जीवन में कभी नहीं होगी आपकी हार,अगर आप मानेगें गीता के ये उपदेश
हालांकि, भगवद गीता सनातन धर्म की लिखित त्रिमूर्ति का एक घटक है, लेकिन इसके उपदेश सार्वभौमिक और गैर-सांप्रदायिक हैं। एक कविता के रूप में लिखी गई गीता जटिल प्रतीत होने वाले आध्यात्मिक विज्ञान के सिद्धांतों को संभव सरलतम रूप में प्रस्तुत करती है।
सदियों से इसने दुनियाभर में लाखों संतों, नेताओं, वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और आम लोगों को गीता के इन उपदेशों ने प्रेरित किया है। भगवद गीता के शीर्ष 10 उपदेश नीचे सूचीबद्ध किए गए हैं।
1. डरे नहीं
मानव का सबसे बड़ा डर क्या है? मृत्यु, यह हम सभी जानते हैं। भगवान कृष्ण अपने मित्रों और भक्त अर्जुन को कहते है कि हमें मृत्यु से नहीं डरना चाहिए। मृत्यु केवल एक संक्रमणकालीन चरण है। मृत्य केवल उन चीज़ों की ही होती है जो अस्थायी होती है; जो वास्तविक रूप से है, वे कभी मर नहीं सकती। कोई व्यक्ति चाहे वह आम नागरिक हो, सैनिक अथवा नेता हो, उसे अपने जीवन, पोज़ीशन और धन खोने का डर नहीं होना चाहिए। रिश्तें, धन और सभी सांसारिक वस्तुएं अस्थायी होती हैं; वे केवल सीढ़ी चढ़ने के उपकरण और एक दिन स्वयं को महसूस करने का साधन होते हैं। यह सोचना मुश्किल नहीं है कि बिना डर के जीवन कितना सुंदर होगा।
2. संदेह न करें
स्वयं पर संदेह या ‘पूर्ण सत्य’ इस ग्रह पर रहने वाले लाखों लोगों के दुखों का कारण है। भगवद गीता के अनुसार, कोई भी संदेहयुक्त व्यक्ति इस लोक या परलोक मे शांति के साथ नहीं रह सकता है। यह महत्वपूर्ण है कि इस उपदेश को जिज्ञाया के साथ न मिलाया जाए जो कि स्वयं को खोजने के लिए किसी भी व्यक्ति के लिए बेहद ज़रूरी है। हालांकि, किसी विद्धान व्यक्ति द्वारा बाए गए दर्शन, विश्वास अथवा सत्य को खारिज करना उचित नहीं है।
3. इच्छाओं पर काबू रखें – मन की शांति का अनुभव करें
सभी विचार, भावनाएं और इच्छाएं मन में जन्म लेती हैं। अपने मन पर काबू किए बिना स्वयं के भीतर गहरे तक झांकना संभव नहीं होता है। मन वास्तव में तभी शांत हो सकता है जब व्यक्ति अनगिनत इच्छाओं से दूर हो। जिस प्रकार समुद्र की सतह पर केवल तभी देख सकते हैं जब उसमें कोई लहर न हो, उसी प्रकार, मन, हृदय और आत्मा के रहस्यों को तभी जाना जा सकता है जब मन में कोई इच्छा न हो। मन की स्थिरता हर किसी के लिए बुद्धि, शांति और सौहार्द के द्वार खोल देती है।
4. क्रियाओं में धैर्य – फल की इच्छा से मुक्त रहें
अधिकांश लोग अपनी क्षमताओं से अधिक कार्य करते हैं। ऐसा अकसर खुशी अथवा दर्द की अधिकता से होता है। उनका हर कार्य कोई पुरस्कार पाने की इच्छा से होता है। उदाहरण के लिए, यदि स्टीव जाॅब्स ने केवल अद्धि़तीय डिजाइनों और सहज
उपयोगकर्ताओं अनुभव का आनंद नहीं लिया होता तो, वे आज अपेक्षाकृत कम सफल होते। यदि कोई व्यक्ति सफलता और विफलता से प्रभावित नहीं होता है तो, इसकी अधिक संभावना है कि वह दैनिक कार्यों में अपनी सारी उर्जा लगाता हो।
5. कर्म करने से न बचें – यह कारगर नहीं है
अपने कर्तव्यों से भागना उचित नहीं है। आयात्मिक बु़िद्ध या शाश्वत शांति दोस्तों या परिवार के सदस्यों से दूर होकर प्राप्त नहीं की जा सकती है। हालांकि, इस भौतिक संसार में रहते हुए अपने कर्तव्यों से बचना संभव ही नहीं है। अतः अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा के साथ निभाने की सलाह दी जाती है। लगातार भटकते हुए मन को नियंत्रित किए बिना विभिन्न शारीरिक कार्य का त्याग करना व्यर्थ है।
6. भगवान आपके साथ है – हमेशा
इस प्रभावशाली सत्य को स्वीकार करने मात्र से ही व्यक्ति का जीवन बदल सकता है। प्रत्येक मानव के माध्यम से वह सुप्रीम शक्ति ही कार्य करती है। स्वयं को भगवान को सौंपने से ही कोई व्यक्ति अपनी चिंताओं और नकारात्मक भावनाओं से आसानी से छुटकारा पा लेता है। चूंकि, मानव भगवान के हाथें की एक कठपुतली मात्र है, इसलिए बीते समय का पछतावा और भविष्य से डरना व्यर्थ है। उस सर्वव्यापी को पहचानन लेने से ही मन और आत्मा की प्राकृतिक शांति बनी रहती है।
7. स्वार्थी रवैये के कारण बुद्धि दुर्गम हो जाती है – इसे खोलें
जिस प्रकार धूल से भरा दर्पण किसी वस्तु का प्रतिबिंब नहीं दिखाता है, उसी प्रकार से, स्वार्थी रवैये से बुद्धि भी अस्पष्ट हो जाती है। स्वार्थी व्यक्ति अपने स्वभाव के कारण दैनिक जीवन में रिश्तों के मामलें में सत्य का अनुभव नहीं कर सकता है। कोई व्यक्ति चाहे धन प्राप्त करना चाहता हो या फिर किसी प्रोफेशन में सफलता प्राप्त करना चाहता हो, संदेह और निराशा को दूर करने के लिए अपने निजी एजेंडे को छोड़ना बेहद ज़रूरी होता है।
8. प्रत्येक चीज़ में सामान्य रहें – जीवन में अति से बचें
गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि यदि व्यक्ति अपनी दैनिक गतिविधियो में संतुलन नहीं बनाता है तो वह निश्चित रूप से ध्यान लगाने में विफल रहेगा। उदाहरण के रूप में, बहुत अधिक या बहुत कम खाना आपको भगवान के निकट नहीं लाता है। ध्यान साधने से व्यक्ति को अपने सभी दुखों को दूर करने में मदद मिल सकती है लेकिन उसे उचित प्रकार से खाना और सोना चाहिए, दैनिक कार्य करने चाहिए और मनोरंजक गतिविधियों के लिए समय निकालना चाहिए।
व्यक्ति को अपने सभी दुखों को दूर करने में मदद मिल सकती है लेकिन उसे उचित प्रकार से खाना और सोना चाहिए, दैनिक कार्य करने चाहिए और मनोरंजक गतिविधियों के लिए समय निकालना चाहिए।प्राप्त करना चाहता हो या फिर किसी प्रोफेशन में सफलता प्राप्त करना चाहता हो, संदेह और निराशा को दूर करने के लिए अपने निजी एजेंडे को छोड़ना बेहद ज़रूरी होता है।
9. क्रोध भ्रम का कारण बनता है: शांत रहें
क्रोध के कारण एक व्यक्ति भ्रमित हो जाता है। भ्रमित होने पर व्यक्ति का मस्तिष्क भेद करने की शक्ति खो देता है। इसके फलस्वरूप् व्यक्ति की तर्क क्षमताएं भी समाप्त हो जाती है। उचित तर्क न कर पाने वाले व्यक्ति का बर्बाद होना निश्चित होता है।
10. शरीर अस्थायी है – आत्मा स्थायी है
गीता में भगवान कृष्ण ने मानव शरीर की तुलना कपड़े के एक टुकड़े से की है। एक व्यक्ति को अपनी पहचान शरीर से नहीं बल्कि वास्तव में स्वयं के भीतर से करनी चाहिए। बढ़ती उम्र या फिर लाइलाज बीमारी का शोक नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार फटे हुए कपड़ों का स्थान नए कपड़े ले लेते हैं, उसी प्रकार एक व्यक्ति की आत्मा नया शरीर धारण कर लेती है। शरीर के बजाय स्वयं के साथ पहचान एक साधक को मानव शरीर की सीमाओं से अलग होने के लिए मदद करता है।
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हालांकि, भगवद गीता सनातन धर्म की लिखित त्रिमूर्ति का एक घटक है, लेकिन इसके उपदेश सार्वभौमिक और गैर-सांप्रदायिक हैं। एक कविता के रूप में लिखी गई गीता जटिल प्रतीत होने वाले आध्यात्मिक विज्ञान के सिद्धांतों को संभव सरलतम रूप में प्रस्तुत करती है।
सदियों से इसने दुनियाभर में लाखों संतों, नेताओं, वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और आम लोगों को गीता के इन उपदेशों ने प्रेरित किया है। भगवद गीता के शीर्ष 10 उपदेश नीचे सूचीबद्ध किए गए हैं।
1. डरे नहीं
मानव का सबसे बड़ा डर क्या है? मृत्यु, यह हम सभी जानते हैं। भगवान कृष्ण अपने मित्रों और भक्त अर्जुन को कहते है कि हमें मृत्यु से नहीं डरना चाहिए। मृत्यु केवल एक संक्रमणकालीन चरण है। मृत्य केवल उन चीज़ों की ही होती है जो अस्थायी होती है; जो वास्तविक रूप से है, वे कभी मर नहीं सकती। कोई व्यक्ति चाहे वह आम नागरिक हो, सैनिक अथवा नेता हो, उसे अपने जीवन, पोज़ीशन और धन खोने का डर नहीं होना चाहिए। रिश्तें, धन और सभी सांसारिक वस्तुएं अस्थायी होती हैं; वे केवल सीढ़ी चढ़ने के उपकरण और एक दिन स्वयं को महसूस करने का साधन होते हैं। यह सोचना मुश्किल नहीं है कि बिना डर के जीवन कितना सुंदर होगा।
2. संदेह न करें
स्वयं पर संदेह या ‘पूर्ण सत्य’ इस ग्रह पर रहने वाले लाखों लोगों के दुखों का कारण है। भगवद गीता के अनुसार, कोई भी संदेहयुक्त व्यक्ति इस लोक या परलोक मे शांति के साथ नहीं रह सकता है। यह महत्वपूर्ण है कि इस उपदेश को जिज्ञाया के साथ न मिलाया जाए जो कि स्वयं को खोजने के लिए किसी भी व्यक्ति के लिए बेहद ज़रूरी है। हालांकि, किसी विद्धान व्यक्ति द्वारा बाए गए दर्शन, विश्वास अथवा सत्य को खारिज करना उचित नहीं है।
3. इच्छाओं पर काबू रखें – मन की शांति का अनुभव करें
सभी विचार, भावनाएं और इच्छाएं मन में जन्म लेती हैं। अपने मन पर काबू किए बिना स्वयं के भीतर गहरे तक झांकना संभव नहीं होता है। मन वास्तव में तभी शांत हो सकता है जब व्यक्ति अनगिनत इच्छाओं से दूर हो। जिस प्रकार समुद्र की सतह पर केवल तभी देख सकते हैं जब उसमें कोई लहर न हो, उसी प्रकार, मन, हृदय और आत्मा के रहस्यों को तभी जाना जा सकता है जब मन में कोई इच्छा न हो। मन की स्थिरता हर किसी के लिए बुद्धि, शांति और सौहार्द के द्वार खोल देती है।
4. क्रियाओं में धैर्य – फल की इच्छा से मुक्त रहें
अधिकांश लोग अपनी क्षमताओं से अधिक कार्य करते हैं। ऐसा अकसर खुशी अथवा दर्द की अधिकता से होता है। उनका हर कार्य कोई पुरस्कार पाने की इच्छा से होता है। उदाहरण के लिए, यदि स्टीव जाॅब्स ने केवल अद्धि़तीय डिजाइनों और सहज
उपयोगकर्ताओं अनुभव का आनंद नहीं लिया होता तो, वे आज अपेक्षाकृत कम सफल होते। यदि कोई व्यक्ति सफलता और विफलता से प्रभावित नहीं होता है तो, इसकी अधिक संभावना है कि वह दैनिक कार्यों में अपनी सारी उर्जा लगाता हो।
5. कर्म करने से न बचें – यह कारगर नहीं है
अपने कर्तव्यों से भागना उचित नहीं है। आयात्मिक बु़िद्ध या शाश्वत शांति दोस्तों या परिवार के सदस्यों से दूर होकर प्राप्त नहीं की जा सकती है। हालांकि, इस भौतिक संसार में रहते हुए अपने कर्तव्यों से बचना संभव ही नहीं है। अतः अपने कर्तव्यों को पूरी निष्ठा के साथ निभाने की सलाह दी जाती है। लगातार भटकते हुए मन को नियंत्रित किए बिना विभिन्न शारीरिक कार्य का त्याग करना व्यर्थ है।
6. भगवान आपके साथ है – हमेशा
इस प्रभावशाली सत्य को स्वीकार करने मात्र से ही व्यक्ति का जीवन बदल सकता है। प्रत्येक मानव के माध्यम से वह सुप्रीम शक्ति ही कार्य करती है। स्वयं को भगवान को सौंपने से ही कोई व्यक्ति अपनी चिंताओं और नकारात्मक भावनाओं से आसानी से छुटकारा पा लेता है। चूंकि, मानव भगवान के हाथें की एक कठपुतली मात्र है, इसलिए बीते समय का पछतावा और भविष्य से डरना व्यर्थ है। उस सर्वव्यापी को पहचानन लेने से ही मन और आत्मा की प्राकृतिक शांति बनी रहती है।
7. स्वार्थी रवैये के कारण बुद्धि दुर्गम हो जाती है – इसे खोलें
जिस प्रकार धूल से भरा दर्पण किसी वस्तु का प्रतिबिंब नहीं दिखाता है, उसी प्रकार से, स्वार्थी रवैये से बुद्धि भी अस्पष्ट हो जाती है। स्वार्थी व्यक्ति अपने स्वभाव के कारण दैनिक जीवन में रिश्तों के मामलें में सत्य का अनुभव नहीं कर सकता है। कोई व्यक्ति चाहे धन प्राप्त करना चाहता हो या फिर किसी प्रोफेशन में सफलता प्राप्त करना चाहता हो, संदेह और निराशा को दूर करने के लिए अपने निजी एजेंडे को छोड़ना बेहद ज़रूरी होता है।
8. प्रत्येक चीज़ में सामान्य रहें – जीवन में अति से बचें
गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं कि यदि व्यक्ति अपनी दैनिक गतिविधियो में संतुलन नहीं बनाता है तो वह निश्चित रूप से ध्यान लगाने में विफल रहेगा। उदाहरण के रूप में, बहुत अधिक या बहुत कम खाना आपको भगवान के निकट नहीं लाता है। ध्यान साधने से व्यक्ति को अपने सभी दुखों को दूर करने में मदद मिल सकती है लेकिन उसे उचित प्रकार से खाना और सोना चाहिए, दैनिक कार्य करने चाहिए और मनोरंजक गतिविधियों के लिए समय निकालना चाहिए।
व्यक्ति को अपने सभी दुखों को दूर करने में मदद मिल सकती है लेकिन उसे उचित प्रकार से खाना और सोना चाहिए, दैनिक कार्य करने चाहिए और मनोरंजक गतिविधियों के लिए समय निकालना चाहिए।प्राप्त करना चाहता हो या फिर किसी प्रोफेशन में सफलता प्राप्त करना चाहता हो, संदेह और निराशा को दूर करने के लिए अपने निजी एजेंडे को छोड़ना बेहद ज़रूरी होता है।
9. क्रोध भ्रम का कारण बनता है: शांत रहें
क्रोध के कारण एक व्यक्ति भ्रमित हो जाता है। भ्रमित होने पर व्यक्ति का मस्तिष्क भेद करने की शक्ति खो देता है। इसके फलस्वरूप् व्यक्ति की तर्क क्षमताएं भी समाप्त हो जाती है। उचित तर्क न कर पाने वाले व्यक्ति का बर्बाद होना निश्चित होता है।
10. शरीर अस्थायी है – आत्मा स्थायी है
गीता में भगवान कृष्ण ने मानव शरीर की तुलना कपड़े के एक टुकड़े से की है। एक व्यक्ति को अपनी पहचान शरीर से नहीं बल्कि वास्तव में स्वयं के भीतर से करनी चाहिए। बढ़ती उम्र या फिर लाइलाज बीमारी का शोक नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार फटे हुए कपड़ों का स्थान नए कपड़े ले लेते हैं, उसी प्रकार एक व्यक्ति की आत्मा नया शरीर धारण कर लेती है। शरीर के बजाय स्वयं के साथ पहचान एक साधक को मानव शरीर की सीमाओं से अलग होने के लिए मदद करता है।
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