आज सुप्रीम कोर्ट से हुए फ़ैसले के बाद निश्चित रूप से उन योग्य बेरोजगारों को निराशा हाथ लगी होगी जिन्होंने अपनी योग्यता एक निश्चित क्रम से प्राप्त की हैं। वहीं दूसरी तरफ़ गुरु पूर्णिमा के शुभअवसर पर निश्चित क्रम को तोड़ते हुए नियुक्ति प्राप्त समस्त शिक्षकों को बड़ी राहत मिली हैं उन्हें बधाई।
ये मेरा नितांत व्यतिगत मानना/विचार है कि आज माननीय उच्चतम न्यायालय ने ऐसा आदेश सिर्फ इसलिए दिया है कि जो अभ्यर्थी निर्धारित क्रम तोड़कर (जो पहले पास करना चाहिए वो बाद में और जो बाद में पास करना चाहिए उसे पहले पास किया) शिक्षक के रूप में नियुक्ति पाए हैं वो उतने दोषी नहीं है जितना उन्हें प्रत्येक स्तर पर अनुमति देते गए अधिकारी/सरकारें दोषी हैं। कोर्ट ने ये माना है कि इन सभी ने न्यूनतम निर्धारित योग्यता प्राप्त की है भले ही वह निर्धारित क्रम गलत रहा हो। केबल इस बिंदु को ध्यान में रखकर ही इतने सभी का प्राप्त हुआ रोज़गार नहीं छीना जा सकता। संभवतः यही देखते हुए सर्वोच्य न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला पलट दिया हैं।
आज यदि ऐसा ही हुआ है तो मेरे अनुसार यह गलत हुआ है। और इसका प्रमुख दोषी न्यायालय नहीं बल्कि वो सरकार और सक्षम अधिकारी हैं जिन्होंने समय पर अभ्यर्थियों के आवेदन स्वीकार्य किये, उन्हें प्रमाण पत्र प्रदान किया और उन्हीं के आधार पर नियुक्ति पत्र भी प्रदान किये। यदि उसी समय ऐसे अभ्यर्थियों को निर्धारित मानक के अनुसार नियम पर कसा गया होता तो आज उसका अहित नहीं होता जिसने सभी कार्य/योग्यताएँ नियम निश्चित क्रम से प्राप्त की हैं।
माननीय न्यायालयों को अपने आदेश में यह भी सम्मलित करना चाहिए कि भविष्य में यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है तो पहले उन अधिकारी/सरकारों पर कार्यवाही की जाएगी जो ऐसी परिस्थिति के वास्तविक ज़िम्मेदार हैं।
शिक्षामित्रों के असंवैधानिक समायोजन होने और फिर न्यायालय से निरस्त होने के लिए भी प्रमुख रूप से सरकार और सक्षम अधिकारी ही जिम्मेदार हैं। यदि इन्होंने गलत नियम से समायोजन ना किया होता तो कोई भी शिक्षामित्र उम्मीद नहीं पालता और ना ही अन्य योग्यताधारी अभ्यर्थी अपने अधिकार के लिए सभी तरफ़ प्रताड़ित होता। और बिडम्बना ये भी है कि न्यायालय के किसी भी आदेश में ऐसी कोई लाइन नहीं होती जो इन पर अंकुश लगा सके इन पर कार्यवाही कर सके।
पता नहीं कब तक चलता रहेगा ये, जहाँ जीतने वाला भी जीतने तक छला जाता रहेगा और हारने वाला तो आजीवन।
आख़िर कब तक..?
✍मयंक तिवारी
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Originally published by https://e-sarkarinaukriblog.blogspot.com/
ये मेरा नितांत व्यतिगत मानना/विचार है कि आज माननीय उच्चतम न्यायालय ने ऐसा आदेश सिर्फ इसलिए दिया है कि जो अभ्यर्थी निर्धारित क्रम तोड़कर (जो पहले पास करना चाहिए वो बाद में और जो बाद में पास करना चाहिए उसे पहले पास किया) शिक्षक के रूप में नियुक्ति पाए हैं वो उतने दोषी नहीं है जितना उन्हें प्रत्येक स्तर पर अनुमति देते गए अधिकारी/सरकारें दोषी हैं। कोर्ट ने ये माना है कि इन सभी ने न्यूनतम निर्धारित योग्यता प्राप्त की है भले ही वह निर्धारित क्रम गलत रहा हो। केबल इस बिंदु को ध्यान में रखकर ही इतने सभी का प्राप्त हुआ रोज़गार नहीं छीना जा सकता। संभवतः यही देखते हुए सर्वोच्य न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला पलट दिया हैं।
आज यदि ऐसा ही हुआ है तो मेरे अनुसार यह गलत हुआ है। और इसका प्रमुख दोषी न्यायालय नहीं बल्कि वो सरकार और सक्षम अधिकारी हैं जिन्होंने समय पर अभ्यर्थियों के आवेदन स्वीकार्य किये, उन्हें प्रमाण पत्र प्रदान किया और उन्हीं के आधार पर नियुक्ति पत्र भी प्रदान किये। यदि उसी समय ऐसे अभ्यर्थियों को निर्धारित मानक के अनुसार नियम पर कसा गया होता तो आज उसका अहित नहीं होता जिसने सभी कार्य/योग्यताएँ नियम निश्चित क्रम से प्राप्त की हैं।
माननीय न्यायालयों को अपने आदेश में यह भी सम्मलित करना चाहिए कि भविष्य में यदि ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है तो पहले उन अधिकारी/सरकारों पर कार्यवाही की जाएगी जो ऐसी परिस्थिति के वास्तविक ज़िम्मेदार हैं।
शिक्षामित्रों के असंवैधानिक समायोजन होने और फिर न्यायालय से निरस्त होने के लिए भी प्रमुख रूप से सरकार और सक्षम अधिकारी ही जिम्मेदार हैं। यदि इन्होंने गलत नियम से समायोजन ना किया होता तो कोई भी शिक्षामित्र उम्मीद नहीं पालता और ना ही अन्य योग्यताधारी अभ्यर्थी अपने अधिकार के लिए सभी तरफ़ प्रताड़ित होता। और बिडम्बना ये भी है कि न्यायालय के किसी भी आदेश में ऐसी कोई लाइन नहीं होती जो इन पर अंकुश लगा सके इन पर कार्यवाही कर सके।
पता नहीं कब तक चलता रहेगा ये, जहाँ जीतने वाला भी जीतने तक छला जाता रहेगा और हारने वाला तो आजीवन।
आख़िर कब तक..?
✍मयंक तिवारी
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