प्राथमिक शिक्षा की दुर्दशा
असमानता के खिलाफ जंग में शिक्षा सबसे बड़ा हथियार है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम का पूर्ण कार्यान्वयन सुनिश्चित कर हम इसमें कमी कर सकते हैं। देश में शिक्षा का अधिकार अधिनियम या आरटीई अधिनियम अप्रैल, 2010 में अस्तित्व में आया। इस कानून में बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा दिलाने के मूलभूत अधिकार की वकालत करते हुए पाठ्यक्रम के विकास, शिक्षकों के प्रशिक्षण तथा शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात के बारे में विस्तृत दिशा-निर्देश दिए गए।
आरटीई कानून लागू हुए पांच साल गुजर चुके हैं, फिर भी 60 लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं। इनमें ज्यादातर दलित (32.4 फीसदी) आदिवासी (16.6 फीसदी) और मुस्लिम (25.7 फीसदी) समुदायों के हैं।
सरकार ने अधिनियम के पूर्ण अनुपालन के लिए 31 मार्च 2015 की अंतिम समय सीमा निर्धारित की थी, पर आज भी देश में केवल आठ प्रतिशत स्कूल ही आरटीआई अधिनियम का पूरी तरह पालन करते हैं। स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों में से आधे 10वीं कक्षा पूरी करने से पहले स्कूल छोड़ देते हैं। इसकी प्रमुख वजह शिक्षा के लिए अपर्याप्त बजटीय आवंटन है। कोठारी आयोग ने सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने की सिफारिश की थी। पर अभूतपूर्व आर्थिक विकास के इस दौर में शिक्षा पर सार्वजनिक खर्च सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3.4 प्रतिशत ही है।
प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी एक दूसरी तस्वीर उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में बेतवा और यमुना नदियों की गोद में स्थित बढ़ालेवा गांव में देखी जा सकती है, जहां स्कूल के मैदान के बीचोंबीच पीपल के पेड़ के नीचे बाल पंचायत लगती है। हमीरपुर जिले में सरकार द्वारा संचालित यह प्राथमिक पाठशाला देश के उन आठ प्रतिशत स्कूलों में से है, जहां शिक्षा का अधिकार कानून के ज्यादातर प्रावधानों और मानकों का पालन होता है। इस स्कूल का एक सप्ताह ऐसी गतिविधि के साथ शुरू होता है, जिसे ‘ट्रैकिंग’ कहा जाता है। ट्रैकिंग’ अभियान पर निकले बच्चे गैरहाजिर बच्चों के घर जाकर उनके स्कूल न आने का कारण समझ उनके अभिभावकों को उन्हें स्कूल भेजने के लिए कहते हैं। बढ़ालेवा एक नई उम्मीद जगाता है। इससे स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति में 40 फीसदी से अधिक सुधार आया है।
पर देश भर में प्राथमिक स्कूलों की स्थिति अच्छी नहीं। मसलन, शौचालय विहीन स्कूलों में बिहार का नंबर सबसे आगे है। उसके बाद पश्चिम बंगाल, झारखंड, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, ओडिशा और उत्तर प्रदेश आते हैं। पिछले पांच वर्षों में आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटक, तेलंगाना, दिल्ली, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान में लगभग एक लाख सरकारी स्कूल बंद किए जा चुके हैं या बंद किए जा रहे हैं। नतीजतन निजी स्कूलों की संख्या में चार गुना बढ़ोतरी हुई है।
कोई देश सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर तभी आगे बढ़ सकता है, जब वहां प्राथमिक शिक्षा सभी वर्गों के लिए समान और सुलभ हो। आजादी के छह दशक बाद भी सार्वजनिक समान प्राथमिक शिक्षा प्रणाली की अवधारणा भारतीय समाज के लिए सपना है। आरटीई एक ठोस तथा सुविचारित कानून है, पर इसे उसकी क्षमता के हिसाब से पूर्णतः क्रियान्वित करने के लिए सरकारों की इच्छाशक्ति तथा टिकाऊ संसाधनों की जरूरत है।
आवंटन कम होने से सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं, जिससे बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है।
सीमा जावेद
सरकारी नौकरी - Government of India Jobs Originally published for http://e-sarkarinaukriblog.blogspot.com/ Submit & verify Email for Latest Free Jobs Alerts Subscribe सरकारी नौकरी - Government Jobs - Current Opening All Exams Preparations , Strategy , Books , Witten test , Interview , How to Prepare & other details
असमानता के खिलाफ जंग में शिक्षा सबसे बड़ा हथियार है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम का पूर्ण कार्यान्वयन सुनिश्चित कर हम इसमें कमी कर सकते हैं। देश में शिक्षा का अधिकार अधिनियम या आरटीई अधिनियम अप्रैल, 2010 में अस्तित्व में आया। इस कानून में बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा दिलाने के मूलभूत अधिकार की वकालत करते हुए पाठ्यक्रम के विकास, शिक्षकों के प्रशिक्षण तथा शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात के बारे में विस्तृत दिशा-निर्देश दिए गए।
आरटीई कानून लागू हुए पांच साल गुजर चुके हैं, फिर भी 60 लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं। इनमें ज्यादातर दलित (32.4 फीसदी) आदिवासी (16.6 फीसदी) और मुस्लिम (25.7 फीसदी) समुदायों के हैं।
सरकार ने अधिनियम के पूर्ण अनुपालन के लिए 31 मार्च 2015 की अंतिम समय सीमा निर्धारित की थी, पर आज भी देश में केवल आठ प्रतिशत स्कूल ही आरटीआई अधिनियम का पूरी तरह पालन करते हैं। स्कूलों में पढ़ रहे बच्चों में से आधे 10वीं कक्षा पूरी करने से पहले स्कूल छोड़ देते हैं। इसकी प्रमुख वजह शिक्षा के लिए अपर्याप्त बजटीय आवंटन है। कोठारी आयोग ने सकल घरेलू उत्पाद का छह प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने की सिफारिश की थी। पर अभूतपूर्व आर्थिक विकास के इस दौर में शिक्षा पर सार्वजनिक खर्च सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 3.4 प्रतिशत ही है।
प्राथमिक शिक्षा से जुड़ी एक दूसरी तस्वीर उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में बेतवा और यमुना नदियों की गोद में स्थित बढ़ालेवा गांव में देखी जा सकती है, जहां स्कूल के मैदान के बीचोंबीच पीपल के पेड़ के नीचे बाल पंचायत लगती है। हमीरपुर जिले में सरकार द्वारा संचालित यह प्राथमिक पाठशाला देश के उन आठ प्रतिशत स्कूलों में से है, जहां शिक्षा का अधिकार कानून के ज्यादातर प्रावधानों और मानकों का पालन होता है। इस स्कूल का एक सप्ताह ऐसी गतिविधि के साथ शुरू होता है, जिसे ‘ट्रैकिंग’ कहा जाता है। ट्रैकिंग’ अभियान पर निकले बच्चे गैरहाजिर बच्चों के घर जाकर उनके स्कूल न आने का कारण समझ उनके अभिभावकों को उन्हें स्कूल भेजने के लिए कहते हैं। बढ़ालेवा एक नई उम्मीद जगाता है। इससे स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति में 40 फीसदी से अधिक सुधार आया है।
पर देश भर में प्राथमिक स्कूलों की स्थिति अच्छी नहीं। मसलन, शौचालय विहीन स्कूलों में बिहार का नंबर सबसे आगे है। उसके बाद पश्चिम बंगाल, झारखंड, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़, जम्मू-कश्मीर, ओडिशा और उत्तर प्रदेश आते हैं। पिछले पांच वर्षों में आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड, कर्नाटक, तेलंगाना, दिल्ली, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान में लगभग एक लाख सरकारी स्कूल बंद किए जा चुके हैं या बंद किए जा रहे हैं। नतीजतन निजी स्कूलों की संख्या में चार गुना बढ़ोतरी हुई है।
कोई देश सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर तभी आगे बढ़ सकता है, जब वहां प्राथमिक शिक्षा सभी वर्गों के लिए समान और सुलभ हो। आजादी के छह दशक बाद भी सार्वजनिक समान प्राथमिक शिक्षा प्रणाली की अवधारणा भारतीय समाज के लिए सपना है। आरटीई एक ठोस तथा सुविचारित कानून है, पर इसे उसकी क्षमता के हिसाब से पूर्णतः क्रियान्वित करने के लिए सरकारों की इच्छाशक्ति तथा टिकाऊ संसाधनों की जरूरत है।
आवंटन कम होने से सरकारी स्कूल बंद हो रहे हैं, जिससे बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है।
सीमा जावेद
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