शिक्षकों के प्रशिक्षण की चुनौती : 72825 प्रशिक्षु शिक्षकों की भर्ती Latest News

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के इस वाक्य से सहमत न हो पाना असंभव है कि कोई भी समाज या उसके लोग अपने अध्यापकों के स्तर से ऊंचे नहीं जा सकते हैं। अध्यापक के महत्वपूर्ण स्थान को स्वीकार करने के संबंध में अनगिनत प्रशंसापूर्ण वाक्य उद्धृत किए जा सकते हैं और प्रति वर्ष पांच सितंबर को अध्यापक दिवस के अवसर पर ऐसा किया जाता है।
उस दिन लगभग 300 अध्यापकों को राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्रदान किया जाता है।
श्रेष्ठ कार्य-निष्पादन, नवाचार तथा अनुकरणीय आचरण इस चयन प्रक्रिया में विशेष स्थान पाते हैं। अनेक लोगों को लगता है कि सारी प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी तथा दबावों से परे नहीं रह पाती है, मगर कर्मठ तथा समर्पित अध्यापकों का राष्ट्र सम्मान करे, इस पर सभी सहमत हैं। 22 करोड़ बच्चे स्कूलों में हों तो प्रति अध्यापक यदि 30 बच्चों का अनुपात माना जाए तो लगभग सत्तर लाख अध्यापक चाहिए।
आज के आशातीत परिवर्तन के समय न केवल इनका सेवापूर्व प्रशिक्षण आवश्यक है, बल्कि हर तीन-पांच वर्ष में इनके कामकाज को बेहतर बनाने के उपाय भी आवश्यक हैं। प्राइमरी के लिए अध्यापकों का प्रशिक्षण कक्षा बारह पास करने के बाद दो वर्ष का होता रहा है।
माध्यमिक स्तर पर स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण कर यह मात्र एक साल का होता है, जिसे अनेक वर्षो से कम माना जाता रहा है। पहली बार 1999 में ‘पायलट प्रोजेक्ट’ के रूप में दो वर्ष का बीएड पाठ्यक्रम प्रारंभ हुआ तथा सफलतापूर्वक मैसूर, भुवनेश्वर, भोपाल तथा अजमेर के क्षेत्रीय शिक्षा संस्थानों और अहमदाबाद के गुजरात विद्यापीठ में लागू किया गया।
सारे देश में एक वर्षीय पाठ्यक्रम के बावजूद इसमें उत्कृष्ट श्रेणी के छात्र-अध्यापक प्रवेश के लिए आए-यानी समाज तथा युवा वहां अवश्य आकर्षित होंगे जहां उन्हें अच्छी गुणवत्ता का प्रशिक्षण मिलेगा। आज जब भारत के युवा आयुवर्ग के स्वर्णिम काल की चर्चा विश्व भर में है, यह प्रयोग व्यावहारिक अनुभव के अनेक गुर सिखा सकता है। उस समय यहां यह एक साहसिक नवाचार था जो आवश्यक था।
यह प्रसन्नतापूर्वक कहा जा सकता है इस वर्ष से भारत सरकार तथा राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद यानी एनसीटीई ने देश भर में बीएड पाठ्यक्रम को दो वर्ष का करने के निर्देश जारी कर दिए हैं। प्रशिक्षित अध्यापकों की आवश्यकता न केवल देश में, बल्कि विदेश में भी बढ़ रही है, नए अवसर बड़ी संख्या में खुल रहे हैं और भारत की युवा आबादी इसका लाभ उठा सकती है-यदि उसे वास्तव में अपेक्षित स्तर का प्रशिक्षण मिल सके।
शिक्षा से जुड़े लोग जानते हैं कि ऐसा हो नहीं रहा है। देश के अध्यापक प्रशिक्षण महाविद्यालयों में लगभग अस्सी प्रतिशत निजी संस्थाओं के हैं। इनमें से अनेक सुविधा शुल्क की सीढ़ी चढ़कर स्थापित हुए हैं तथा अब यह उसकी वसूली प्रशिक्षु अध्यापकों से कर रहे हैं-नियामक संस्थाओं को धता बताने के गुर इन्होंने सीख लिए हैं। यह अस्वीकार्य स्थिति है, मगर इससे भी अधिक चिंताजनक स्थिति उन कौशलों को लेकर है जिन्हें प्रशिक्षु अध्यापकों को सीखना आवश्यक है, मगर जिनमें न तो अधिकांश संस्थाओं की रुचि है, न उनके पास उचित स्तर के अध्यापक प्रशिक्षक हैं।
एक वरिष्ठ सेवानिवृत्त प्राध्यापक ने बताया कि वे आश्चर्यचकित रह गए जब नियामक संस्था से उन्हें पता चला कि वे तीन निजी शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों के ‘डायरेक्टर’ थे। यह तीनों संस्थाएं उनके नाम तथा अनुभव का इस्तेमाल सरकारी स्वीकृति पाने में कर रहीं थीं। बिना उनके जाने।
आजकल जहां एक तरफ दो वर्षीय बीएड कार्यक्रम के लिए पाठ्यक्रम, पाठ्यचर्चा तथा शिक्षण सामग्री की चर्चा हो रही है तो दूसरी तरफ निजी प्रशिक्षण महाविद्यालय उन उपायों की चर्चा में व्यस्त हैं कि कैसे प्रशिक्षार्थी दो वर्ष का पाठ्यक्रम भी उसी तरह सुविधापूर्ण ढंग से पूरा कर सकें जैसे एक वर्षीय करते आ रहे हैं।
यह भी याद करना आवश्यक है कि अनेक राज्य अपने सरकारी अध्यापक प्रशिक्षण संस्थानों में नियमित नियुक्तियां करना आवश्यक नहीं मानते हैं, यहां अधिकांश प्रशिक्षक ‘डेपुटेशन’ पर लाए जाते हैं।
पारदर्शिता तथा विश्वविद्यालयी स्वायत्तता के अनुसार हर विश्वविद्यालय को अपना दो-वर्षीय बीएड का पाठ्यक्रम बनाना चाहिए। नियामक संस्था का पाठ्यक्रम स्तर का इंगित मात्र माना जाना चाहिए। नई प्रयोगशालाएं चाहिए, कमरे चाहिए, उपकरण चाहिए और प्रशिक्षक चाहिए, पढ़ने-पढ़ाने की सामग्री चाहिए। इसके लिए संस्थाओं को समय चाहिए, पूरी प्रक्रिया से गुजरे बिना क्या त्रिपुरा तथा त्रिवेंद्रम में, झाबुआ या कोरापुट में बीएड का एक सा पाठ्यक्रम पढ़ाना उचित होगा?
स्थानीयता का महत्व तो वैश्विकता के संदर्भ में भी माना गया है। एक अन्य चुनौती भी है-क्या भारतीय दर्शन को उचित स्थान देने का अवसर अभी भी नहीं आया है? लगभग दो साल पहले एक राष्ट्रीय संस्थान ने एक पुस्तक में भारत के शैक्षिक दर्शन के विद्वानों पर पाठ लिखा।
निदेशक के निर्देश पर स्वामी विवेकानंद का नाम हटा दिया गया। आज जब विश्व भर में माना जाता है कि हर देश की शिक्षा व्यवस्था की जड़ें गहराई तक उस देश की अपनी मिट्टी में होनी चाहिए, भारत कब तक औपनिवेशिक काल का विदेशी शैक्षिक दर्शन ढोता रहेगा?
दो वर्षीय बीएड पाठ्यक्रम का निर्णय ठोस तथा व्यावहारिक आधार पर किया गया है, सराहनीय है। इसका अपेक्षित क्रियान्वयन हो सके, इसके लिए दूरदर्शितापूर्ण रणनीति चाहिए। इसे नई पीढ़ी को बनाना चाहिए और उन्हें इसके क्रियान्वयन की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। यह ऐसा नवाचार होगा जिससे स्कूल शिक्षा का स्तर ऊंचा उठाया जा सकता है। इसके लिए सबसे पहले नियामक संस्थाओं को अपनी साख सुधारनी होगी।
लिफाफा प्रदान कर अधिकारिक कार्य संपन्न कराने की प्रथा बंद करनी पड़ेगी, लोगों का विश्वास बढ़ाना पड़ेगा। यदि शिक्षक प्रशिक्षण में मूल्य-आधारित कौशलपूर्ण वातावरण नहीं होगा तो अन्य कहीं भी कैसे हो सकेगा?
• जे0एस0 राजपूत
पूर्व निदेशक
एन सी ई आर टी

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