पीसीएस परीक्षा की भर्तियों पर सदन में गूंजा मुद्दा, शासन करता रहा गुमराह

इलाहाबाद : उप्र लोकसेवा आयोग की पीसीएस परीक्षा 1985 की भर्तियों की जांच अनसुलझी है। 2005 में सीबीआइ ने इस मामले के दस्तावेज लेकर पड़ताल शुरू तो की लेकिन, अब तक इस मामले की सच्चाई सामने नहीं आ सकी है। जबकि यह प्रकरण सदन में लंबे समय तक गूंजा।
वहीं, शासन के अफसर जांच के संबंध में पूछी गए सवालों का गोलमोल जवाब देकर विधायकों तक को गुमराह करते रहे।
आयोग की ओर से सपा शासनकाल में हुई पांच साल की भर्तियों की जांच सीबीआइ को सौंपी गई है। जांच एजेंसी ने इसका नोटीफिकेशन भी जारी कर दिया। ऐसे में अभ्यर्थियों के जेहन में यह सवाल कौंध रहा है कि पिछली भर्तियों की जांच सरीखा हाल इस बार तो नहीं होगा। 1985 की पीसीएस परीक्षा का प्रकरण विधान परिषद में लंबे समय तक गूंजा था और यहां तक कहा गया कि उप्र लोकसेवा आयोग ने पंजाब आयोग से भी कई कदम आगे बढ़कर अनियमितताएं की हैं। पंजाब में तो भ्रष्टाचार करने वाले आयोग के अध्यक्ष गिरफ्तार हुए व दो न्यायाधीशों को इस्तीफा देना पड़ा, जबकि यूपी का प्रकरण और भी गंभीर है।
सदन में कहा गया कि 1985 के विज्ञापन से 32 पदों पर अपर जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी महिला का चयन होना था। यह विज्ञापन आठ जून, 1987 को निरस्त कर दिया गया। इसके विरुद्ध हाईकोर्ट में याचिका दाखिल हुई। आयोग ने शपथपत्र देकर कहा कि परीक्षा में एससी के दो व ओबीसी के पांच अभ्यर्थी ही शामिल हुए। इसे सही मानकर कोर्ट ने चयन को भी ठीक मान लिया। वहीं, भाजपा एमएलसी डा. यज्ञदत्त शर्मा ने सदन को बताया था कि परीक्षा में एससी के 42 व ओबीसी के 38 अभ्यर्थी थे। आयोग ने मिलीभगत करके चुनिंदा अभ्यर्थियों का चयन किया है, अधिक अंक पाने वाले अभ्यर्थी साक्षात्कार में बुलाए ही नहीं गए। यह गंभीर घोटाला है, जिन्होंने इस मामले में आवाज उठाई उनसे स्पष्टीकरण मांगा गया है। इस प्रकरण पर चर्चा को कार्य स्थगन प्रस्ताव तक लाया गया, ताकि सच्चाई सामने आए, फिर भी सीबीआइ की जांच अब तक पूरी नहीं हो सकी है। वहीं, शासन के अफसर भी सीबीआइ जांच को लेकर विधायकों तक को गुमराह करते रहे।

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