 'क़ानून के राज' द्वारा शासन की पद्धति दी है। सुप्रीम कोर्ट का कार्य क़ानून के अनुसार न्याय करना है।👈 सुप्रीम कोर्ट का कार्य न्याय के सिद्धांत का पालन करते हुए, सम्पूर्ण देश को ध्यान में रखते हुए ही कानूनी प्रश्नों पर निर्णय देना होता है न कि व्यक्तिगत केस के आधार पर।" 🔨🔨💡💡

Dharwad केस में कोर्ट ने 'समान कार्य हेतु समान वेतन' के सिद्धांत पर निर्णय देते देते, बिना किसी बहस के एक ऐसी स्कीम का अनुमोदन कर दिया जिसमें अस्थाई संविदा कर्मियों को स्थायी करने की बात की गई थी। यदि इस केस में समस्त संविदा कर्मियों को स्थायी करने की बात की गई है तब हम इस केस के निर्णय से सहमत नहीं है। ☠☠

4⃣ ‪#‎कोर्ट_द्वारा_की_गई_समीक्षा‬ :

✍ हालाँकि परिस्थितियां जैसे The National Rural Employment Guarantee Act, 2005 जिसका उद्देश्य परिवार के एक सदस्य को वर्ष में कम से कम 100 दिन के लिए अधिनियम में निर्धारित मेहनताना देते हुए रोजगार उपलब्ध कराना है, सरकार को अस्थाई या संविदा पर कर्मचारियों की नियुक्ति हेतु प्रेरित कर सकती हैं परन्तु नियमित पदों पर नियमित नियुक्ति को ही वरीयता देना चाहिए। हमारे संविधान का मुख्य बिंदु समान लोगों को समान अधिकार व अवसर उपलब्ध कराना है तथा किसी भी सरकारी पद पर नियुक्ति केवल संविधान के मूलभूत सिद्धान्तों के आधार पर ही की जा सकती है। नियमित पदों पर नियुक्ति उल्टे सीधे व मनमाने ढंग से नहीं की जा सकती हैं।

✍ विभिन्न सरकारें व विभाग आजकल पदों को और खासकर निचले स्तर के पदों को उल्टी सीधी तरह संविदा कर्मियों द्वारा भर लेते हैं व सालों तक उन पदों पर ऐसे संविदा कर्मियों से पूर्व निर्धारित मानदेय पर कार्य कराते हैं तथा उन लोगों को नौकरी हेतु अवसर से वंचित रखते हैं जो वास्तव में उस पद हेतु योग्यता रखते हैं। ऐसे लोग (संविदा कर्मी) भविष्य में स्वयं को स्थायी करने की व उन पदों पर सीधी नियुक्ति पर स्थगन मांगने लगते हैं। कई बार कोर्ट भी कानूनी पहलू को दरकिनार करते हुए ऐसे संविदा कर्मियों अथवा अयोग्य लोगों को समायोजित करने का आदेश दे देती हैं व उन पदों पर नयी नियुक्ति रोक देती हैं।

✍ अब समय आ गया है कि कोर्ट ऐसे निर्णयों से स्वयं को अलग कर ले तथा किसी भी ऐसे व्यक्ति जिसने संविधानिक नियमों के अंतर्गत नियुक्ति न पाई हो को स्थायी करने के आदेश व स्थायी नियुक्ति की प्रक्रिया पर स्थगन देने से बचे। ऐसे लोगों को स्थायी अथवा सेवा में जारी रखने का आदेश देना अपने आप में असंवैधानिक है। भूतकाल में इस कोर्ट ने कई ऐसे निर्णय भी दिए हैं, जो सरकारी सेवा में आने के नजरिये से संविधानिक नहीं कहे जा सकते हैं। इस प्रकार के निर्णयों का मुख्य कारण कोर्ट द्वारा न्याय को केस की परिस्थितियों के अनुसार ढ़ालना था, व परिस्थिति के अनुसार न्याय की परिभाषा बदलना था। मुख्य प्रश्न यह उठता है कि न्याय किसको दिया जाए? गिने चुने लोगों को जो कोर्ट में अपना मुद्दा लेकर पहुचे हैं अथवा उन लाखों करोड़ों को जो सरकारी सेवा में उचित व समान अवसर के इंतजार में बैठे हैं?

✍ संविधान का अनुच्छेद 309 सरकार को सरकारी पदों पर नियुक्ति हेतु नियम बनाने की शक्ति देता है। अनुच्छेद 309 के तहत बनाए गए रूल्स में सरकार सेवा शर्तें, चयन का आधार/तरीका आदि निर्धारित कर सकती है। सरकार द्वारा यदि उपरोक्त नियम बनाए गए हैं तब सरकारी पदों पर चयन का एकमात्र तरीका इन नियमों के अनुसार ही नियुक्ति करना ही हो सकता है। अनुच्छेद 14 जहाँ एक ओर समानता के अधिकार की बात करता है तो वहां ही अनुच्छेद 16 सरकारी सेवा में समान अवसर के अधिकार की बात करता है। संविधानिक नियमों से हटकर किसी भी नियुक्ति प्रक्रिया को मान्य नहीं किया जा सकता है। संविधान में हालाँकि ऐसा कोई नियम नहीं है जो किसी विशेष कार्य हेतु सरकारों को संविदा अथवा दैनिक भत्ते पर कर्मचारियों की भर्ती को रोकता हो परन्तु इसको संविधानिक ढांचे से खिलवाड़ के रूप में प्रयोग करने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। एक समयावधि के बाद ऐसे कर्मचारी स्थायी होने की मांग करने लगते हैं जिसको कि न्यायालयों को अनुच्छेद 226 व 32 के अंतर्गत मान्य नहीं करना चाहिए क्योंकि किसी भी पद पर नियुक्ति केवल संविधानिक नियमों के अनुपालन में ही हो सकती है।

✍ कोर्ट का कार्य यह नहीं है कि संविधान में दी गई गई व्यवस्था से हट कर की गई नियुक्तियों को बिना संविधानिक परीक्षण के मान्य कर दे। ऐसा करने से न केवल संविधान के नियमों का उल्लंघन होता है बल्कि उन लोगों के अधिकारों का हनन होता है जो वास्तव में उस नियुक्ति के अधिकारी हैं। सुनवाई के दौरान हमें ऐसे कई आदेशों से दो चार कराया गया है जिनमें क़ानून को दरकिनार करते हुए किसी न किसी प्रकार से संविदा कर्मियों को स्थायी करने का आदेश दिया गया है, जिससे कि चारों ओर भारी अव्यवस्था फ़ैल गई है। 👉 समय आ गया है कि अब हम इस झगड़े का हमेशा के लिए निपटारा कर दें व इस बाबत दिशा निर्देश जारी करें कई लोगों द्वारा यह नजीर लगाई जा रही है कि जिस प्रकार Dharwad के केस में संविदा कर्मियों को स्थायी करने का आदेश दिया गया उस ही आदेश के आधार पर बाकी सभी संविदा कर्मी भी स्थायी होने का अधिकार रखते हैं, यदि ऐसा नहीं होता है तो यह पक्षपात होगा। 👈 अतः अब क़ानून को स्पष्ट रूप से बताने का समय आ गया है ताकि भविष्य में कोई भी कोर्ट इस प्रकार से संविधानिक ढाँचे से खिलवाड़ करते हुए कोई आदेश जारी न करे।

5⃣ ‪#‎विभिन्न_सुप्रीम_कोर्ट_नजीरें_व_उन_पर_टिप्पणियाँ‬ :

✍ सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि सेवा मुद्दों के सन्दर्भ में नियमितीकरण (Regularization) तथा स्थायी करने (Conferring permanence) में अंतर होता है। In STATE OF MYSORE Vs. S.V. NARAYANAPPA, this Court stated that it was a mis-conception to consider that regularization meant permanence. स्टेट ऑफ़ मैसूर बनाम एस वी नारायनप्पा के केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि नियमित करना व स्थायी करना को एक ही बात समझ लेना एक भ्रांति मात्र है। R.N. NANJUNDAPPA Vs T. THIMMIAH & ANR. में इस कोर्ट ने कहा था कि 'If the appointment itself is in infraction of the rules or if it is in violation of the provisions of the Constitution, illegality cannot be regularized.' अर्थात यदि नियुक्ति कानून के अनुसार अथवा संविधान के नियमों के अनुसार नहीं हुई है, तब ऐसी गैर कानूनी नियुक्ति को नियमित नहीं किया जा सकता है। B.N. Nagarajan & Ors. Vs. State of Karnataka & Ors. के केस में इस कोर्ट ने साफ़ कहा था, "नियमित या नियमितीकरण का अर्थ स्थायी करना नहीं होता है। इनका अर्थ किसी ऐसी प्रक्रिया सम्बन्धी कमी को दूर करना है जो चयन करते समय चयन के तरीके में रह गई हो।" इस कोर्ट ने जोर देते हुए कहा, "जब अनुच्छेद 309 के तहत बनाए गए नियम लागू हैं तब क़ानून को दरकिनार करते हुए अनुच्छेद 162 के तहत सरकार अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए ऐसी त्रुटियों को दूर नहीं कर सकती।" इस आधार पर हम कह सकते हैं कि किसी प्रक्रिया सम्बन्धी कमी को ही क़ानून के दायरे में रह कर सुधारा (नियमित) किया जा सकता है, व नियमित करने व स्थायी करने में बहुत फर्क है, इन दोनों को एक ही अर्थ में प्रयोग नहीं किया जा सकता है।

✍☠ उक्त बातों को दरकिनार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने Daily Rated Casual Labour Vs. Union of India & Ors. में सरकार को 1 वर्ष से अधिक समय तक दैनिक भत्ते पर कार्य करने वालों को स्थायी करने हेतु योजना बनाने का आदेश दे डाला। Bhagwati Prasad Vs. Delhi State Mineral Development Corporation के केस में भी कोर्ट ने अस्थायी कर्मचारियों को स्थायी करने का आदेश दे दिया। कोर्ट ने इस बात की ओर ध्यान नहीं दिया कि भारत एक समाजवादी (Socialist) राष्ट्र है जहाँ सरकारों की समाज को लेकर कई जिम्मेदारियां होती हैं व सरकार को उनका निर्वाह करना होता है। समान कार्य हेतु समान वेतन देना अलग बात है परन्तु समस्त संविदा कर्मियों या अस्थायी कर्मचारियों को स्थायी करना अलग बात है। सरकारी पदों पर स्थायी नियुक्ति केवल संविधान के नियमों के तहत ही की जा सकती है।☠☠

✍ ☠हरयाणा सरकार बनाम प्यारा सिंह के केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हालाँकि नियमित पदों पर स्थायी नियुक्ति ही की जानी चाहिए परन्तु कभी कभी प्रशासनिक आवश्यकताओं व जरूरतों को देखते हुए अस्थायी नियुक्ति भी की जा सकती हैं लेकिन प्रयास किये जाने चाहिए कि ऐसी अस्थायी नियुक्ति को जल्द से जल्द स्थायी नियुक्ति से बदल दिया जाए। एक अयोग्य व्यक्ति को नियुक्त तब ही किया जा सकता है जब उस पद हेतु योग्यता रखने वाला व्यक्ति मौजूद न हो। इस केस के आदेश के पैरा 50 में कोर्ट ने हालाँकि यह भी कहा, "यदि कोई अस्थायी नियुक्ति काफी लम्बे समय तक जारी रहती है तथा उसकी सर्विस सन्तोषजनक रही हो तथा वह उस पद हेतु नियमानुसार निर्धारित योग्यता रखता हो और उसकी नियुक्ति आरक्षण के नियमों को दरकिनार करते हुए न हुई हो तब ऐसे व्यक्ति को स्थायी करने पर विचार किया जा सकता है।" हम कोर्ट द्वारा कही इस बात से सहमत नहीं है, सर्वप्रथम तो कोर्ट द्वारा सरकारों को अस्थायी नियुक्ति करने को प्रेरित ही नहीं करना चाहिए। बल्कि कोर्ट को सरकार पर स्थायी नियुक्तियाँ करने हेतु ही दवाब बनाना चाहिए। हमें खेद है परन्तु प्यारा सिंह केस में पैरा 50 में कही गई बाते संविधान की कसौटी पर खरी नहीं उतरती।☠☠

✍ यहाँ यह बताना भी आवश्यक है कि कभी कभी संविधान के अनुच्छेद 142 का प्रयोग करते हुए सुप्रीम कोर्ट केस विशेष हेतु कुछ आदेश दे देती हैं तथा भविष्य में हाई कोर्ट उस निर्णय से बन्ध जाने के कारण उन आदेशों को नजीर मानते हुए उन्हीं आदेशों के आधार पर निर्णय देने को बाध्य हो जाती हैं, जबकि पंजाब सरकार बनाम सुरिंदर कुमार तथा अन्य के केस में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने कहा था की सुप्रीम कोर्ट की तरह हाई कोर्ट के पास अनुच्छेद 142 जैसी शक्ति नहीं होती है अतः केवल इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट ने किसी केस में अनुच्छेद 142 का उपयोग करते हुए कोई आदेश जारी किया हो, हाई कोर्ट भी उसको नजीर बनाते हुए वैसा ही आदेश जारी नहीं कर सकती हैं। कोर्ट ने कहा कि, "A decision is available as a precedent only if it decides a question of law." अर्थात नजीर केवल उन ही आदेशों को बनाया जा सकता है जिसमें किसी कानूनी प्रश्न को हल किया गया हो। अतः यदि कसी केस विशेष में सुप्रीम कोर्ट ने किसी संविदा कर्मी को स्थायी किया है तब उस केस के निर्णय के आधार पर कोई अन्य संविदा कर्मी हाई कोर्ट में स्वयं को भी नियमित करने की मांग नहीं कर सकता है।

✍ Director, Institute of Management Development, U.P. Vs. Pushpa Srivastava के केस में सुप्रीम कोर्ट ने हाई कोर्ट द्वारा संविदा कर्मियों को नियमित करने के आदेश को रद्द करते हुए कहा था कि जब नियुक्ति संविदा पर तथा पूर्व निर्धारित मानदेय पर होती है तब संविदा के अंत में नियुक्ति स्वतः समाप्त हो जाती है तथा ऐसे संविदा कर्मी के पास सेवा में बने रहने अथवा नियमित किये जाने का कोई अधिकार नहीं होता है जब तक कि कोई नियम स्पष्ट रूप से इसकी बात न करता हो। Madhyamik Shiksha Parishad, U.P. Vs. Anil Kumar Mishra and Others में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यदि कोई नियुक्ति किसी ख़ास कार्य अथवा प्रोजेक्ट हेतु की जाती है तब उस कार्य अथवा प्रोजेक्ट की समाप्ति पर ऐसे संविदा कर्मियों की नियुक्ति स्वतः समाप्त हो जाती है व उन पर अपनी नियुक्ति जारी रखवाने अथवा कहीं अन्य समायोजित किये जाने का अधिकार नहीं होता। State of Himachal Pradesh Vs. Suresh Kumar Verma में तीन जजों की पीठ ने कहा था कि संविदा पर नियुक्त व्यक्ति अनुच्छेद 309 के तहत बने नियमो के अनुपालन में नियुक्त नहीं हुआ होता है, अतः उनकी सेवा समाप्ति पर कोर्ट उनको नियमित करने का आदेश नहीं दे सकती हैं, यह जाना समझा कानूनी तथ्य है कि यदि अनुच्छेद 309 के तहत नियम बनाए गए हैं तब नियुक्ति केवल इन ही नियमों के आधार पर की जा सकती है। 📣📣 कोर्ट ने यह भी कहा कि यदि कोर्ट ऐसे लोगों को दुबारा नौकरी पर रखने अथवा समायोजित करने का आदेश देती है तब कोर्ट के आदेश भी नियुक्ति पाने का एक जरिया बन जाएंगे जो कि नियमों के विरूद्ध है। 💡

✍ Ashwani Kumar and others Vs. State of Bihar and others में कोर्ट ने कहा था कि यदि प्रथम नियुक्ति ही कानूनी नियमों के अनुसार नहीं हुई है तब उसको नियमित किये जाने की सोचने का भी प्रश्न नहीं उठता है। केवल अनियमित नियुक्ति को नियमित किया जा सकता है लेकिन गैर कानूनी नियुक्ति को नियमित नहीं किया जा सकता है। यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि नियुक्ति के दौरान केवल प्रक्रिया सम्बन्धी कमी को ही कोर्ट ने अनियमित नियुक्ति मानते हुए केवल ऐसी ही नियुक्तियों को नियमित करने को कहा है जबकि ऐसी नियुक्ति जो नियमों से हटकर हुई हैं, अनियमित नहीं गैर कानूनी नियुक्ति की श्रेणी में आती है जिसको नियमित करने का प्रश्न ही नहीं उठता। 💡

✍ A. Umarani Vs. Registrar, Cooperative Societies and Others के केस में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने कहा था कि जब नियुक्ति एक्ट अथवा रूल्स, अथवा न्यूनतम योग्यता को दरकिनार करते हुए होती है तब ऐसी नियुक्ति को अनियमित (Irregular) नियुक्ति नहीं अपितु गैर कानूनी (Illegal) नियुक्ति कहते हैं जिसको नियमित नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि नियमित करना नियुक्ति का तरीका नहीं कहा जा सकता है, अतः नियमितीकरण द्वारा किसी संविदा कर्मी की सेवाओ को स्थायी नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने यह भी कहा कि केवल इसलिए कि कोई व्यक्ति किसी पद पर कई वर्ष कार्यरत रहा हो तो उसको उस पद पर नियमित होने का अधिकार नहीं मिल जाता है। कोर्ट ने नियमितीकरण व स्थायी करने के अंतर को समझते हुए कहा कि नियमितीकरण को नियुक्ति करने का एक तरीका नहीं माना जा सकता है, न ही यह नियुक्ति का एक तरीका हो सकता है।🔯🔯👈👈💡

✍ Teri Oat Estates (P) Ltd. Vs. U.T., Chandigarh तथा Farewell, L.J. in Latham vs. Richard Johnson & Nephew Ltd. में कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के प्रयोग पर भी टिप्पणी करते हुए कहा, "केवल संवेदना के आधार पर अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।" 💡💥 तथा यह भी कहा कि, "Sentiment is a dangerous will o' the wisp to take as a guide in the search for legal principles." अर्थात "कानूनी सिद्धान्तों की खोज में संवेदना को एक पथ प्रदर्शक के रूप में ले जाना एक खतरनाक मिथ्याभास है।" 💥💡

✍💡💥 उमा रानी केस में कोर्ट ने नियमितीकरण व स्थायी करने के अंतर को समझते हुए कहा कि नियमितीकरण को नियुक्ति करने का एक तरीका नहीं माना जा सकता है, न ही यह नियुक्ति का एक तरीका हो सकता है।

✍ State of U.P. vs. Niraj Awasthi and other (2006) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि स्टेट को अनुच्छेद 162 के अंतर्गत नियुक्ति करने की शक्ति प्राप्त नहीं है और यदि मान भी लिया जाए कि स्टेट पर ऐसी शक्ति है तब भी स्टेट कानूनी नियमों के इतर जाकर नियुक्ति नहीं कर सकती है। भूतकाल में हुए समायोजन के आधार पर नए समायोजन करने का अधिकार नहीं आ जाता। कोर्ट ने यह भी कहा कि हाई कोर्ट को समायोजन करने को लेकर नीति निर्धारण अथवा ऐसी नीति का निर्माण कराने का अधिकार नहीं है। इस बात को बाद में State of Karnataka vs. KGSD Canteen Employees Welfare Association में भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा कहा गया।

✍💡 Union Public Service Commission Vs. Girish Jayanti Lal Vaghela & Others (2006) में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 16 सरकारी पदों पर नियुक्ति में समान अवसर के अधिकार की बात करता है। तथा कहा, "The appointment to any post under the State can only be made after a proper advertisement has been made inviting applications from eligible candidates and holding of selection by a body of experts or a specially constituted committee whose members are fair and impartial through a written examination or interview or some other rational criteria for judging the inter se merit of candidates who have applied in response to the advertisement made. A regular appointment to a post under the State or Union cannot be made without issuing advertisement in the prescribed manner which may in some cases include inviting applications from the employment exchange where eligible candidates get their names registered. Any regular appointment made on a post under the State or Union without issuing advertisement inviting applications from eligible candidates and without holding a proper selection where all eligible candidates get a fair chance to compete would violate the guarantee enshrined under Article 16 of the Constitution"

(किसी भी सरकारी पद पर नियुक्ति केवल समस्त योग्य लोगों से विज्ञापन के माध्यम से आवेदन मांग कर व एक उचित चयन समिति द्वारा किसी उचित चयन प्रक्रिया जिससे आवेदन करने वालों की मेरिट की तुलना उचित रूप से हो सके, द्वारा ही की जा सकती है। सरकारी पदों पर नियमित नियुक्ति बिना विज्ञापन जारी किये व आवेदन लिए नहीं की जा सकती है। सरकारी पदों पर विज्ञापन द्वारा समस्त योग्य लोगों से आवेदन लिए बिना तथा सभी आवेदन कर्ताओं को प्रति स्पर्धा करने का उचित मौका दिए बिना की गई नियुक्ति अनुच्छेद 16 के तहत सरकारी सेवा में समान अवसर के अधिकार की अवहेलना होगी।)

✍💡💥 💥💥💥💥केशव नन्द भारती के केस में सुप्रीम कोर्ट की 12 जजों की पीठ ने कहा था कि अनुच्छेद 14 तथा अनुच्छेद 16 संविधान के मूलभूत ढाँचे का हिस्सा हैं। इंद्र साहनी केस में तीन जजों की पीठ ने इस निर्णय का हवाला देते हुए कहा कि यदि संसद भी चाहें तब भी संविधान के मूलभूत ढाँचे अर्थात अनुच्छेद 14 व 16 के तहत प्रदत्त समानता के अधिकारों से खिलवाड़ नहीं कर सकती है। केशव नन्द भारती के केस में यह निर्णय दिया गया, स्वयं संसद द्वारा भी संविधान में संशोधन लाकर संविधान के मूलभूत ढांचे को बदला नहीं जा सकता है, ऐसे संशोधन संविधान के मूलभूत ढांचे से अल्ट्रा वायर्स घोषित हो जाएंगे। इस उदाहरण द्वारा हम यह कहना चाहते हैं कि स्वयं संसद भी अनुच्छेद 14 व 16 से खिलवाड़ नहीं कर सकती है। 💥💥💥💥💥 💡⚛ ⚛(‪#‎अति_महत्वपूर्ण‬)

💡💡 उक्त बाध्यकारी निर्णयों से साफ़ है कि सरकारी सेवा हेतु चयन प्रक्रिया में अनुच्छेद 14 व 16 का अनुपालन अति आवश्यक है।💡💡

✍💥💥 Dr. D.C. Wadhwa & Ors. Vs. State of Bihar & Ors के केस में कोर्ट ने यह कहा, "चूँकि यह सिद्ध हो चुका है कि सरकारी सेवा में समानता के अधिकार का पालन करना आवश्यक है तथा हमारा संविधान क़ानून के राज की बात करता है अतः यह कोर्ट किसी चयन प्रक्रिया में अनुच्छेद 14 व 16 के उल्लंघन को नजरअंदाज नहीं कर सकती है।" जब तक की चयन समस्त योग्य लोगों के मध्य उचित प्रतिस्पर्धा से नहीं होता है तब तक वह नियुक्त हुए व्यक्ति को कोई अधिकार नहीं देता है। यदि कोई नियुक्ति संविदा पर हुई है तब ऐसी नियुक्ति संविदा अवधि समाप्ति पर स्वतः समाप्त हो जाएगी, यदि नियुक्ति दैनिक भत्ते पर हुई है तब उसको रोकते ही ऐसी नियुक्ति समाप्त हो जाती है। इसी प्रकार एक अस्थायी कर्मचारी अपनी सेवा अवधि समाप्त होने के पश्चात अपनी नियुक्ति जारी रखने अथवा स्थायी किये जाने की मांग नहीं कर सकता है। यह भी साफ़ किया जाता है कि केवल इसलिए कि कोई संविदा कर्मी किसी पद पर लम्बे समय तक कार्य करता रहा हो तब केवल इस समयावधि को देखते हुए उसको स्थायी नहीं किया जा सकता यदि उसकी प्रथम नियुक्ति ही सम्बंधित नियमों के अनुसार न हुई हो। 💥💥

6⃣ ‪#‎कोर्ट_द्वारा_निकाले_गए_निष्कर्ष‬ :

✍ समान कार्य हेतु समान वेतन का सिद्धांत और एक अस्थायी कर्मी को स्थायी करने का आदेश दे देना, दोनों ही बिलकुल अलग बाते हैं। पूर्ण न्याय करने के अधिकार का अर्थ यह नहीं हो गया कि सरकारी सेवा हेतु संविधान द्वारा बनाई गई व्यवस्था का उल्लंघन करते हुए कोई आदेश दिया जाए। Dharwad केस के बाद सरकार ने विभिन्न आदेश जारी करते हुए किसी भी विभाग में संविदा अथवा एडहॉक नियुक्तियों को रोक दिया परन्तु फिर भी कुछ अधिकारियों ने उन आदेशों का पालन किये बिना ऐसी एडहॉक अथवा संविदा पर नियुक्तियाँ करना जारी रखा जिस कारण कुछ नियोक्ता अधिकारियों को दण्डित भी किया गया। अनुच्छेद 226 व 32 के तहत प्रदत्त अधिकार व अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए ऐसी नियुक्तियों को स्थायी अथवा समायोजित कर देना न्यायोचित नही होगा। 💥💥 पूर्ण न्याय केवल क़ानून के दायरे में रह कर किया जा सकता है, हालाँकि राहत को किस प्रकार देना है यह कोर्ट पर निर्भर करता है परन्तु ऐसी कोई भी राहत नहीं दी जा सकती जिससे किसी गैर कानूनी कार्य को बढ़ावा मिले।💥💥

✍ विभिन्न कोर्ट द्वारा समायोजन अथवा स्थायी करने को लेकर दिए गए आदेशों में कोर्ट कर्मचारियों द्वारा संविदा पर लम्बे समय तक कार्य करने को लेकर प्रभावित हुईं तथा समायोजन अथवा स्थायी करने का आदेश दे बैठीं। ऐसा नहीं है कि संविदा पर नियुक्ति के समय सम्बंधित कर्मी संविदा की शर्तों से अनभिज्ञ था। कर्मचारी ने आँखे खोलकर व सोच समझ कर ही ऐसी नियुक्ति को स्वीकारा था। हो सकता है कि ऐसी नियुक्ति के समय वह सौदेबाजी की स्थिति में न हो और अपना पेट पालने के लिए चाहे जैसी नौकरी मिले, करने को तैयार हो। परन्तु केवल इस कारण से सरकारी सेवा हेतु संविधानिक व्यवस्था को खतरे में नहीं डाला जा सकता है, तथा ऐसे संविदा कर्मियों को स्थायी नहीं किया जा सकता है। ऐसा करना नियुक्ति का एक और तरीका बनाना होगा जो कि मान्य नहीं किया जा सकता है। 💡💡

✍ नौकरी चुनते समय सम्बंधित व्यक्ति उस नौकरी की शर्तों को जानता है व समझता है। यह तथ्य कि कोई व्यक्ति किसी पद पर वर्षों से कार्य कर रहा है अतः उसको निकालना न्यायोचित नहीं होगा, मान्य नहीं किया जा सकता है क्योंकि उस पद को चुनते समय वह व्यक्ति उस नौकरी की शर्तों से पूर्णतया वाकिफ था। ऐसा करना अनुच्छेद 14 व 16 के तहत कई अन्य लोगों के सरकारी सेवा में आने के समान अधिकार की अवहेलना होगा। 👈👈 💥

7⃣ ‪#‎अनुच्छेद_142_के_तहत_प्रदत्त_शक्तियों_का_प्रयोग_व_आदेश‬ :

✒ वकीलों द्वारा यह तर्क देना कि Dharwad तथा प्यारा सिंह केस जैसे निर्णयों से संविदा कर्मियों को भविष्य में स्थायी होने की Legitimate Expectation हो गई, अर्थात इन निर्णयों ने ऐसे कर्मचारियों के मन में भविष्य में स्थायी होने की उम्मीद जगा दी अतः इनको स्थायी कर दिया जाए, मान्य नहीं किया जा सकता है। संविदा कर्मी Legitimate Expectation की थ्योरी की दुहाई नहीं दे सकते, चूँकि नियुक्ति देते समय नियोक्ता ने किसी भी संविदा कर्मी को भविष्य में स्थायी करने का वादा नहीं किया था अतः इस तरह की मांग करना मान्य नहीं किया जा सकता है। हालाँकि नियोक्ता चाह कर भी संविधानिक नियमों के तहत नियुक्ति के समय ऐसा वादा नहीं कर सकता था।

✒ वकीलों द्वारा यह तर्क भी दिया गया कि अनुच्छेद 14 व 16 के तहत संविदा कर्मियों के अधिकारों का हनन हुआ है क्योंकि उनसे भी वह ही कार्य कराया जाता है जो स्थायी कर्मियों द्वारा कराया जाता है जबकि स्थायी कर्मियों को संविदा कर्मियों से कहीं अधिक वेतन/मेहनताना दिया जाता है अतः उनको भी स्थायी किया जाए। हालाँकि यह स्पष्ट है कि संविदा कर्मियों को उतने वेतन/मानदेय का भुगतान किया जा रहा है जो नियुक्ति के उनकी जानकारी में था। ऐसा बिलकुल नहीं है कि निर्धारित मानदेय का भुगतान न किया जा रहा हो। संविदा कर्मी एक अलग ही श्रेणी के कर्मचारी होते हैं व उनको निर्धारित नियमों के अनुसार नियुक्त हुए स्थायी कर्मचारियों के समान नहीं कहा जा सकता है। अगर इस तर्क को समान कार्य के लिए समान वेतन की बात पर लागू कर भी लिया जाए तब भी यह नहीं कहा जा सकता कि संविदा कर्मियों के पास ऐसा कोई अधिकार आ गया जिसके द्वारा उनको नियमित सेवा में स्थायी कर दिया जाए क्योंकि स्थायी नियुक्ति संविधान के अनुच्छेद 14 व 16 का पालन करते हुए ही की जा सकती है। संविदा कर्मियों को संविधानिक नियमों के अनुपालन में नौकरी पाए स्थायी कर्मियों के समान मानते हुए उनको समायोजित करना असमान लोगों को एक समान मानना होगा जो कि संविधानिक दृष्टि से मान्य नहीं किया जा सकता है। अतः अनुच्छेद 14 व 16 के तहत समायोजन की मांग को खारिज किया जाता है।

✒ यह भी तर्क दिया जाता है कि भारत जैसे देश में जहाँ रोजगार को लेकर इतनी मारामारी है तथा एक बड़ी संख्या में लोग रोजगार की तलाश में हैं अतः स्टेट द्वारा संविदा कर्मियों को स्थायी न करना संविधान के अनुच्छेद 21 की अवहेलना होगी। इस तर्क में ही इस तर्क की काट भी निहित है। भारत एक बड़ा देश है तथा एक बड़ी संख्या में लोग रोजगार व सरकारी सेवा में रोजगार हेतु समान अवसर के इंतजार में हैं। इसी कारण संविधान के मूलभूत ढांचे में अनुच्छेद 14, 16 व 309 को स्थान दिया गया है, ताकि सरकारी पदों पर नियुक्तियाँ उचित व न्यायसंगत रूप से हों तथा उन सभी को समान मौका मिले जो उस पद हेतु योग्यता रखते हों। अतः अनुच्छेद 21 के तहत एक ख़ास वर्ग के लोगों के लिए समस्त योग्य लोगों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। यह भी तर्क दिया जा रहा है कि इतने कम मानदेय पर कार्य करा कर सरकार ने जबरदस्ती मजदूरी कराई है जिससे अनुच्छेद 23 की अवहेलना हुई है। इस तर्क को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है क्योंकि संविदा कर्मियों ने स्वेच्छा से नियुक्ति हेतु हामी भरी थी तथा नियुक्ति की शर्तों से पूर्ण रूप से वाकिफ थे। परिस्थिति विशेष में न्याय करने के नाम पर हम केवल कोर्ट में न्याय मांगने आए लोगों को वरीयता नहीं दे सकते, हमें उन अनेकों लोगों के अधिकारों को भी ध्यान में रखना है जो सरकारी सेवा में समान अवसर की प्रतीक्षा में हैं। अतः अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए तर्कों को ओवर रूल किया जाता है।

✒ सामान्यतः जब अस्थायी कर्मचारी कोर्ट में याची बन कर आते हैं तब उनकी मांग होती है कि कोर्ट सम्बंधित नियोक्ता को परमादेश (Mandamus) जारी करे कि उक्त कर्मचारियों को स्थायी सेवा में समायोजित कर लिया जाए। अब यह प्रश्न उठता है कि क्या इस बाबत परमादेश जारी किया जा सकता है? इस प्रश्न के उत्तर हेतु Dr. Rai Shivendra Bahadur Vs. The Governing Body of the Nalanda College केस में सुप्रीम कोर्ट की संविधानिक पीठ द्वारा दिए गए निर्णय पर ध्यान देना आवश्यक है। कोर्ट ने कहा था, "परमादेश द्वारा किसी अधिकारी/सरकार को कुछ करने के लिए बाध्य करने से पूर्व यह निर्धारित करना होता है कि वास्तव में कोई कानून उस अधिकारी को वह कार्य करने को कानूनी रूप से बाध्य करता है तथा साथ ही साथ परमादेश की मांग करने वाले याचिकाकर्ता को भी सिद्ध करना होता है कि यह कार्य कराने हेतु उसके पास कानूनी अधिकार हैं।" उपरोक्त निर्णय इस परिस्थिति में भी कार्य करेगा, जैसा कि साफ़ है कि अस्थायी कर्मियों के पास कोई भी कानूनी अधिकार नहीं है जिसके तहत वह स्वयं को स्थायी करने की मांग कर सकें अतः उनके पक्ष में इस बाबत कोई परमादेश जारी नहीं किया जा सकता है।💡

✒ यहाँ यह साफ़ कर देना भी उचित है कि ऐसे अस्थायी कर्मचारी जिनकी नियुक्ति केवल अनियमित (Irregular) है तथा जो 10 वर्ष से अधिक समय तक बिना मुकदमे बाजी के कार्यरत रहे हैं, की नियुक्ति को नियमित किया जा सकता है। अतः कोर्ट यह आदेश देती है कि ऐसे अनियमित कर्मचारियों को जिन्होंने बिना कोर्ट के दखल के 10 वर्ष से अधिक कार्य किया हो तथा जिनकी नियुक्ति स्वीकृत पदों पर हुई हो, को आदेश जारी होने के 6 माह के भीतर केवल एक बार, नियमित करने हेतु आवश्यक कदम उठाए जाएं। तथा ऐसे स्वीकृत पद जो अभी भी रिक्त हों को नियमित प्रक्रिया द्वारा भरा जाए। (‪#‎पैरा_44‬) 💥💥🔨

✒ यह भी स्पष्ट किया जाता है कि जिन निर्णयों में इस केस के निर्णय में बताए गए दिशानिर्देशों से हटकर स्थायी करने अथवा समायोजन करने के आदेश दिए गए हैं, उनको अब से नजीर के रूप में प्रयोग नहीं किया जाएगा। (‪#‎पैरा_45‬) 💥💥🔨

✒ वाणिज्य कर विभाग से सम्बंधित मुद्दों में हाई कोर्ट ने आदेश दिया था कि दिहाड़ी पर कार्यरत कर्मचारियों को अन्य स्थायी कर्मचारी जो अपने निर्धारित संवर्ग में कार्यरत हैं, के समान वेतन व भत्त्ते संविदा पर नियुक्ति के प्रथम दिन से दिए जाएं। साफ़ जाहिर है कि हाई कोर्ट ने उचित निर्णय नहीं दिया। राज्य पर इस तरह का भार डालना हाई कोर्ट के अधिकार में नहीं था खासकर तब जब उनके समक्ष मुख्य प्रश्न यह था कि क्या ऐसे दिहाड़ी पर कार्यरत कर्मचारियों को समान कार्य हेतु समान वेतन दिया जाए जबकि उनको सरकार द्वारा संविदाकर्मी नियुक्त न करने के आदेश के बाद भी नियुक्त किया गया था। हाई कोर्ट अधिक से अधिक यह निर्णय दे सकती थी कि उक्त संविदा कर्मियों को आदेश की तिथि से समान कार्य हेतु स्थायी कर्मियों के समान वेतन दिया जाए। अतः स हिस्से को सुधारते हुए यह निर्णय दिया जाता है कि ऐसे दिहाड़ी कर्मचारियों को उस कैडर की स्थायी सेवा में नियुक्त कर्मचारियों के सबसे निचले ग्रेड के अनुसार वेतन हाई कोर्ट के आदेश की तिथि से दिया जाए। तथा जैसा कि हमने निर्णय दिया है कि कोर्ट किसी भी प्रकार के समायोजन का आदेश नहीं दे सकती हैं अतः हाई कोर्ट के आदेश के उस हिस्से जिसमें उन्होंने वाणिज्य कर विभाग के संविदा कर्मियों को स्थायी करने का आदेश दिया है, को रद्द किया जाता है।

✒ यदि स्वीकृत पद रिक्त हैं तब सरकार उन पदों को नियमित चयन प्रक्रिया द्वारा जल्द से जल्द भरने हेतु आवश्यक कदम उठाएगी, नियमित चयन प्रक्रिया में वाणिज्य कर विभाग, के संविदा कर्मियों (सिविल अपील 3595-3612 के प्रतिवादी) को भी भाग लेने का मौका मिलेगा। उनको अधिकतम आयु सीमा में छूट तथा विभाग में इतने लम्बे समय तक कार्य करने के कारण, कुछ भारांक दिया जाएगा। इस परिस्थिति में पूर्ण न्याय करने हेतु अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त शक्तियों का इतना ही प्रयोग किया जा सकता है। (‪#‎पैरा_46‬) 💥💥🔨

8⃣ ‪#‎आदेश_का_सार‬ :

★ इस आदेश के द्वारा देश समस्त संविदा कर्मियों को कवर किया गया है।
★ किसी भी संविदा कर्मी को नियमित केवल इस ही केस में आए आदेश के अनुसार किया जा सकता है तथा किसी भी अन्य आदेश को आधार नहीं बनाया जा सकता है। (पैरा 45)
★ संविधान का अनुच्छेद 309 सरकार को सरकारी पदों पर नियुक्ति हेतु नियम बनाने की शक्ति देता है। अनुच्छेद 309 के तहत बनाए गए रूल्स में सरकार सेवा शर्तें, चयन का आधार/तरीका आदि निर्धारित कर सकती है। सरकार द्वारा यदि उपरोक्त नियम बनाए गए हैं तब सरकारी पदों पर चयन केवल इन ही नियमों के अनुसार ही हो सकता है।
★ किसी भी सरकारी पद पर नियुक्ति केवल समस्त योग्य लोगों से विज्ञापन के माध्यम से आवेदन मांग कर व एक उचित चयन समिति द्वारा किसी उचित चयन प्रक्रिया जिससे आवेदन करने वालों की मेरिट की तुलना उचित रूप से हो सके, द्वारा ही की जा सकती है। ⭐⭐
★ यदि संसद भी चाहें तब भी संविधान के मूलभूत ढाँचे अर्थात अनुच्छेद 14 व 16 के तहत प्रदत्त समानता के अधिकारों से खिलवाड़ नहीं कर सकती है। अर्थात संविधान में संशोधन लाकर संविधान के मूलभूत ढांचे को बदला नहीं जा सकता है, ऐसे संशोधन संविधान के मूलभूत ढांचे से अल्ट्रा वायर्स घोषित हो जाएंगे। ⭐⭐
★ सरकारी सेवा में समानता के अधिकार का पालन करना आवश्यक है तथा हमारा संविधान क़ानून के राज की बात करता है अतः यह कोर्ट किसी चयन प्रक्रिया में अनुच्छेद 14 व 16 के उल्लंघन को नजरअंदाज नहीं कर सकती है।
★ सरकारी सेवा में समानता के अधिकार का पालन करना आवश्यक है तथा हमारा संविधान क़ानून के राज की बात करता है अतः यह कोर्ट किसी चयन प्रक्रिया में अनुच्छेद 14 व 16 के उल्लंघन को नजरअंदाज नहीं कर सकती है।
★ नियमितीकरण (Regularization) तथा स्थायी करने (Conferring permanence) में अंतर होता है। नियमित करने व स्थायी करने में बहुत फर्क है, इन दोनों को एक ही अर्थ में प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
★ नियमितीकरण (Regularization) का अर्थ किसी ऐसी प्रक्रिया सम्बन्धी कमी को दूर करना है जो चयन करते समय चयन प्रक्रिया में रह गई हो।
★ जब नियुक्ति एक्ट/रूल्स, अथवा न्यूनतम योग्यता को दरकिनार करते हुए होती है तब ऐसी नियुक्ति को अनियमित (Irregular) नियुक्ति नहीं अपितु गैर कानूनी (Illegal) नियुक्ति कहते हैं जिसको नियमित नहीं किया जा सकता है।
★ केवल अनियमित नियुक्तियों को नियमित किया जा सकता है, गैर कानूनी नियुक्ति को नियमित करने का प्रश्न ही नहीं होता।
★ समान कार्य हेतु समान वेतन देना अलग बात है परन्तु समस्त संविदा कर्मियों या अस्थायी कर्मचारियों को स्थायी करना अलग बात है। सरकारी पदों पर स्थायी नियुक्ति केवल संविधान के नियमों के तहत ही की जा सकती है।
★ जब नियुक्ति संविदा पर तथा पूर्व निर्धारित मानदेय पर होती है तब संविदा के अंत में नियुक्ति स्वतः समाप्त हो जाती है तथा ऐसे संविदा कर्मी के पास सेवा में बने रहने अथवा नियमित किये जाने का कोई अधिकार नहीं होता है।
★ केवल इसलिए कि कोई व्यक्ति किसी पद पर कई वर्ष कार्यरत रहा हो तो उसको उस पद पर नियमित होने का अधिकार नहीं मिल जाता है।
★ केवल संवेदना के आधार पर अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जा सकता है।
★ नियमितीकरण को नियुक्ति करने का एक तरीका नहीं माना जा सकता है, न ही यह नियुक्ति का एक तरीका हो सकता है।
★ नौकरी चुनते समय सम्बंधित व्यक्ति उस नौकरी की शर्तों को जानता है व समझता है। यह तथ्य कि कोई व्यक्ति किसी पद पर वर्षों से कार्य कर रहा है अतः उसको निकालना न्यायोचित नहीं होगा, मान्य नहीं किया जा सकता है।

★ संविदा कर्मी Legitimate Expectation की थ्योरी की दुहाई नहीं दे सकते, चूँकि नियुक्ति देते समय नियोक्ता ने किसी भी संविदा कर्मी को भविष्य में स्थायी करने का वादा नहीं किया था अतः इस तरह की मांग करना मान्य नहीं किया जा सकता है। हालाँकि नियोक्ता चाह कर भी संविधानिक नियमों के तहत नियुक्ति के समय ऐसा वादा नहीं कर सकता था।
★ संविदा कर्मियों को संविधानिक नियमों के अनुपालन में नौकरी पाए स्थायी कर्मियों के समान मानते हुए उनको समायोजित करना असमान लोगों को एक समान मानना होगा जो कि संविधानिक दृष्टि से मान्य नहीं किया जा सकता है।
★ सुप्रीम कोर्ट की तरह हाई कोर्ट के पास अनुच्छेद 142 जैसी शक्ति नहीं होती है अतः केवल इसलिए कि सुप्रीम कोर्ट ने किसी केस में अनुच्छेद 142 का उपयोग करते हुए कोई आदेश जारी किया हो, हाई कोर्ट भी उसको नजीर बनाते हुए वैसा ही आदेश जारी नहीं कर सकती हैं।
★ नजीर केवल उन ही आदेशों को बनाया जा सकता है जिसमें किसी कानूनी प्रश्न को हल किया गया हो।
★ अनुच्छेद 142 के तहत पूर्ण न्याय केवल क़ानून के दायरे में रह कर किया जा सकता है, हालाँकि राहत को किस प्रकार देना है यह कोर्ट पर निर्भर करता है परन्तु ऐसी कोई भी राहत नहीं दी जा सकती जिससे किसी गैर कानूनी कार्य को बढ़ावा मिले।
★ यदि पूर्व में किसी केस विशेष में सुप्रीम कोर्ट ने किसी संविदा कर्मी को स्थायी किया है तब उस केस के निर्णय के आधार पर कोई अन्य संविदा कर्मी हाई कोर्ट में स्वयं को भी नियमित करने की मांग नहीं कर सकता है।
★ परिस्थिति विशेष में पूर्ण न्याय करने के नाम पर हम केवल कोर्ट में न्याय मांगने आए लोगों को ही ध्यान में नहीं रख सकते, हमें उन अनेकों लोगों के अधिकारों को भी ध्यान में रखना है जो सरकारी सेवा में समान अवसर की प्रतीक्षा में हैं। ⭐⭐
★ परमादेश द्वारा किसी अधिकारी/सरकार को कुछ करने के लिए बाध्य करने से पूर्व यह निर्धारित करना होता है कि वास्तव में कोई कानून उस अधिकारी को वह कार्य करने को कानूनी रूप से बाध्य करता है तथा साथ ही साथ परमादेश की मांग करने वाले याचिकाकर्ता को भी सिद्ध करना होता है कि यह कार्य कराने हेतु उसके पास कानूनी अधिकार हैं।
★ अस्थायी कर्मियों के पास कोई भी कानूनी अधिकार नहीं है जिसके तहत वह स्वयं को स्थायी करने की मांग कर सकें अतः उनके पक्ष में इस बाबत कोई परमादेश जारी नहीं किया जा सकता है।
★ ऐसे अस्थायी कर्मचारी जिनकी नियुक्ति केवल अनियमित (Irregular) है तथा जो 10 वर्ष से अधिक समय तक बिना मुकदमे बाजी के कार्यरत रहे हैं, की नियुक्ति का नियमितीकरण (Regularization) किया जा सकता है। अतः कोर्ट यह आदेश देती है कि ऐसे अनियमित कर्मचारियों को जिन्होंने बिना कोर्ट के दखल के 10 वर्ष से अधिक कार्य किया हो तथा जिनकी नियुक्ति स्वीकृत पदों पर हुई हो, को आदेश जारी होने के 6 माह के भीतर केवल एक बार, नियमित करने हेतु आवश्यक कदम उठाए जाएं।
★ यदि स्वीकृत पद रिक्त हैं तब सरकार उन पदों को नियमित चयन प्रक्रिया द्वारा जल्द से जल्द भरने हेतु आवश्यक कदम उठाएगी, नियमित चयन प्रक्रिया में वाणिज्य कर विभाग, के संविदा कर्मियों (सिविल अपील 3595-3612 के प्रतिवादी) को भी भाग लेने का मौका मिलेगा। उनको अधिकतम आयु सीमा में छूट तथा विभाग में इतने लम्बे समय तक कार्य करने के कारण, कुछ भारांक दिया जाएगा। इस परिस्थिति में पूर्ण न्याय करने हेतु अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त शक्तियों का इस हद तक ही प्रयोग किया जा सकता है।⭐⭐

9⃣ ✒✒ ‪#‎आदेश_का_महा_सार‬ 💡💡

★★ कोर्ट केवल नियमितीकरण का आदेश दे सकती हैं। स्थायी करने का नहीं।
★★ नियुक्ति के समय प्रक्रिया सम्बन्धी कमी को दूर करना नियमितीकरण (Regularization) कहलाता है।
★★ एक्ट/रूल्स, अथवा न्यूनतम योग्यता को दरकिनार करते हुए हुई नियुक्ति गैर कानूनी (Illegal) नियुक्ति कहते हैं।
★★ अनियमित नियुक्ति को नियमित किया जा सकता है। गैर कानूनी नियुक्ति को नहीं।
★★ सरकारी पदों पर नियुक्ति अनुच्छेद 14, 16 व 309 के तहत केवल खुली भर्ती द्वारा हो सकती हैं।
★★ अनुच्छेद 14, 16 व 309 संविधान के मूलभूत ढाँचे का हिस्सा हैं।
★★ संसद संविधानिक संशोधन लाकर भी संविधान के मूलभूत ढांचे को बदल नहीं सकती।

🔟 ✍✍ ‪#‎शिक्षा_मित्र_केस_से_लिंक‬ ✍✍

★ शिक्षा मित्र संविदा कर्मी मात्र हैं।
★ नियुक्ति के समय उनको अपनी नियुक्ति की शर्तों का ज्ञान था।
★ शिक्षा मित्रों की प्रथम नियुक्ति संविधानिक नियमों अर्थात अनुच्छेद 14, 16 व 309 के अनुसार नहीं हुई थी।
★ शिक्षा मित्रों का चयन सर्विस रूल से नहीं हुआ था।
★ नियुक्ति के समय शिक्षा मित्र सर्विस रूल में विहित न्यूनतम योग्यता (बीटीसी + स्नातक) नहीं रखते थे।
★ शिक्षा मित्रों की नियुक्ति के समय आरक्षण के नियमों का पालन नहीं हुआ था। जिस जाति का ग्राम प्रधान था उस ही जाति का शिक्षा मित्र नियुक्त कर लेना आरक्षण नियमों का पालन नहीं कहा जा सकता है।
★ शिक्षा मित्रों की प्रथम नियुक्ति अनियमित नहीं अपितु गैर कानूनी थी।
★ गैर कानूनी नियुक्ति को नियमित नहीं किया जा सकता है।

1⃣1⃣ ‪#‎Pro_Tip‬ : कुछ शिक्षा मित्र नेता कहते हैं कि समायोजन बाधा नहीं है बल्कि टीईटी बाधा है। मैं कहता हूँ कि टीईटी तो आप लोग हो सकता है कैसे भी पास कर लें, वास्तविक बाधा समायोजन है। आपका समायोजन नहीं हो सकता है। टीईटी पास कर के बीटीसी प्रशिक्षितों से प्रतिस्पर्धा कर के ही खुली भर्ती के माध्यम से नियुक्ति पा सकते हैं।
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