प्रदेश के लगभग 172000 शिक्षमित्रों ने पिछले 16 वर्षों से अपनी रोजी रोटी की सुनिश्चितता की आज़ादी गिरवी रखी हुई है।2001 से 2014 तक 14 सालों से शिक्षामित्रो को प्रदेश की सरकारों द्वारा भारतीय संविधान की धारा 19 और 21 में दी गई आजादी की रोजी रोटी की सुनिश्चितता की अवधारणाओं का उल्लंघन किया जाता रहा।
और फिर 2014 में राज्य सरकार ने अपना कर्तव्य निभाते हुए शिक्षामित्रों को अध्यापक बना के उनका संविधान प्रदत्त अधिकार देने का प्रयास किया। लेकिन इसपर अपने ही बीएड/बीटीसी बेरोज़गार भाइयों की बुरी नज़र पड़ी और हाई कोर्ट के फैसले ने उनके परिवार के सदस्यो को पीड़ित किया, क्योंकि उनकी रोजी रोटी कोर्ट के रवैए के कारण छीन ली गई तो राज्य सर्कार ने मामला सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख पेश किया। जबकि देश के विभिन्न हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दर्जनों फैसले आजीविका के अधिकार की रक्षा के लिए दिए गए। जैसे नवंबर 2014 में शिमला हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का ये फैसला कि शिक्षामित्रों को नियमित किया जाये। और इनकी सेवाओं को सम्मान दिया जाये।
मार्च 2015 में उत्तरप्रदेश राज्य बनाम चरणसिंह के मामले में फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति वी. गोपाला गौडा ने कहा कि भारतीय संविधान की धारा 19 और 21 में दी गई आजादी रोजी रोटी की सुनिश्चितता की अवधारणाओं का प्रबंधकों द्वारा उल्लंघन किया गया है। उसके परिवार के सदस्य पीड़ित हैं, क्योंकि उनकी रोजी रोटी प्रबंधकों के मनमाने रवैए के कारण छीन ली गई है। ओल्गा टेलिस व अन्य बनाम मुंबई म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को उद्धृत करते हुए न्यायालय ने प्रबंधकों को लताड़ लगाई, ‘... क्या जीने के अधिकार में आजीविका का अधिकार शामिल है। हमें इसका एक ही उत्तर दिखता है कि यह शामिल है।
और फैसला आजीविका के अधिकार के पक्ष में दिया।
संविधान के अनुच्छेद 21 का दायरा बेहद व्यापक है। जीने के अधिकार में महज इतना ही शामिल नहीं है कि किसी भी व्यक्ति का जीवन सजा-ए-मौत के द्वारा छीना जा सकता है। जीने का अधिकार मात्र एक पहलू है। इसका उतना ही महत्वपूर्ण पहलू है कि आजीविका का अधिकार जीने के अधिकार में शामिल है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति आजीविका के साधनों के बिना जी नहीं सकता। यदि आजीविका के अधिकार को संविधान प्रदत्त जीने के अधिकार में शामिल नहीं माना जाएगा तो किसी भी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार से वंचित करने का सबसे सरल तरीका है, उसके आजीविका के साधनों से उसे वंचित कर देना। ऐसी वंचना न केवल जीवन को निरर्थक बना देती है अपितु जीवन जीना ही असंभव बना देती है। किसी व्यक्ति को उसके आजीविका के अधिकार से वंचित करने का मतलब है, उसे जीवन से वंचित कर देना।
हम आज जब आज़ादी की स्वतंत्रता की चर्चा करते हैं तो हमे अपने बहुमूल्य 16 सालों की याद आती है उस जवानी की याद आती है जो हमने संविधान के अनुच्छेद 21क द्वारा प्रदत्त अधिकार को देश के कर्णधारो तक पहुँचाने में खर्च कर दिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21, व् 39 के तहत “जीने के अधिकार” की व्याख्या करते हुए अपने तमाम निर्णयों में कहा है संविधान के अनुच्छेद 39 के तहत सरकार का यह कर्तव्य है कि वह सभी को आजीविका उपलब्ध कराये। प्रभावितों की आजीविका खत्म होने से अनुच्छेद 39 का भी उल्लंघन होगा।
अब जबकि आम शिक्षामित्र अपने अधिकार के लिए अपने "मिशन सुप्रीम कोर्ट" के साथ लड़ रहा है तो सर्वोच्च न्यायालय से हम अपना संविधान प्रदत्त अधिकार ले कर रहेंगे और अगली 26 जनवरी और 15 अगस्त पूर्ण मनोयोग से मनाएंगे।
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और फिर 2014 में राज्य सरकार ने अपना कर्तव्य निभाते हुए शिक्षामित्रों को अध्यापक बना के उनका संविधान प्रदत्त अधिकार देने का प्रयास किया। लेकिन इसपर अपने ही बीएड/बीटीसी बेरोज़गार भाइयों की बुरी नज़र पड़ी और हाई कोर्ट के फैसले ने उनके परिवार के सदस्यो को पीड़ित किया, क्योंकि उनकी रोजी रोटी कोर्ट के रवैए के कारण छीन ली गई तो राज्य सर्कार ने मामला सर्वोच्च न्यायालय के सम्मुख पेश किया। जबकि देश के विभिन्न हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के दर्जनों फैसले आजीविका के अधिकार की रक्षा के लिए दिए गए। जैसे नवंबर 2014 में शिमला हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश का ये फैसला कि शिक्षामित्रों को नियमित किया जाये। और इनकी सेवाओं को सम्मान दिया जाये।
मार्च 2015 में उत्तरप्रदेश राज्य बनाम चरणसिंह के मामले में फैसला सुनाते हुए न्यायमूर्ति वी. गोपाला गौडा ने कहा कि भारतीय संविधान की धारा 19 और 21 में दी गई आजादी रोजी रोटी की सुनिश्चितता की अवधारणाओं का प्रबंधकों द्वारा उल्लंघन किया गया है। उसके परिवार के सदस्य पीड़ित हैं, क्योंकि उनकी रोजी रोटी प्रबंधकों के मनमाने रवैए के कारण छीन ली गई है। ओल्गा टेलिस व अन्य बनाम मुंबई म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को उद्धृत करते हुए न्यायालय ने प्रबंधकों को लताड़ लगाई, ‘... क्या जीने के अधिकार में आजीविका का अधिकार शामिल है। हमें इसका एक ही उत्तर दिखता है कि यह शामिल है।
और फैसला आजीविका के अधिकार के पक्ष में दिया।
संविधान के अनुच्छेद 21 का दायरा बेहद व्यापक है। जीने के अधिकार में महज इतना ही शामिल नहीं है कि किसी भी व्यक्ति का जीवन सजा-ए-मौत के द्वारा छीना जा सकता है। जीने का अधिकार मात्र एक पहलू है। इसका उतना ही महत्वपूर्ण पहलू है कि आजीविका का अधिकार जीने के अधिकार में शामिल है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति आजीविका के साधनों के बिना जी नहीं सकता। यदि आजीविका के अधिकार को संविधान प्रदत्त जीने के अधिकार में शामिल नहीं माना जाएगा तो किसी भी व्यक्ति को उसके जीने के अधिकार से वंचित करने का सबसे सरल तरीका है, उसके आजीविका के साधनों से उसे वंचित कर देना। ऐसी वंचना न केवल जीवन को निरर्थक बना देती है अपितु जीवन जीना ही असंभव बना देती है। किसी व्यक्ति को उसके आजीविका के अधिकार से वंचित करने का मतलब है, उसे जीवन से वंचित कर देना।
हम आज जब आज़ादी की स्वतंत्रता की चर्चा करते हैं तो हमे अपने बहुमूल्य 16 सालों की याद आती है उस जवानी की याद आती है जो हमने संविधान के अनुच्छेद 21क द्वारा प्रदत्त अधिकार को देश के कर्णधारो तक पहुँचाने में खर्च कर दिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 21, व् 39 के तहत “जीने के अधिकार” की व्याख्या करते हुए अपने तमाम निर्णयों में कहा है संविधान के अनुच्छेद 39 के तहत सरकार का यह कर्तव्य है कि वह सभी को आजीविका उपलब्ध कराये। प्रभावितों की आजीविका खत्म होने से अनुच्छेद 39 का भी उल्लंघन होगा।
अब जबकि आम शिक्षामित्र अपने अधिकार के लिए अपने "मिशन सुप्रीम कोर्ट" के साथ लड़ रहा है तो सर्वोच्च न्यायालय से हम अपना संविधान प्रदत्त अधिकार ले कर रहेंगे और अगली 26 जनवरी और 15 अगस्त पूर्ण मनोयोग से मनाएंगे।
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