72825 / बीएड,टैट : अदालत - पैरवी - सरकार - सफलता

72825/बीएड,टैट->अदालत-पैरवी-सरकार-सफलता
सपनों को पाले सघर्षरत पाँच साल बीत गए,हम लगातार चलते जा रहे हैं किन्तु हम कितना भी चलें अपनी सफलता के क्षितिज की दूरी उतनी की उतनी ही है।।
सवाल ये है कि इसका वास्तविक कारण क्या है।समीक्षा में सबके लिए(सह मोर्चा के) अलग अलग दोषी हैं,कोई भारतीय कानून को जिम्मेदार ठहराता कोई सरकार को,कोई पैरवीकारों को गलत कहता तो कोई अधिकारियों को। किन्तु यदि हम शुरू से देखें तो पाएँगे कि गलती की शुरुआत हमीं से हुई(टेट मोर्चा/एकैडमिक/टैट/व्यक्तिगत मैं) है।पहले हमीं बन्दर (टैट/एकैडमिक) रोटी(जाब) के लिए आँखे मूदे भिड़े रहे और मजा मारती रही लोमड़ियाँ (सरकार/शिक्षामित्र) इसमें कहीं न कहीं हम सबकी मूर्खता/स्वार्थान्धता ही थी।
असली चूक वहाँ हुई कि हमारे पैरवीकार हमसे समर्थन की अपील (हमें अच्छे से याद है कि लगभग सभी पैरवीकार संख्याबल पर समय सीमा के साथ जाब दिलाने का दावा कर चुके हैं)करते रहे और हम सबने सहयोग (पैसा) देना शुरू किया। जैसे ही पैसा मिलना शुरू हुआ कि रोज नई दुकाने लगने लगीं ,आरोप प्रत्यारोप के साथ कमाने की प्रतिष्पर्धा शुरू हो गई ।जैसे जैसे रुपए बढ़ते गए पैरवीकारों को जाब की चिंता कम होती गई अाज तक "आम याची" लगातार चुसते जा रहे हैं।।अब हमारी बेचैनी यही है कि कहीं गुठली फेंक न दी जाए..............
सच्चाई यही है कि कोर्ट/सरकार हमेशा उन्ही मुद्दो पर त्वरित कार्यवाही करती है जो हाई प्रोफाइल हों,तो ऐसा मुद्दा जिससे 250000 घर प्रभावित हों,जिसके पास 80'00'00'000( 40000*2000याची) रु होते हुए भी हाई लाइट नहीं हो पाया क्यों...???
इसके उत्तर से स्पष्ट
होता है कि कहीं न कही हमारे पैरवीकार- नेता(व्यक्तिगत स्वार्थी/संवेदनहीन/लालची) तो बने ही हैं,वरना इधर बच्चा बच्चा टैट बी एड समझ गया और उधर अधिकारी,मीडिया आज तक अछूते ही हैं -क्यों ?? इतने रुपए के साथ सरकार तो क्या मीडिया/अधिकारी घर घर की दशा महीनों गाते।मगर अफसोस,कि लाठियां चलती रहीं ,बहिनों तक को निर्ममता से तोड़ा फाड़ा जाता रहा,साथी आत्महत्या करते रहे,कितने परिवार बदहाल होते गए,कितने साथी मानसिक विक्षिप्त हो गए,कितने साथियों ने परिजनों से मुह चुराना(भर्ती का क्या रहा) शुरु कर दिया,कितनी माँ, बाप ,भाई,बहनों की आँखें पथरा गई-अधे हो गएं,कितने उम्मिद लेकर दिवंगत हो गए,कितने साथियों के गले सूख गए दिलासा देते देते ;कभी अपने को ,कभी अपनों को और मामला है कि किसी को खबर ही नहीं जो अफसोस की होनी चाहिए वो आश्चर्य की बात है--
तो मेरी व्यक्तिगत अपील है कम से कम हमारे साथी(पैरवीकार) तो हमें अमेरिकन गाय न समझें!!!वास्तविकता में ये बेबस लोग रुपए तो देते ही रहेंगे मगर ये आहें कभी बरक्कत नहीं होने देंगी। इस निर्ममता का मूल्य चुकाना ही होगा-अदालत/सरकार/नेता इससे कोई नहीं बच सकता। तो ईमानदारी ,सहानुभूति के साथ बेरोजगारों के हित के लिए हम तो सोचें ही और अचयनितों से निवेदन है कि आशातीत रहें,सतर्क रहें और तटस्थ रहने के साथ जाग्रत विश्वास रखें-और इस नाजुक समय पर याद रखें समर्थन ,संगठन ही एकमात्र विकल्प है।
उज्ज्वल भविष्य की कामना के साथ सभी को धन्यवाद//
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