शिक्षकों की उपेक्षा : न्याय में देरी, न्याय न मिलने के समान है। न्यायिक क्षेत्र में यह जुमला
काफी प्रचलित है। अब शिक्षक/कर्मचारियों के बीच ऐसा ही जुमला गढ़ा जा रहा
है-वेतन मिलने में देरी भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के समान है। शिक्षकों के
बीच भले यह बात अभी मजाक के रूप में कही जा रही है लेकिन तह में जाएं तो
यह कड़वा सच है। मई का दूसरा सप्ताह चल रहा है और परिषदीय शिक्षकों को
अप्रैल का वेतन नहीं मिला है।
नए भर्ती शिक्षकों के वेतन की बात करें तो पिछले छह माह से उनकी जेब खाली है। कारण, अधिकारी व कर्मचारी नए वित्तीय वर्ष की जरूरतों के मुताबिक तैयारी नहीं कर पाए और ग्रांट लटक गई। चंद प्रक्रियाओं को समय पर पूरा न कर पाने का दंश पांच लाख से अधिक शिक्षकों को ङोलना पड़ रहा है। 75 हजार से अधिक शिक्षकों की मेगा भर्ती के तहत जिनकी नई-नई नौकरी लगी है, उनके लिए तो सरकारी वेतन अभी तक मृगतृष्णा साबित हो रहा है। पहले अभिलेखों के सत्यापन आदि के नाम पर उन्हें वेतन नहीं मिला और अब ग्रांट लटकने के कारण। नया जुमला इसी संदर्भ में चर्चा में है और इसके बीज बरसों से चली आ रही सरकारी कार्यशैली में रोपित हैं।
शिक्षकों पर जिम्मेदारियों का बोझ कम नहीं है। बच्चों को पढ़ाने की अपेक्षा तो स्वाभाविक तौर पर की ही जाती है। इसके अतिरिक्त स्कूल की बिल्डिंग बनवानी हो, मिड डे मील का इंतजाम करना हो, छात्रों की ड्रेस तैयार करानी हो, जनगणना करनी हो, मतदाता सूची पुनरीक्षण हो, मतदान कराना हो या ऐसे ही दर्जनों काम उनके जिम्मे मढ़ दिए जाते हैं। न्यायपालिका का आभार जताना चाहिए कि उसने कुछ जिम्मेदारियां हटाकर शिक्षकों की पीड़ा कम करने की कोशिश की है लेकिन बोझ अब भी कम नहीं। इन सब कामों में रकम का हिसाब किताब रखना होता है। अधिकतर में पहले उन्हें अपनी जेब से खर्चा करना होता है। बाद में ग्रांट आने पर भुगतान होता है। यानी, व्यवहार में शिक्षक को ठेकेदार की तरह काम करना होता है जिसके पास निवेश के लिए अपनी पूंजी होनी चाहिए। शिक्षा मित्रों को तो छह माह में भुगतान होता है और वह भी मामूली। इस पर भी जब समय पर वेतन न मिले तो मनोदशा की कल्पना सहज ही की जा सकती है। व्यवस्था के जिम्मेदारों को इन पहलुओं पर चिंतन करना चाहिए।
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नए भर्ती शिक्षकों के वेतन की बात करें तो पिछले छह माह से उनकी जेब खाली है। कारण, अधिकारी व कर्मचारी नए वित्तीय वर्ष की जरूरतों के मुताबिक तैयारी नहीं कर पाए और ग्रांट लटक गई। चंद प्रक्रियाओं को समय पर पूरा न कर पाने का दंश पांच लाख से अधिक शिक्षकों को ङोलना पड़ रहा है। 75 हजार से अधिक शिक्षकों की मेगा भर्ती के तहत जिनकी नई-नई नौकरी लगी है, उनके लिए तो सरकारी वेतन अभी तक मृगतृष्णा साबित हो रहा है। पहले अभिलेखों के सत्यापन आदि के नाम पर उन्हें वेतन नहीं मिला और अब ग्रांट लटकने के कारण। नया जुमला इसी संदर्भ में चर्चा में है और इसके बीज बरसों से चली आ रही सरकारी कार्यशैली में रोपित हैं।
शिक्षकों पर जिम्मेदारियों का बोझ कम नहीं है। बच्चों को पढ़ाने की अपेक्षा तो स्वाभाविक तौर पर की ही जाती है। इसके अतिरिक्त स्कूल की बिल्डिंग बनवानी हो, मिड डे मील का इंतजाम करना हो, छात्रों की ड्रेस तैयार करानी हो, जनगणना करनी हो, मतदाता सूची पुनरीक्षण हो, मतदान कराना हो या ऐसे ही दर्जनों काम उनके जिम्मे मढ़ दिए जाते हैं। न्यायपालिका का आभार जताना चाहिए कि उसने कुछ जिम्मेदारियां हटाकर शिक्षकों की पीड़ा कम करने की कोशिश की है लेकिन बोझ अब भी कम नहीं। इन सब कामों में रकम का हिसाब किताब रखना होता है। अधिकतर में पहले उन्हें अपनी जेब से खर्चा करना होता है। बाद में ग्रांट आने पर भुगतान होता है। यानी, व्यवहार में शिक्षक को ठेकेदार की तरह काम करना होता है जिसके पास निवेश के लिए अपनी पूंजी होनी चाहिए। शिक्षा मित्रों को तो छह माह में भुगतान होता है और वह भी मामूली। इस पर भी जब समय पर वेतन न मिले तो मनोदशा की कल्पना सहज ही की जा सकती है। व्यवस्था के जिम्मेदारों को इन पहलुओं पर चिंतन करना चाहिए।
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