क्या बेसिक शिक्षा में NGO का पदार्पण बेसिक शिक्षा को दयनीय स्थिति में ले जाना है ?

अपने पिता से एवं परिवार के बड़े बुजुर्गों से अक्सर पूछ लेता हूँ कि आपके दौर के प्राथमिक विद्यालय कैसे थे ! तब वे बुज़ुर्ग मुस्कुराते हुए किस्से सुनाना शुरू कर देते हैं..... कहते हैं , अरे हमारो स्कूल गजब थो भैया ...... मगरे लाल मास्टर की छड़ी मेज पर जमी रहती थी मजाल किसी की कोई क्लास से उठ जाए..... स्कूल जो न आवै हम चार लोग जात करो थे उठायेके ले आउत करो थे........
मास्टर साहब एक गलती पर वो चाबुक चलाते मानो सारी गिनती आज ही याद हुई जाई...... अब न वैसे मास्टर रहे न वैसे बच्चा और उनके घर वाले......उलाहने दिलवा लियो आज के बच्चो के महतारी और बप्पा से ..... हमरे समय कोई उलाहनों लेकर ज़रा भी आओ समझो मास्टर कह देत रहे जाओ पढ़ गयो तुम्हारो लल्ला..... मैंने पूछ लिया उन बुज़ुर्ग को बीच मे रोकते हुए क्या उन मास्टरों के पढ़ाये बच्चा कलेक्टर बगैरा न बने......तो वे कह पड़े ....क्यो न बने ....बहुत बने...... कलेक्टर से लेकर डॉ , सांसद , विधायक सब बने ....पहले जे प्राइवेट स्कूल न होत करो थे ......जे सरकारी स्कूल ही तो थे ...... गजब स्कूल थे भैया !

उन बुजुर्गों से वार्ता कर मैं एक निष्कर्ष पर निकला था कि शिक्षक को जितना अधिक स्वतंत्र रखा गया था वह उतना अपना शत प्रतिशत देने हेतु तत्पर था । वह बच्चो को वह सब ज्ञान दे देना चाहता था जो उसके शिक्षको ने उसे दिया है । तब ये NGO का गोरखधंधा नही था ..... धन उगाही जैसी दोषपूर्ण व्यवस्था नही थी ...... प्राइवेट विद्यालय बेहतर है ऐसा सभी का कहना है , पर क्यो है इस विषय पर कोई चर्चा नही करता ? उन विद्यालयों में विद्यालय के कुशल संचालन की ज़िम्मेदारी विद्यालय प्रशासन की होती है..... उसी की ज़िमेदारी तय होती है ..... उसमे न बाल गणना होती है न ही पोलियो ड्यूटी , न जनसंख्या गणना होती है .....वहां NGO के आगमन पूर्णतया निषेध है , वे अपनी योजनाओं के आधार पर शिक्षा देते हैं वे किसी के प्रारूप को बच्चों पर थोपते नही .....उनका बच्चों को पढ़ाने का अपना अलग सलीका होता है । परन्तु प्राथमिक विद्यालयों में आजकल NGO की आंधी है ...... व्यवस्था इस तरह कमजोर की जा रही हैं कि सोचिये मत....... NGO की आड़ में जो रुपये का गोरखधंधा चल रहा है वह किसी से नही छिपा ......भारी भरकम रकम लेकर NGO को अबोध बच्चों पर थोप देना यह कहाँ तक उनके साथ न्याय है .... AC कमरे में बैठा NGO कार्मिक उस स्थानीय बच्चे के बारे में आखिर जनता कितना है , यह सोचने का विचार किया है कभी ? कभी यह सोचा है कि बच्चा किस भाषा मे सीखना व पढ़ना चाहता है ...... ?

एक दिन मेरी वार्ता खण्ड शिक्षा अधिकारी आदरणीय Manoj Kumar Bose जी से हो रही थी उन्होंने एक रोचक विचार दिया कि यदि कोई बच्चा अमरूद को देखकर उसे अपनी स्थानीय भाषा मे सपड़ी बुलाता है तो उसे ' स ' से सपड़ी पढ़ाना ज्यादा उचित है या इसे जबरदस्ती ' अ ' से अमरूद रटाना ज्यादा उचित है !


जब बच्चा अपना स्थानीय ज्ञान लेना चाहता है तब हम उस पर NGO के उल जुलूल क्रियाकलापों को थोपने का प्रयास कर रहे है ..... कभी शिक्षक को भी बच्चे के मनोभाव के आधार पर कुछ क्रियात्मक करने दीजिए...... शायद व्यवस्था में परिवर्तन आये ..... NGO का बेसिक शिक्षा में आगमन शिक्षा के साथ बलात्कार है ..... क्योकि बच्चों को जबरन उस सांचे में ढालने का प्रयास किया जा रहा है जो साँचा उनके लिए किसी भी स्तर से मुफीद नही है ..... समय रहते इन NGO के अतिक्रमण को नही रोका गया तो यह तय मानिए बेसिक शिक्षा बहुत बुरे दौर में पहुँच जाएगी इसका दोषी कोई नहीं सिर्फ वे NGO होंगे जो मोटी रकम लेकर / देकर खुद को आईंस्टीन का पिता समझने की भूल कर बैठे हैं !! एक बार आवश्यकता उन NGO की तह में जाने की ....कि इन NGO का मुख्य संचालन किस के द्वारा हो रहा है शायद आपको उनका असली चेहरा दिखाई दें.....

" नकाब में हर वस्तु खूबसूरत है , जरूरत है स्वयं को सुकून देने हेतु उस नकाब को हटाया जाए ..... देखा जाए उसकी विशेषताएं उतनी है क्या जितनी हमको आवश्यकता है ! संभल जाइए , बचा लीजिये उन बच्चों का भविष्य जो स्वर्णिम भारत की आधारशिला है । उनको आय का स्रोत न बनने दे ..... NGO हटाये ......बेसिक शिक्षा बचाये !! "

- अंकुर त्रिपाठी 'विमुक्त'
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